Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 77
________________ गुरु खड़े हो उससे नीचे के भाग में खड़े रहना वह निम्न स्थान जानना। और किसी कारण से पाट पाटले पर बैठना पड़े तो गुरु ने वापरे हुए आसन पर आदेश से बैठना वह आसन नीचे जानना। वंदन करते समय मस्तक एवं हृदयको नमाकर सन्मानपूर्वक वंदन करना वह नम्र वंदन करना वह नम्र वंदन समझना और प्रश्नादि पूछते समय शरीर को नमाकर दो हाथ जोड़कर अंजली करनी अभिमान अक्कड़ता छोड़नी। वह नम्र अंजली समजना। ऐसे विविध प्रकार से काया से विनय करना। वस्तुतः आत्माको हानि या लाभ की दृढ़ प्रतिति न हो तब हानि से बचने का एवं लाभ प्राप्ति का पूर्ण उद्यम नहीं होता। अतः अविनय एवं विनय का फल यथार्थ जाने वही दोनों प्रकार की शिक्षा को पा सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि अविनय का भय एवं विनय का आदर जिसमें प्रकटित हुआ वह विनय कर सकेगा, अविनय से बच सकेगा एवं ज्ञान-क्रिया प्राप्त कर सकेगा। पूज्य को पूजने से पूजक भी पूज्य बनता है। इस वाक्य के अनुसार आचार्यादि का विनय करनेवाला भीक्रमशः प्रकटित विविध गुणों के योग से पूज्य बनता है। विनय द्वाराजैसे कर्मभार कम होता है वैसे-वैसे कठिन पर विशिष्ट जीवन चर्यापूर्वक सहजता से जीवन जीया जाता है। जब तक जीवन में वास्तविक विनय प्रकट नहीं हुआ है तब तक ही विषय-कषाय आत्मा को संताप उत्पन्न कर सकते हैं। कहा है कि निर्मलशीतल और मधुरजल भी नीम आदिके संयोग से कटु बनता है. जीवन का आधारभूत दूध भी सर्प के मुख में जाने पर प्राण नाशक विष बन जाता है, निर्मल श्रुतज्ञान जैसी उत्तमोत्तम संपत्ति भी दूराचारी को मिल जाय तो अपकीर्ति को प्राप्त होती है, कलंकित होती है एक विनय ही ऐसा विशिष्ट गुण है जिससे दुर्जनजैसे कुपात्र भी सुपात्र बनकर अनेक आत्माओं के लिए पूजक भूषण बन जाते हैं। अथाग लक्ष्मी से जो काम न हो वह विनय से बिना प्रयास किये सिद्ध होते हैं। बल, बुद्धि या दूसरी शक्तियाँ जो काम सिद्ध न कर सके वह काम एक विनय से सिद्ध हो सकता है। और विनय द्वारा ही आत्मा पूज्यों का पूजक बनता है। - गुरु के आशय को समझकर बिना प्रेरणा से स्वयं विनय करनेवाला उत्तमोत्तम स्वयं का हित समझकर करनेवाला उत्तम, फरज समझकर करनेवाला मध्यम, अनादरपूर्वक जैसे-तैसे करनेवाला अधम, और कटु शब्द कहकर विनय करनेवाला अधमाधम समझना। एक ही प्रकारका विनय करते हुए भी आशय भेद से उसका फल भिन्न मिलता है। अतः आत्मार्थी को स्वयं गुरु के चित्त को पहचानकर स्व कल्याणार्थ उनका विनय प्रसन्न चित्त से करना चाहिए। शारीरिक कष्ट सहन से भी दुर्भावना से कथित वचन अति दुःसह्य है। इसी ६८ श्रामण्य नवनीत

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