Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 69
________________ श्री जिनकथित भाव कभी मिथ्या न हुए, न होंगे, आज भी सफल हैं। मात्र ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक उन आचारों का पालन होना चाहिए। जैनशास्त्र प्रसिद्ध वल्कलचिरि प्रतिलेखना द्वारा केवली बने। यह पूर्व भव की प्रतिलेखन की उत्तम क्रिया के उत्तम संस्कारों का फल है। मनोगुप्ति एवं अहिंसा के पालन में प्रतिलेखनाअनन्य आलंबन है। मुहपत्ति के बोलपूर्वक सभी वस्त्र-पात्रादि की प्रतिलेखना उसके रहस्य को समझकर करने से वस्त्र-पात्र आदि भी पवित्र बनते हैं। जिससे वे वस्त्रादि दोष दूर करने में, गुण वृद्धि करने में एवं निर्जरा में सहायक बनते हैं। गृहस्थ भी सुना और देखा हुआ सभी कहने का अधिकारी नहीं है तो साधु सभी कहे ही कैसे? मनुष्य को निचे का वस्त्र पहने बिना चले ही नहीं, ऊपर का अंग भी निष्कारण खुल्ला नहीं रखा जाता। इसमें भी यह रहस्य है। गृहत्याग को सदैव गुप्त रखना और कारण से ऊपर के अंग को 'खुल्ले' रखने सम अहितकर बातें छुपाना, किसी को न कहना एवं हितकर भी प्रत्येक को न कहकर जिनका हित हो उसे ही कहना। यह स्व-पर हितकारी व्यवहार है। ___दुष्टभाव विष्टा सम दुर्गन्ध प्रसारितकर सुननेवाले में रंग राग-द्वेष आदि आत्मा के रोगों को और शुभ भाव पुष्पों के समान सुवास प्रसारितकर क्षमादि आरोग्य प्रकट करता है। अतः विष्टादि समान अशुभ बाबतों को गाड़नी-छुपानी-भूल जानी चाहिए। और आत्महित हो ऐसी बाबतें भी विधिपूर्वक कहनी चाहिए। श्रुत-चारित्रवंत सद्गुरु का वचन प्रायः अमोघ होता है, निष्फल नहीं होता, अतः उसको सुनते ही 'तहत्ति' कह स्वीकृत करना चाहिए।और उस प्रकार आचरणकर सफल बनाना चाहिए।'तहत्ति' ऐसा महामंत्र है कि उसका उच्चारण करते हीशीघ्र कर्म तूटते हैं और कार्य में सफलता मिलती है। 'एवंमेअंतहमेअंअवितहमेअं,असंदिद्धमेअं, इच्छियमेअं,पडिच्छियमेअं, इच्छिअंपडिच्छयमेअं,सच्चेण, एसमठे से जहेअंतुब्भे वयहत्ति' अर्थात् यह ऐसा ही है, वैसा ही है, सत्य है, निःसंदेह है, मैं ऐसा ही इच्छता हूँ, बार-बार इच्छता हूँ, यह सत्य ही है कि जो आप कहते हो, आदि, कल्पसूत्रादि मूल आगमों के शब्द विनय रूप हैं, विनय से शीघ्र विघ्न भूत अंतराय तूटते हैं, और कार्य निर्विघ्नता से पूर्ण होता है। उत्तम गुर्वादि का वचन उत्तम होते हुए भी उसका स्वीकार या अमल करने की कला न हो तो वह निष्फल होता है, इतना ही नहीं अनादर करने से अनादर नामकी आशातना द्वारा मोहनीयादि कर्मों का बंध होता है करने हेतु ही जी, जी, जी आदि बोलते हैं। दश प्रकार की समाचारी में तहकार' समाचारी भी इसी कारण कही है। अतः गुरु वचन को निष्कपट भाव से आदरपूर्वक स्वीकार करना और इस अनुसार आचरण करना, यही, साधुता को सफल बनाने हेतु जरूरी है। संपूर्ण श्रुतधर ६० श्रामण्य नवनीत

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