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आत्महित साधना में उपयोग करना यही जिनाज्ञा है। निश्चय से दूसरे के लाभ हेतु नहीं पर स्वयं के कर्म निर्जरा हेतु बोलना है। इस लक्ष्य में परोपकार सम्मिलित है ही। कर्म बंध के भय बिना भाषक की भाषा से कर्मबंध एवं अपकार होने का विशेष संभव है। स्व-पर हितकारी वचन बोलने हेतु शिक्षण लेना भी आवश्यक है। वैद्यक या डॉक्टरों की किंमत औषध से नहीं औषध की योजना पर है। वैसे भाषा की किंमत शब्दों की योजना पर निर्भर है। साधु एवं गृहस्थ सभी को स्वयं की कर्म निर्जरा पूर्वक श्रोता का हित हो उतना ही बोलना चाहिए। समय की अनुकूलता पूर्वक बोलने हेतु मार्गदर्शन अध्ययन से ही प्राप्त होता है। यथायोग्य बोलने का अध्ययनकर बाद में यथायोग्य बोलना जिससे स्वपर का हित हो।
जो-जो साधु भगवंत मूलगुण रूपी गुणों में सुस्थित अर्थात् निरतिचार तथा मूलगुणों का परिपालन कर रहे हैं, उनके वचन घृत से सींचन किये हुए दीपक कीज्योत के समान देदीप्यमान होते हैं। मूलगुण से रहित आत्माओं के वचन घृत रहित दीपक के समान शोभा नहीं देते। उनके वचनों का कोई आदर नहीं करता। . (१) सूक्ष्म अप्काय : पांच प्रकार से (१) आकाश से होती सूक्ष्मवर्षा ओस (२) हीम (बर्फ) (३) धूम्मस (४) करा (५) जमीन में से निकलने वाले वनस्पति के अंत में छोटे जलबिंदु होते हैं वे। (२) सूक्ष्म पुष्प : पांच प्रकार से (१) काले (२) नीलवर्ण के (३) लाल (४) पीले (५) श्वेत उपलक्षण से बादामीकेसरी आदि सभी मिश्रवर्णके भी समजना। इतने सूक्ष्म वृक्ष के वर्णजैसे होते हैं जो सूक्ष्म दृष्टि से ही जाने जा सकते हैं। (३) सूक्ष्म बीज : उपर दर्शित पांचों वर्ण एवं हजारों अवान्तर वर्णवाले कुंथुआ आदि इतने सूक्ष्म होते हैं जो हलन-चलन से ही पहचाने जाते हैं। (४) उतिंग : जीवों के घर पांच प्रकार के (१) उतिंग जाति के जमीन को भेदकर अंदर पोलाण के भाग में गधैया के आकार वाले जीव। (२) पानी सूख जाने पर पृथ्वी के कटे हुए भाग में रहनेवाले जीव (३) सरलबीज जो पृथ्वी की उंडाइ में होते हैं। उसमें रहनेवाले जीव (४) ताल मूल के आकारजैसा बील ऊपर से छोटा अंदर से बड़ा, उसमें रहनेवाले जीव (५) भ्रमर भ्रमरी के घर उपलक्षण से अनेक प्रकार के जीव दीवारों के कोने में, जाले आदि बांधकर रहनेवाले अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीव। (५) सूक्ष्म पनकः पांचों वर्णवाले हजारों अवान्तर वर्णवाले जीव जिसे लीलफुगकहते हैं। जिस पदार्थ में जल का अंश हो या वर्षा से आद्र हवा लगे, उस-उस पदार्थ में वस्त्रादि, स्नानादिकाजल न सुखे तब उसमें पापड़ आदि में, फलादि सड़ने पर शुक्ल वर्णवाले जीव, नरम चासणी वाले पदार्थों में,काष्टादि में ऐसे अनेक प्रकार के स्थानों
श्रामण्य नवनीत
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