Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 82
________________ चलनेवाला है और उनकी सेवा से आत्महित साधने का है। अतः आत्मार्थी को स्वयं के काल में जो-जो विशिष्ट गुणवंत हो उनका विनयादिकर स्वहित की साधना करनी । तभी तो उपा. श्री यशोविजयजी ने गाया है 'संयम खप करता मुनि नमिये, देश काल अनुमाने रे। ' आगमों में जिन्हें मूल गुण विराधक कहा है वे और वर्तमान में निःसंकोचता पूर्वक टी.वी वीडियो के स्वयं भाव निश्चितकर उतरवाने वाले और गृहस्थों के घर की टी.वी. वीडियो देखनेवाले, साध्वी, कुमारिका विधवादि स्त्री या नीच जाति की स्त्री के साथ क्रीड़ा करनेवाले, स्व नामना की आड़ में मंदिरोपाश्रय के नवनिर्माण हेतु टीप मंडवाने वाले, बिना पगार के मुनिम बनकर निगराणी रखनेवाले, दूसरों से लेख पुस्तकादि लिखवाकर स्वयं के नाम से छपवानेवाले, शक्ति होते हुए मजदूर एवं थेला गाड़ियों को साथ में रखनेवाले, शास्त्रों का विपरीत अर्थघटनकर नये-नये पंथों का प्रचार करनेवाले, शुद्ध साध्वाचार के प्रचारकों के प्रति द्वेषभाव लाकर उन पर मंत्रतंत्रादि का प्रयोग करनेवाले, लाईट, लेट्रीन का उपयोग अनिवार्य है ऐसा उपदेश देनेवाले, आगम विरुद्ध अनुष्ठानों को आगम सम्मत अनुष्ठान की प्ररूपणा करनेवाले इत्यादि लक्षण युक्त मुनिवेश विडंबक अवंदनीय है। इन्द्र स्वयं इन्द्रासन से भ्रष्ट होने के बाद जैसे स्थान-स्थान पर विविध कष्टों को पाता है वैसे संयम से भ्रष्ट साधु क्षमादि श्रमणधर्म से एवं मान-सन्मानादि लौकिक सुखों से भी भ्रष्ट होता है। सीढ़ी का एक पगथियाँ चुकनेवाला जमीन पर गिरता है वैसे एक प्रतिज्ञा से भ्रष्ट सभी प्रतिज्ञाओं से भ्रष्ट होता है। जब उसके कटु फल अपमानादि भोगने पड़ते हैं तब संयम की किंमत समज में आती है। बाद में संयमावस्था को याद कर-कर झूरना पड़ता है। गृहस्थाश्रम में शांतता नहीं रहती। मच्छीमार माछले पकड़ने सुतर की दोरी की जाल से गुंफित लोखंड के मांस के टुकड़ों को पिरोता है । उसे खाने की लालच से मछली आदि जीव मांस को मुख में लेकर मुख बंध करती हैं तब लोखंड के कांटे से गला कट जाने से जा नहीं सकते और माछीमार के फंदे में फंसकर प्राण गुमाते हैं। वैसे वृद्धावस्था में भोग-त्याग दोनों के लिए अयोग्य बना वह घर बंधनों में फंसकर आर्त्त- रौद्रध्यान पूर्वक मरकर दुर्गति में जाता है। अर्थात् वृद्धावस्था के दुःख भोगते समय संयम के सुखों को याद कर-कर के झूरता है। भोग या त्याग एक की भी साधना नहीं कर सकता और स्वार्थी कुटुंबीजनों के अपमान, अनादर, तिरस्कार आदि से जीवनपर्यंत दुःखी होता है। श्रमणता का आनंद आत्म स्वरूप होने से निरुपाधिक है और देवलोक का आनंद संयोगजन्य होने से उपाधिरूप तुच्छ कृत्रिम होता है। शास्त्रों में संयम पालन से श्रामण्य नवनीत ७३

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