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हो रही है,जैनतर एवं कुल से जैन भी आत्मा को भूल रहे हैं। ऐसे कठिन काल में साधु धर्म का निरतिचार पालन करने हेतु यह अध्ययन परम आलंबन भूत है। त्याग उच्च कोटि का होते हुए भी हृदय वैराग्य वासित न बने तब तक त्याग के आनंद का अनुभव नहीं हो सकता। त्याग वैराग्य को प्रकटित करता है और वैराग्य में त्याग का आनंद होता है। इस प्रकार दोनों परस्पर सहकृत बनकर आत्मा को परमोच्च दशा पर पहूँचाते हैं। ऐसी दोनों की अखंड एवं कठिन आराधना गुरु की छाया के बिना शक्य नहीं है। विद्या साधन में उत्तर साधक की जितनी जरूरत है उससे हजारों गुनी जरूर त्याग-वैराग्य की साधना हेतु गुरु की है। कोई स्वच्छंदी तथाविध योग्यता के बिना स्वयं साधना करनी चाहे तो ऐसी विषम परिस्थिति में आ जाय कि जिसका वर्णन करना दुष्कर है। इसी कारण ही मुमुक्षु को गुर्वाज्ञा शिरसावन्द्यकर उनकी निश्रा में रहकर समर्पित भाव से साधुता को आत्म सात करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मार्थी ज्ञान-क्रिया उभय के संयोग से गुर्वाज्ञा को जीवन में उतारने हेतु यथाशक्य प्रयत्न करें।
संयम को स्वीकार करने हेतु शास्त्रोक्त योग्यता के बिना संयम स्वीकृत करनेवाला प्रायः जिनवचन के पालन में प्रसन्न नहीं रह सकता। पांच महाव्रतों के पालन हेतु कष्ट सहन का सत्त्व, विषय विराग, आदि योग्यता युक्त आत्मा (व्यापारी कष्ट सहन करने पर भी लाभ को देखकर आनंदानुभव करता है वैसे) संयम के कष्ट सहनकर भी आत्म स्वरूप की प्राप्ति से आनंदानुभव करता है। अर्थात् आज्ञानुसार चारित्रकी योग्यता को प्राप्तकर दीक्षित बनना ही योग्य है। इस प्रकार दीक्षित आत्मा भी पीछे से प्रमादी बन जावे तो दीक्षा निरर्थक बना दे। अतः जिनाज्ञा पालन में नित्य प्रसन्न रहना। ऐसा भी आत्मा दूसरी ओर से दोष सेवन करे तो दीक्षा निरर्थक हो जावे। अतः स्त्री के वशीभूत न होना अर्थात् वमन किये हुए भोगों का पुनः उपभोग न करना।
जिन वचन प्रति श्रद्धा से प्रकटित दया, व्रत पालन, इंद्रिय जय आदि साधुता के आवश्यक अंग जिसमें प्रकट हो वह भाव साधु कहा जाता है। सभी जीवों को सुख का राग, दुःख का द्वेष, मरण भय, जीवेच्छा आदि समान होने से जीव मात्र स्वतुल्य है 'स्वयं को अप्रिय दुःख दूसरे को न देना' ऐसी समज युक्त मुनि अहिंसादि व्रत पालक, पर पीडा को तजे। महाव्रतों की स्पर्शना अर्थात क्रिया के बल के व्रत पालन नहीं, पर आत्मा को महाव्रत रूप बना दे। अर्थात् भाव से सर्व विरति गुण स्थानक प्रकट करें। ऐसा होने पर भी इंद्रियाँ निरंकुश बने तो सर्वगुण नष्ट हो जावे। अतः प्राप्त गुणों की रक्षा पूर्वक अप्राप्त गुण प्रकट करने हेतु इंद्रिय जय करे वह भाव साधु है। ___कषायत्याग से अभ्यंतर, स्वर्णादि के त्याग पूर्वक बाह्य परिग्रह तजकर पूर्वोपाजित कर्म निर्जरार्थ विनय वैयावच्च आदि संयम योगों का सेवन निरंतर करे एवं
श्रामण्य नवनीत