Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 72
________________ अपेक्षा से कहे तो विनय औदार्यता के बिना नहीं हो सकता। बाह्य संपत्ति का दान करना जिसे सहज है उसे भी सन्मान का दान करना दुष्कर है। बाह्य संपत्ति के दान में मान छोड़ना नहीं पड़ता, विपरीत मान की वृद्धि होती है एवं विनय में तो मान छोड़कर दूसरे के मान की वृद्धि करनी पड़ती है। शास्त्रकार चारों गति के जीवात्माओं में मानव को सर्वाधिक मानी कहते हैं। सम्यग्ज्ञान रहित अज्ञानी ही दूसरों का विनय करने में स्वयं की मान हानि देखता है। जिससे उसे विनय दुष्कर लगता है। दूसरी ओर से विचार करने पर एक छोटा सा गुण भी विनय के बिना वास्तविकता से प्रकट न होने से ज्ञानियों ने विनय को धर्म का मूल कहा है। __ अज्ञानी आत्मा, ज्ञान-सुख-तप-यश-स्थविरता आदि का अहंकारकर कृत्रिम आनंद को वास्तविक आनंद मानकर भवोभव का परिभ्रमण बढ़ाता है। ज्ञानी पुरुष गुण संपत्ति के स्वभाविक आनंद का अनुभव करते हैं। स्वभाविक आनंद में अहं नहीं होता। जैसे जल में लाख का वजन नहीं होता। वास्तविक ज्ञानी में बाह्याभ्यंतर संपत्ति प्रकट होगी वैसे-वैसे वह नम्र बनेगा। मनुष्य में मान अधिकता से है वैसे मान तजने की शक्ति भी मानव में ही विशेष है। उसीसे मानव मोक्षाधिकारी है। मोक्ष के निमित्त कारणों में यह भी एक निमित्त कारण स्थूल दृष्टि से दूसरों को मान देना दिखायी देता है पर वास्तव में विनय करनेवाले का मान-महत्त्व बढ़ता है। आत्म संपत्ति का विकास होता है। उसकी गणना महापुरुषों में होती है। अनेक आत्मा उसका आदेश ग्रहण करते हैं। उसमें उन सब को सन्मार्ग पर लगाने की शक्ति प्रकट होती है। विनय की शक्ति का वर्णन करने की शक्ति मानव में नहीं है। ___'वनो वैरी ने वश करें' अर्थात् विनय दुश्मनों को भी वश में कर लेता है। मानव मात्र की सच्ची शोभा विनय से है तो फिर साधु पद पर रहे हुए आत्मा के लिए क्या कहना? राज्य सिंहासन पर बैठे चक्रवर्ती से भी गुरु के सामने नत मस्तक खड़ा साधु विशेष शोभा को पाता है। 'देवो वितं नमसति' का एक कारण साधु का विनय गुण है। जो देव-दानव एवं राजा-महाराजाओं में भी दुर्लभ है। विनय के दो भेद ः (१) द्रव्य विनय (२) भाव विनय। नेतर, स्वर्ण आदि पदार्थ में रही हुई नम्रता द्रव्य विनय है। भाव विनय के पांच भेद हैं। (१) लोकोपचार विनयः लोकानुसरण करना,खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि पूजा आदि वैभवानुसार इष्ट देव की पूजा आदि। श्रामण्य नवनीत

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