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उत्सर्ग से ईन बावन प्रकार के अनाचारों की आचरणा मुनियों के लिए निषिध होते हुए भी देश-काल बल-की हानि के योग से रोगादिक आपत्ति के समय में आवश्यकता होने पर गुर्वादि की अनुमति से, उनकी आज्ञानुसार संयम की रक्षा के ध्येय से अल्प दोष और अधिक लाभ का कारण हो तो अपवाद से आचरणा करनी पड़ती है। सर्वत्र अमायी एवं संयम के खपी बनना हितकर है।
मुनि जीवन में वास्तविक एक भी गण सभी गणों को प्रकट करता है। शास्त्रों में कहा है 'वास्तविक एक भी गुण मुक्ति देने में समर्थ है।' धन के अर्थी को 'लाभ हो वैसे लोभ बढ़ता है।' उसी प्रकार संयम के अर्थी को जैसे-जैसे गुण प्रकट होते हैं, वैसे-वैसे वह निर्जरा का प्रयत्न विशेष करता है। जो शीत-उष्ण आदि प्रसंग जगत को पीड़ित करते हैं उनका सामना करके उत्तम मुनि सभी दुःखों के मूल रूप अनुकूलता के राग
और प्रतिकूलता के द्वेष पर विजय प्राप्त करता है और प्राप्त ज्ञानादिको इस प्रकार सफल करता है। वस्तुतः ज्ञानादि की प्राप्ति उसे कही जाय कि ज्ञानादि के दल से कर्मों की निर्जराकर उसको सफल करे 'प्राप्त ज्ञानानुसार शक्ति होते हुए प्रवृति न करे उसको ज्ञान प्राप्त हुआ ऐसा नहीं कहा जाता' ध्येय बिना का उद्यम या उद्यम बिना का ध्येय निरर्थक है। अथः साधुओं को एक मात्र कर्मघात के ध्येय से ही अप्रमत्तता पूर्वक जीना चाहिए। यही ज्ञान-क्रिया एवं ध्येय से कर्म मुक्त होने का मार्ग है।
चारित्र की निर्मल आराधना से उदयागत पुण्योदय मोह का पोषक नहीं बनता। इसी कारण दैवीसुखों को भोगते हुए भी मनुष्यभव प्राप्तकर पुनः मुक्ति की निर्मल आराधनाकर निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। कष्टों को समाधिपूर्वक सहन करने से बांधे हुए पुण्य का उपभोग करते समय निरपेक्ष रहा जा सकता है, 'दुख में जो समाधि नहीं रख सकता उसे सुख में समाधि नहीं रहेगी' अतः सुख में समाधि रखने हेतु प्रथम कष्टों के समय समाधि रखने का अभ्यास करना चाहिए। श्री जिनशासन के धर्मानुष्ठान कष्टकारक होने से उसके अभ्यास से आत्मा सुख को पचाने की कला प्राप्त कर सकता है और सुख-दुःख में समाधिपूर्वक रहने से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। सुख-दुःख के निमित्तों में राग-द्वेष न कर अनित्यादि भावनाओं के बल से और अंत में आत्मा के सहज स्वभाव बल से उसका उपभोग करना उसका नाम समाधि है। श्रमण जीवन का साध्य ही समाधि है और वह व्यवहारिक सामायिकादिके बल से सिद्ध की जा सकती है। इसी कारण मुक्ति का अनंतर कारण चारित्र कहा है। ज्ञान-दर्शन मुक्ति के परंपर कारण हैं।
पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप में जो दिखायी देते हैं वे अनेकानेक एकेन्द्रिय जीवों के शरीर हैं। जैसे मनुष्य, उसका शरीर और इस शरीर में उत्पन्न कृमि आदि अलग-अलग जीव हैं। उसी प्रकार पृथ्वी आदि पांचों में अनेक जीवों के शरीर हैं।
श्रामण्य नवनीत
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