Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 67
________________ में, नाली के दोनों और पानी न सूखे वहाँ पर लीलफुगरूप में जीव उत्पन्न होते हैं। (६) सूक्ष्म बीज : पांच मूल वर्ण हजारों अवांतर वर्णवाले वड़, पुष्पादि के जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि सूक्ष्म दृष्टि से ही जाने जा सकते हैं। धान्यके कण में जो अग्रभाग होता है। उसमें प्रायः बीज का जीव रहता है। इससे कणके टुकड़े होने पर भी अग्रभाग अखंड हो तो सजीव होने का संभव है। (७) सूक्ष्मवनस्पति : पृथ्वी के समान वर्ण वाली अवान्तर अनेक वर्णवाली। वर्षा के आरंभ में ऐसे सूक्ष्म अंकुरे प्रकट होते हैं जो सूक्ष्म दृष्टि से ही जाने जा सकते हैं। (८) सूक्ष्म अंडे : पांच प्रकार के हैं। (१) मधु मक्खी मांकड आदि के उद्देश अंड (२) उत्कलिका अंड करोलियादि (३) पिपीलिका अंड चीटियों के अंडे (४) हलिका अंड घीरोली के अंडे (५) हल्लोलि का अंड काकिंडी के अंडे। इसके उपलक्षण से दूसरे भी जीवों के सूक्ष्म अंडे समझना। इन अष्ट प्रकार के जीवों को जाने बिना दया का पालन नहीं हो सकता। अतः इसका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इस ज्ञान के बिना का साधु विशिष्ट ज्ञानी की निश्रा के बिना बैठने-उठने या जाने-आने का अधिकारी नहीं माना जाता। जीवाजीवको जाने बिना संयम पालन न होने से विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किये बिना गुरु से अलग विचरने का निषेध है। जिनाज्ञा का अनादरकर संयम की रक्षा कभी किसी ने नहीं की है। विपरीत भव भ्रमण बढ़ता है। अतः उपकारी महापुरुषों ने ज्ञान प्राप्त करने का भारपूर्वक कहा है। रोगादिकारण से शक्ति हीनता में दूसरे साधुओं को वस्त्रादि पडिलेहन करने का अधिकार होने से 'सामर्थ्य हो वहां तक' स्वयं को स्वयं की पड़िहन करनी। इससे साधु शक्ति होने पर भी दूसरों से काम करवाने की इच्छा न करे। पर दूसरा कोई वैयावच्चादि करनेवाला निर्जरा हेतु करे तो निषेध न करे। दोनों समय वस्त्र पात्रादि की पडिलेहन करनी है। वसति की पडिलेहण वर्षाकाल में तीन बार, ऋतुबद्ध काल में दो बार पडिलेहणकर काजा निर्जीव स्थान पर परठना चाहिए। जीवों का उपद्रव हो तो अनेक बार करे। स्थंडिल भूमि (१) अनापात-असंलोक (२) अनुपघात (३) सम (४) अशुषिर (५) अचिरकालकृत (६) विस्तीर्ण (७) दुरावगाद (८)अनासन्न (९) बीलवर्जित और (१०) त्रस-प्राण-बीजादि रहित ये दस गुण और उनके संयोगी भंग १०२४ वॉशुद्ध भंग युक्त भूमि देखना इसके उपरांत दूसरी भी विधि स्थंडिल हेतु जानने योग्य है। भांगाओं का स्वरूप धर्मसंग्रह भाषांतर भाग द्वितीयके पृष्ठ १६४ पर है। संथारेके तृणपाट आदि की पडिलेहण करनी। . प्रतिलेखना 'संस्कृत' और 'पडिलेहणा' प्राकृत भाषा के जैनों के पारिभाषिक शब्द हैं। वे शब्द वस्त्र पात्रादि पदार्थ बार-बार देखने के अर्थ में आते हैं। इस क्रिया का ५८ श्रामण्य नवनीत

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