Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 81
________________ भाव में रह सकता है और ये सभी गुण होने पर भी होवे तो सभी गुणों का नाश होवे अतः मायारहित हो वह भाव साधु जानना। परनिन्दा एवं आत्मश्लाघा करने से जीव नीच गोत्र, दुर्भाग्य,अपयश,अशाता, आदि पाप कर्म का बंध करता है। उपरांत पर निंदा से ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों का बंध भी होता है। परिणाम में भवभ्रमण वृद्धि एवं बोधि दुर्लभ बनता है। जिनशासन से भ्रष्ट होता है। अतः किसी को अप्रिय लगे वैसा न बोले। 'पर साधु को कुशील कहने के निषेध में रहस्य यह है कि स्वनिश्रा के साधु को ज्ञानक्रिया के शिक्षण हेतु गुर्वादि प्रधान साधुकटु वचन भी कहने के अधिकारी हैं। निंदा का आशय न होने से हितबद्धि होने से अशुभ कर्मबंध नहीं होता। हा, बिना कारण या ईर्षा भाव से स्व साधु को भी अप्रिय वचन नहीं कहना। स्व प्रशंसा स्वयं करे यह तो बडा दोष है। दूसरों के मुख से भी स्वयं की प्रशंसा न सुने वह साधु स्वमुख से स्वप्रशंसा कैसे करे? अर्थात् उत्तम साधु कभी भी स्वप्रशंसा न करे। कोई भी संपत्ति या गुणों को प्राप्तकर उसका मद करने से भविष्य में वे भाव नहीं मिलते। वर्तमान में भी उसके दुरूपयोग से लाभ नहीं होता और प्रायः चले जाते हैं। स्वयं को उच्च मानने से उंच्चे जाने का लक्ष्य अटक जाता है। और अभिमान रूप दुर्गुण के भार से दबा हुआ आत्मा नीचे उतरता है,अयोग्य बनता है। अतः उत्तम साधु, उत्तम कुल-जाति, रूप-बल आदि पुण्य से प्राप्त पर नाशवंत एवं पर समजकर मद नहीं करता है और तप, श्रुत, लाभ आदि भी उन-उन आवरणों के क्षयोपशम से प्रकटित हैं। सत्ता से सभी में वे गुण हैं। ऐसा समझकर अभिमान नहीं करता। क्षमा-नम्रता आदि आत्म गुणों में रमणता रूप धर्म ध्यान में रक्त रहता है। ऐसा साधुही स्वपर उपकारकर सकता है। वही उत्तम साधु है। वर्तमान में काल-संघयण-बुद्धि सद्गुरु संयोग आदि की अल्पता के कारण सूत्रोक्त गुण प्रकट न हो सके फिर भी लक्ष्य-ध्येय उच्च रखने से विघ्नभूत कर्मों का क्षयोपशम होता है। आराधना का अभिमान न हो, पूर्व महर्षियों के चारित्र प्रति मान अखंड रहे उनका विनय हो और विनय से स्व योग्यता में वृद्धि होती है। किसी भी प्रकार के गुण या पदार्थकी प्राप्ति हेतु वैसी योग्यता प्रकट करनी आवश्यक है। पदार्थ या गुण को प्राप्त करने का यही सच्चा उपाय है। दूसरी बात यह भी समझने की है कि अवसर्पिणी काल के अभाव से उत्तरोत्तर शुभ भाव की अल्पता एवं अशुभ भाव की वृद्धि यह अनिवार्य है इससे उस-उस काल एवं उस-उस क्षेत्र में जो-जो महात्मा संयम के खपी हैं, संयम के इच्छुक हैं वे निरुपाये अपवाद सेवन करते हो उनको सुसाधु के रूप में वन्दनीय-पूजनीय एवं माननीय कहा है। ऐसे साधुओं से ही प्रभु का शासन ७२ श्रामण्य नवनीत

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