Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 68
________________ महत्त्व रहस्य विशेष है। वर्तमान में प्रतिदिन प्रतिलेखन करनेवाले जैनो में भी उसे समझने वाले कम होते जा रहे हैं। कितनेक तो मात्र कायक्लेश समझकर करते हुए भी उसके फल से वंचित रहते हैं। प्रतिलेखन में सामान्य हेतु 'जीवरक्षा' एवं जिनाज्ञा का पालन है मुख्य हेतु 'मन मर्कट को वश करना' यह है। मन को वश करने हेतु वस्त्रादि की पडिलेहण करते समय वे-वे बोल बोलने का विधान है। उन ५० बोलों का वर्णन धर्म संग्रहादि ग्रंथों से जान लेना। ___'सूत्र-अर्थ-तत्त्व करी सदृहु' आदि ५० बोलों का सामान्य अर्थ, विचारणा से समज में आये ऐसा है। रहस्यार्थ में ये मात्र बोल नहीं है पर आत्म शुद्धि के साथ आत्मा को संयम में स्थिर करने वाले महामंत्र हैं। इनमें १९ बोल मिथ्यात्व मोहनीय एवं ३१ बोल अविरति का नाश करने में सक्षम है। जिनकथित प्रत्येक अनुष्ठान में आत्म शुद्धि का उद्देश है। प्रतिलेखनका कार्य वस्त्र-पात्रकीरज दूर करने मात्र ही नहीं है। इसमें कर्म रज दूर करने की क्षमता है। ऐसी श्रद्धापूर्वक की जानेवाली प्रतिलेखना ही कर्मक्षय में सहायक है। प्रतिलेखन में उन-उन अंगों को वस्त्र का स्पर्श करते हुए बोलने में 'परिहरु' शब्द उन-उन दोषों का नाश एवं आदरुं' शब्द उन-उन गुणों का प्रादुर्भाव करनेवाला है। जीव को हास्य, शोक, रति, अरति आदि भाव कर्मोदय से होते हैं। कर्म पुद्गलरजस्वरूप है।जैसे वस्त्र के छोर से रज दूर कि जाती है वैसे प्रतिलेखन से कर्मरज दूर हो सकती है। जैसे शरीर के किसी अंग को स्पर्श करने से हर्ष-शोक-अहंकार-काम वासनादि की भावना प्रकट होती है वैसे प्रतिलेखन करते मुहपत्ति आदि से उन-उन अंगों के स्पर्श से वे-दोष दूर हो यह युक्ति संगत है। वर्तमान में 'मेसमरिझम' की क्रिया से सिद्ध बना हुआ यह तत्त्व है। उसी अनुसार रोगादि की शांति हेतु कितनेक व्यवहार आज भी लोक करते हैं। जैसे सर्प-बिच्छु आदि का विष, भूत-प्रेतादि, गरमी की लु आदि को उतारने हेतु वस्त्रके छोर उन-उन अंगों को स्पर्शकर मंत्रोच्चार किया जाता है। उससे लाभ भी होता है। माता, पुत्र के शरीर पर, मालिक स्वयं के अश्व-वृषभ-गो आदि पर प्रेमपूर्वक हाथ फिराता है। तो उनका थाक-शोक दूर होता है। प्रसन्नता प्रकट होती है। आदि अनुभव सिद्ध हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में भी ऐसा व्यवहार है। जैसे गायत्री जापकेसमय ब्राह्मण हाथसे अंगों को स्पर्श करते हैं,कोइ डाभ नामक वनस्पति से अंग स्पर्श करते हैं और जैनी आत्मरक्षादि स्तोत्रादि के उच्चारण पूर्वक विविध अंगों का स्पर्श करते हैं। उसी प्रकार धर्म क्रियाओं में भी अंग स्पर्श होता है। उससे लाभ भी होता है। लाभ न होने में उस-उस विषयका अज्ञान एवं अश्रद्धा कारणभूत है। प्रतिलेखन की क्रिया विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा आचरित, मानित, उत्तम क्रिया है। श्रामण्य नवनीत ५९

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