Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 65
________________ अपवाद भी जिन कथित होने से जिनाज्ञा रूप है। संयम रक्षा हेतु निष्कपट भाव से उसका आश्रय कर्ता आराधक है। इससे विपरीत निष्कारण, प्रमाद, या कपट से अपवाद का आश्रय कर्ता विराधक है। निष्कारण अपवाद सेवन से विराधकता के समान, सकारण अपवाद सेवन न कर उत्सर्ग का दुराग्रह करने से भी विराधक बनता है। अपवाद उचित अवस्था में अपवाद एवं उत्सर्ग उचित अवस्था में उत्सर्ग सेवन ही आराधकता है। पृथ्वी अनेक प्रकार के त्रस जीवों की उत्पत्तिका एवं रहने का स्थान है।जलका स्वभाव पृथ्वी का भेदन कर नीचे जाने का है। शरीर का मेल एक विषरूप है। उससे स्नान का पानी विषाक्त बनता है और वह विषाक्त पानी अनेक जीवों के प्राण हरण करता है। स्नान करने से अहिंसा व्रत का स्पष्ट नाश है। स्नान आरामदायक है, मन प्रसन्न होकर दुर्विचार वर्धक बनता है। स्नान बाह्य सौंदर्य की वृद्धिकर होने से बाह्य सुखार्थी जीव उससे दूर नहीं रह सकते। इसका त्याग करना महाव्रत है। स्नान त्याग दुष्कर मनो विजय है। जल शौच जिन्होंने करणीय माना है वे उसके दुष्परिणामों को भुगतते ही हैं। जलस्नान को अकरणीय मानने वालों में भी किन्हीं लोगों ने भस्म स्नान, सूर्यस्नान मान लिया है। स्नान ब्रह्मचर्य का घातक है,स्नान से भी अधिक देहशुद्धि का पालन हो वैसे जैन साधु के आचार हैं। आहार-निहारविहार में जिनकथित मर्यादा पालन से आरोग्य पवित्रता अखंडित रहती है। पसीना अल्प होने से मल भी अल्प होता है। ___ असाधुको साधु, साधुको असाधु कहना उसे मिथ्यात्व की संज्ञा कही है। ऐसा कहने से असाधुओं की पूजा होगी, सुसाधुओं का अनादर होगा। अधर्म बढ़ेगा। इससे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बंध होता है। साधुता गुण रूप होने से निश्चय नय से गुणवान को ही साधु कहा जाता है। व्यवहार से मूलगुण विराधना जैसे दोष न जाने हो तब तक साधुवेष वाले को साधुकहे। दोष जानने के बाद भी संघ मान्य हो, किसी संघ के कार्य में उसके सहाय की आवश्यकता हो तो बाह्य से साधुकहे ऐसा कहने में संघशासन के कार्य का ध्येय होने से दोष नहीं है। तत्त्व से साधु माने तो दोष लगे। अतः साधु कहते हुए भी साधु माने नहीं। वर्षादि के विषय में निश्चयात्मक वाक्य के उच्चारण से हिंसा की अनुमोदना, हवा, ताप, वर्षा से होनेवाली जीव विराधना का पाप लगता है। कह दे और न बने तो शासन लघुता का पाप, आर्तध्यान आदि होने का संभव रहता है। अतः ऐसा न कहे। भाषा औषध तुल्य है। आत्महित हो वैसे उसका प्रयोग करना वही पुण्य से प्राप्त वचन शक्ति की सफलता है। अनंतकाल पश्चात् संज्ञीपने में प्राप्त स्फूट वाग्योग का ५६ श्रामण्य नवनीत

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