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भाव प्राणों का नाश होता है पर गुरु का अहित नहीं होता ।
अग्नि, सर्प एवं विष के परिणामों से बचने का उपाय जगत में है। पर लोकोत्तर अपराधों के परिणामों से बचने का उपाय नहीं है। सर्व सत्ताओं से शक्तिशाली कर्म सत्ता अदृश्यता पूर्वक ऐसा संचालन कर रही है कि उस की कैद में से कोई छूटने-छोड़ने में समर्थ नहीं है। जिन आज्ञा पालन रूप धर्म ही कर्म सत्ता से छुड़ा सकती है। अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है कि धर्म सत्ता से विमुख जीवों को कर्मसत्ता अपने बल से दबाकर कर्मसत्ता के वफादार बनाती है। इस हेतु इस कर्म से भयभीतों को धर्म का शरण स्वीकार किये बीना सुखी होने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा जिनेश्वरों ने भारपूर्वक जाहेर किया है। धर्म-कर्म का अवहेलक कभी सुख नहीं पा सकता। कभी जीवन सामग्री के संयोग रूप आपात मधुर सुख मिल जाय तो भी वे भविष्य में विशेष दुःखी बनावे | इसीलिए ज्ञानियों ने 'संजोग मुला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा' ऐसा कहा है। गुरु का विनय भी अहितकर सभी संयोगों में से छूटने हेतु ही आवश्यक है। उसके विपरीत आशातना करे तो दुःखी होता है। ये स्पष्ट समज में आवे वैसी निश्चित सत्य हकिकत है।
शक्ति अर्थात् भाले जैसा तीक्ष्ण अणीदार शस्त्र समझना, उसको हाथ से प्रहार करने से हाथ वींधता है । मस्तक से पर्वत तोड़े तो मस्तक फूटता है, सोया सिंह जगानेवाले को खा जाता है। वैसे गुरु की आशातना से गुरु का अहित न हो पर आशातना करनेवाले का अवश्य अहित होता है।
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कहा है 'ध्यान मूलं गुरोमूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदौ । मन्त्र मूलं गुरो र्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।' गुरु की आकृति का ध्यान सर्व श्रेष्ठ ध्यान, गुरु चरण की पूजा सर्वश्रेष्ठ पूजा, गुरु आज्ञा सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ मंत्र एवं गुरु कृपा मोक्ष का मूल है। अर्थात् मोक्षार्थी को सर्व प्रथम गुरु कृपा प्राप्त करनी चाहिए। कारण कि उसके बिना छोटा-बड़ा कोई गुण प्रकट नहीं होता अगर प्रकट हो जाय तो आत्म हित न कर सके (गुरु कृपा के बिना चाहे जैसा ज्ञानी, क्रियावान भी प्रशमभाव आदि समाधि के अंगों को प्राप्त नहीं कर सकता।) और समाधि ( सामायिक) बिना मुक्ति कभी नहीं होती। अतः गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करने हेतु वर्तन करना चाहिए।
देव सेवा करनी, पर अपेक्षा से देव सेवा से भी गुरु का विनय अधिक करना । आगमों में कहा है 'तीर्थकरों से तीर्थ का महात्म्य अधिक है' अर्थात् तीर्थंकर मोक्ष मार्ग दर्शक-तीर्थ प्रवर्तक हैं। एवं गुरु तीर्थ स्वरूप होने से अपेक्षा से तारक तो गुरु है। अतः तीर्थंकरों से भी गुरु का उपकार विशेष है। तीर्थंकर संस्थापित तीर्थ को सर्व देशों में, सर्व काल में प्रसारित करने वाले चलाने वाले गुरु हैं। देव, गुरु एवं धर्म इन तीन तत्त्वों में 'डेहली दीपक न्याय देव और धर्म की पहचान करानेवाले होने से गुरु अधिक
श्रामण्य नवी
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