Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 78
________________ कारण गुर्वादि के प्रेरणात्मक शब्द हितकर भी प्रायः मनुष्य नहीं सुन सकता। जो प्रसन्नतापूर्वक सुनता है वह मान विजयी विनीत शिष्य बनकर जगत में स्वयं पूज्य बनता है। प्रसन्नतापूर्वक सुननेवाला ही प्रेम से उस अनुसार आचरण करेगा। निश्चय नय से पाखंडी, धर्मद्रोही,और निन्हवादि की भी निन्दा तिरस्कार करना साधुका धर्म नहीं है। व्यवहार से ऐसा करना पड़े तो स्व-पर हित के परिणाम रखना। दूसरों की निन्दा-तिरस्कार करने का सामनेवाले के दोषों से नहीं पर मान-क्रोधादि स्वयं में रहे दोषों से होता है। ऐसा करनेवाला स्वयं दोषों से कर्म बंधनकर भारयुक्त बनता है। और सामनेवाले का हित नहीं कर सकता। इस कारण किसी को कटु कहना पड़े तो भी अभिमान या क्रोधादिदोषों से पर रहकरसामनेवालेकी हित बुद्धिसे कहना, यह साधु का धर्म है। एक बार दोष कहने रूप हीलना बार-बार दोष कहने रूप खिंसा समझनी। इनके कारणभूत क्रोध एवं मान होने से उसको भी छोड़ने चाहिए। कारण कि मूल कारण को छोड़े बिना उसमें से प्रकट होने वाले दोषों से बच नहीं सकते। शिष्यको विनय करने का एवं गुरुको योग्य शिष्य को गीतार्थबनाकर योग्य पद पर स्थापन करने का धर्म है। ऐसा गुरु-शिष्य का योग हितकर एवं परिणाम में मोक्ष साधक बनता है। तपस्वी, जितेन्द्रिय एवं सत्य का रागी ऐसे विशेषण शिष्य की योग्यता के सूचक है अर्थात् इन गुणों से उसे गुरु योग्य पद पर स्थापन करता है और वे पूज्य बनता है उसमें भी वे गुण हेतुभूत है। अतः विनीत साधु को वे गुण प्राप्त करने हेतु बद्धलक्ष्य बनना चाहिए। ___गुरु के हितोपदेशक वचन ऐसा अगम्य उपकार करते हैं कि श्रोता प्रारंभ में तो उसे समज नहीं सकता। उन वचनों को सुनने एवं आचरने में जितना आदर अधिक उतना लाभ अधिक और शीघ्र होता है। महाव्रतों का भार उठाने की शक्ति प्रकट करनी, मनोगुप्ति द्वारा मन पर विजय प्राप्त करना, कषाय विजय, आदि दुष्कर-दुष्कर कार्य भी गुर्वाज्ञा के आधीन रहा हुआ कर सकता है और अनादि काल से घरकर रहे हुए भयंकर दोष भी दूर होते हैं। मनुष्यजन्म में ही विनय शक्य है। ऐसा विनयवंत उत्तम साधु उत्तरोत्तर व्यवहार कुशल बनकर बाह्य औचित्य का पालन अखंड रूप से करता है। यह बाह्य औचित्य रूप शुद्ध व्यवहार के योग से आत्मा में समाधि का - समता सामायिक का (निश्चय का) बल बढ़ता जाता है। और परिणाम में सामायिक चारित्र में से यथाख्यात चारित्रको प्राप्त वह सर्वकर्म क्षयकर अजरामर पद प्राप्त करता है। अभिगम कुशल विशेषण का अर्थ आगम में प्रवीण साधु लोक व्यवहार सम लोकोत्तर व्यवहार में भी कुशल होता है। वर्तमान में प्रति दिन जड़ के रंग में निमग्न बन रही दुनिया में आत्म रक्षा दुर्लभ श्रामण्य नवनीत ६९

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