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श्री गौतम स्वामीजी बार-बार प्रभु महावीर देव को पूछते थे और उत्तर श्रवणकर 'तहत्ति' कहते थे। तो सामान्य आत्मा को तो अवश्य वैसा ही करना चाहिए।
काल का पंजा अतर्कित कब गिरेगा ये ज्ञानी बिना कोई नहीं जानता और मरण के बाद पुनः यह धर्म सामग्री मिलनी सुलभ नहीं है। कारण कि सुआराधना से प्रायः देवलोक मिलता है एवं न करने या विपरीत करने से तिर्यंचादि गति प्राप्त होती है। मनुष्य मरकर मनुष्य बनना देवभव से भी दुर्लभ है। फिर भी कदाच मानव भव मिल जाय तो भी आर्य देश, उत्तम कुल आदि धर्म सामग्री तो एक-एक से भी दुर्लभ है। अतः वर्तमान में मोहादि के आक्रमण की रोकथाम हो सके वैसी मर्यादाओं को मजबूत करनी चाहिए। विशेष करने के ध्येय से भी मर्यादाओं को शिथिल करने से अंत में सर्वनाश होता है, और मर्यादाओं को मजबूत करते हुए अल्प हो तो भी संगीन जिनाज्ञानुसार अनुष्ठान होने से विशेष उपकार होता है। अतः मार्गानुसारिणी बुद्धि से परिणाम दृष्टा बनकर वर्तमान को सुधारना चाहिए।
मानसिक परिणाम होने पर भी वृद्धावस्था, व्याधि एवं इंद्रियों की क्षीणता होने पर परिणाम सफल नहीं होते। इसी कारण ज्ञानियों ने कहा है कि शुभमनोरथ लम्बे समय तक नहीं रहते एवं रह जावें तो सामग्री अनित्य होने से रहनी दुःशक्य है अतः शुभ कार्यों में विलंब न कर पूर्ण करना चाहिए।
तथाविध विनयादि से प्रसन्न गुरु शिष्य को सुपात्र समज शास्त्र की रहस्य भूत बातें बतावे-समजावे। अतः निर्मल ज्ञानार्थि को गुर्वादि ज्ञानियों का विनयकर उन्हें प्रसन्न करने चाहिए। विनय से पात्रता प्रकट होती है। और आवरण रूप कर्मों का क्षयोपशम होता है। इससे आत्मा में ज्ञान प्रकाश होता है। स्वयं पुस्तकें पढ़कर प्राप्त ज्ञान मोह का घात करने में असमर्थ है। विनय से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का नाश होने
प्रकटित ज्ञान प्रकाश मोहान्धकार का नाश करता है। अतः अध्ययन के स्थान पर बहश्रुतोपासना करने का जो कहा वह विनय से जितना और जैसा ज्ञान प्रकट होता है। उतना या वैसा ज्ञान स्वयं या विनय बिना अयोग्य के पास पढ़ने से भी कभी नहीं होता । आचारांग पढ़ने से शब्दों के लिंगादि का सामान्य एवं भगवतीजी से उन्हीं लिंगादि का विशेष ज्ञान होता है । दृष्टिवाद से प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्ण विकार (भेद, काल, विभक्ति आदि व्याकरण) संबंधी पूर्ण बोध होता है। फिर भी छद्मस्थ होने
ज्ञान की भी भूल हो जाय अतः उत्तम मुनि की स्खलना सुनकर मश्करी न करें। फिर सामान्य बोध वाले की स्खलना की हंसी हो भी कैसे ? अर्थात् किसी की भूल जानकर मुनि हंसी- मश्करी करे नहीं । दृष्टिवाद को पढ़ा हुआ न कहकर पढ़नेवाला जो कहा इसमें हेतु यह है कि दृष्टिवाद को पढ़ने के बाद विशिष्ट ज्ञान के कारण प्रायः उसकी
श्रामण्य नवनीत
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