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विपरीत शिथिलों के संग रहे तो नियमा मंदंपरिणामी बनकर संयम भ्रष्ट भी हो जाय। अतः उत्तम गुरु की निश्रा अति आवश्यक है शिथिलाचारी का संगी कदाच शिथिल न . बने पर उसे (संवास) अनुमोदना का दोष लगता ही है।
आराधना करनी जितनी आवश्यक है उससे उसकी रक्षा विशेष आवश्यक है। धन कमाने के बाद रक्षण करना न आये तो नाश होता है या चौरादिले जाते हैं। वैसे धर्म के परिणामों की रक्षा न हो तो अधर्म का पक्ष हो जाय या परिणाम नष्ट हो जाय। अतः आत्मार्थी को समाधि हेतु आत्मदर्शन (निरीक्षण) बार-बार करना चाहिए। उत्तम ध्यान रूपी यह श्रेष्ठ अनुष्ठान है। तप-जप-ध्यान के बाद समाधि प्रकट होती है। यह समाधि वस्तुतः सुखानुभव कराती है। तप करते हुए भी जप न हो, तप-जप के साथ ध्यान न हो तो समाधि प्रकट नहीं होती। अतः भूलें न हो इसलिए आत्मा का ध्यान बार-बार करना चाहिए। शुभ ध्यान से अशुभ परिणाम टिकते नहीं। इससे भविष्य में अशुभ का (असंयम का) अनुबंध नहीं होता। परंपरा नहीं चलती। और शुभानुबंध होने से अन्य जन्मों में भी ऐसा ही शुभ मार्ग प्रिय होता है। उत्तरोत्तर शुभानुबंध से आत्मा सर्वथा शुद्ध कर्मरहित बनता है अतः आत्म निरीक्षण बार-बार करना चाहिए।
जल सम मोहयुक्त जीव की स्वाभाविक गति अनादिकाल से नीची बन रही है। पानी को रोकने हेतु पाल बांधनी पड़ती है। वैसे आत्मा को नीचे जाते हुए रोकने हेतु संयम की मर्यादाओं का बंध बांधना आवश्यक है। और बांधे हुए बंध में से पानी को उंचे स्थान पर चढ़ाने हेतु यंत्र या योग्य स्थल पर पहुँचाने हेतु नहेर आदि करनी पड़ती है। उसी प्रकार संयम में वर्तक जीव को भी उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणामी बनाने हेतु सतत आत्मचिंतन रूपी आलंबन कीजरूरत है। एक क्षण चिंतन रुकने पर साधक नीचे गिरने लगता है। अतः भगवंत ने श्री गौतम स्वामी को समय मात्र प्रमाद न करने का संदेश दिया है। उसी न्यायानुसार आत्मा स्वयं के आत्मा को क्षण-क्षण देखता रहे।' फिर भी प्रमाद हो जाय और परिणाम मंद होने से भूल दूर करने हेतु उच्च परिणाम की आवश्यकता है। वेशुभ परिणाम जाने के बाद इच्छने पर भी भूल नहीं जाती।इतना नहीं वह भूल जितने समय रहे उतनी दृढ़ होती है और बाद में दूर करनी दुष्कर हो जाती है। इस कारण शुभ परिणाम के समय में, आत्म निरीक्षण करते समय भूल समज में आने पर उसे दूर करनी चाहिए। ऐसा करने से भूल की परंपरा रुकती है और परिणाम विशेष शुद्ध होने से शुभानुबंध होता है। आत्म गवेषणा पूर्वक विचारकर हितमार्ग पर चलना। जातिवंत अश्व स्वामी के बलात्कार से नहीं पर स्वयं के उत्तम स्वभाव से ही लगाम को शीघ्र स्वीकारता है। वैसे उत्तम साधुको भी गुर्वादि के आदेश उपदेश की अपेक्षा रखे बिना स्वयं के आत्मा की रक्षा हेतु स्वयं की भूल सुधारनी चाहिए।
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श्रामण्य नवनीत