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निर्मिल बनते आत्मा के आनंद का प्रमाण बताते हुए कहा है 'एक महिने पर्यायवाले का
आनंद वाणव्यंतर देवों के आनंद से भी अधिक होता है। दो मास पर्यायवाले का असुर कुमार निकाय के देवों से अधिक वैसे तीन मासवाले का शेष भवनपति देव से, चार महिनेवाले का ग्रह आदिज्योतिष देव से, पांच महिनेवाले का चन्द्र सूर्य से, छ महिनेवाले का सौधर्म ईशान कल्प देव से, सात महिने सनत्माहेन्द्र देवसे, आठ महिने पांचवे-छट्टे देवलोक से, नव मासवाले का सातवें-आठवें देवलोक से, दश महिनेवाले का आनतादि चार देवलोक से, ग्यारह मासवाले का नव ग्रैवेयक वासी देव से, और बारह महिने के पर्याय से अनुत्तर विमानवासी देवों के आनंद से भी अधिक आनंद होता है।' उसके बाद पर्याय बढ़ने से जैसे-जैसे आत्म शुद्धि बढ़ती है, वैसे-वैसे शुक्ल अखंड चारित्र, अमात्सर्य,कृतज्ञता आदि गुण युक्त होकर शुक्लाभिजात्य' यानि परम निर्मल बना हुआ सुख को पाता है। संयोगिक सुख परिणाम में वियोगजन्य दुःख में परिणमते हैं और स्वाभाविक सुख शाश्वत बनता है। अतः दैवीसुख की उपमा संयम सुख को घटित नहीं होती। फिर भी संयम सुख का महत्त्व समजाने हेतु दूसरी उपमाओं के अभाव में दैवी सुखों के साथ तुलना की है। जैसे नाटक, गीत, वाजिंत्रादि के सुखोपभोग में देव अदीन मनवाले होते हैं वैसे प्रतिक्रमण-पडिलेहण-स्वाध्यायविनय, वैयावच्च तप-जप ध्यानादि कार्यों में शांतरस का आस्वाद लेते साधु प्रसन्नता के अतूल आनंद का अनुभव करते हैं। हास्य-श्रृंगारादि सभी रसों के आनंद से बढ जाय वैसा आनंद शांतरस का होता है और साधु की सभी क्रिया शांतरस में परिणत होने से श्रमणपने की तुलना में एक भी आनंद नहीं आ सकता।
चारित्र पर्याय के पालन में और त्याग में भावी सुख-दुःख का विचारकर जो निर्मल चारित्र पाले वही सच्चा पंडित-शास्त्रार्थ का ज्ञाता है। वही सुखी है।
यज्ञ की शांत अग्नि को जैसे लोक पैरों तले कुचलते हैं और निर्विष सर्प से गारुड़िक खेल कराते हैं वैसे संयम भ्रष्ट को लोक विविध कष्ट देते हैं और मूर्ख सम उसे नचाते हैं।
जो मुनि यथाशक्ति उत्तरगुणों के परिपालन पूर्वक पूर्ण रूपेण महाव्रतों के पालन में अपने आपको असमर्थ माने तोजन्म भूमि, दीक्षा भूमि एवं विहार भूमि ये तीनों प्रदेश छोड़कर अन्य स्थानों पर मुनिवेश का त्याग कर श्रावक धर्म की परीपालना करनी हितावह है। ___नदी के प्रवाह में बहता काष्ट जैसे समुद्र में पहुँचता है। वैसे विषय सेवन रूपी उन्मार्ग में चढ़ा हुआ, मात्र द्रव्य क्रिया रूपी अनुकूलता के वश बना हुआ और उससे धर्म क्रिया करने पर भी संसार रूपी समुद्र में परिभ्रमण करते अनेक लोकों में कथंचित
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श्रामण्य नवनीत