Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 74
________________ विनयं के अभाव में निद्रा विकथादि प्रमाद होता है। गृहस्थ को धन संपत्ति समान साधु गुण संपत्ति यही वास्तविक धन है । विनय के अभाव में साधु दरिद्र रहता है। और वह गुणहीनता (उपलक्षण से अवगुण ही) उसके जन्म को निष्फल बनाती है। अतः आत्मार्थी को गुरु के आगे मान छोड़कर विनय करना चाहिए। किसी अल्प बुद्धिवाले व्यक्ति को भी सौभाग्यादि विशिष्ट गुणों के कारण आचार्य ने पदासीन किये हो, अन्य योग्य साधु के अभाव में या दूसरे किसी कारण से आयु में छोटे या अल्प श्रुतवाले को आचार्य पद दिया हो। उनको कोइ अभिमानी क्षुद्र साधु 'हे बुद्धिमान ! हे वयोवृद्ध ! हे बहुश्रुत !' आदि शब्द कहकर हास्य करे अथवा हे मंदबुद्धि ! हे बाल! हे अज्ञ! आदि कहकर अपमान करे तो गुरु की घोर आशातना से उसका भवभ्रमण बढ़ जाता है। अल्प पर वास्तविक गुण वाला व्यक्ति कभी किसी का अपमान निन्दा आदि नहीं करता । किसी अयोग्य को देखकर भी कर्म विपाक का ज्ञाता उसकी भावदया का चिंतन करता है। जिसे अयोग्य खटक रहा है वह स्वयं अयोग्य है। अतः आत्मार्थी को किसी का अपमान निंदा, अवहेलना आदि नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने का विचार आवे तो अपनी दुष्टता समझनी । ज्ञान, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमानुसार एवं सदाचार मोहनीय कर्म के क्षयोपशमानुसार प्रकट होते हैं। उसका उम्र के साथ संबंध नहीं है। जो कि मति श्रुतज्ञान इंद्रियजन्य होने से इंद्रियों का बल आवश्यक है, फिर भी मुख्यता से ज्ञान आत्मिक गुण होने से क्षयोपशम के प्रमाण में प्रकट होता है। इस कारण से वय अधिक, शरीर शक्तिमान होने पर भी क्षयोपशम मंद होने से ज्ञान अल्प और वय कम एवं शरीर निर्बल होने पर भी क्षयोपशम तीव्र हो तो ज्ञान अधिक हो सकता है। सदाचार का ज्ञान के साथ संबंध होने पर भी मोहनीय कर्म का क्षयोपशम विशिष्ट होने से विषय कषायों की मंदता के कारण किसी में अल्प किसी में विशेष भी होता है। अतः वय में अल्प या ज्ञान में अल्प पर कोई चारित्र गुण की विशिष्टता के कारण से आचार्य पद के योग्य होने से आचार्य बने तो उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। ऐसा उत्तम साधु समझता है। इतना ही नहीं आचार्य उत्तम होने से किसी का अहित न करे पर उनकी आशातना करनेवाला स्वयं आशातना जन्य पाप कर्म से भी स्वयं के ज्ञानादिगुणों को जलाकर भस्मसात करता है। अग्नि से खेलनेवाला स्वयं के दोष जलाता है। अग्नि में 'मैं इसे जला दूँ' ऐसी बुद्धि नहीं होती, उसी प्रकार उत्तम पुरुष किसी अपराधी का अहित नहीं करते फिर भी अपराध करनेवाले की हानि होती है। वैसे आचार्य की आशातना करनेवाला स्वयं गुण भ्रष्ट होता है। ऐसा समझकर आशातना नहीं करता। प्रकट अग्नि आदि से द्रव्य प्राणों का नाश वैसे गुरु आशातना से सम्यग्ज्ञानादि श्रामण्य नवनीत ६५

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