Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 61
________________ भी अनिवार्य होने से दोषित लेना ही पड़ता है तब उसका उपयोग कम होना चाहिए। पूर्व काल के महर्षि अल्प आवश्यकता वाले पानी को घर-घर से प्राप्तकर निर्वाह करते और उससे संयम की भी निर्मलता रहती थी। यह विधि नष्ट होने से एवं उबाला हुआ पानी अति प्रमाण में मिलने से आवश्यकता भी बढ़ती गयी। प्रायः दोषित होने से संयम मलिन होने लगा और आर्शीवाद रूप साधुजीवन गृहस्थों के लिए भार रूप बनता गया। इस प्रकार लाभ के बदले हानि होने से प्रसंगों का विचारकर संयम के खपी आत्माओं को इसका विवेक करना चाहिए। 'घी हो या पानी उसका एक बिन्दु भी निरर्थक वापरने में या परठने में समान दोष है' इस वचन को पुनः पुनः यादकर आत्मार्थी को संयम निर्मल बने प्रभावक बने वैसा वर्तन करना हितावह है। __ कभी-कभी गृहस्थ की दाक्षिण्यता से या उसकी भावना की रक्षा के लिए गीतार्थ साधु स्व इच्छा के बिना भी ग्रहण करें। कारण कि गोचरी गये हुए गीतार्थ को स्याद्वाद दृष्टि से लाभ हानि का विचारकर वर्तन करने का अधिकार है। ऐसा होते हुए भी 'सर्वत्र संयम की रक्षा और संयम में अपवाद का सेवन कर भी आत्मा की रक्षा करनी' ऐसा कहा हुआ होने से अयोग्य वस्तु को वापरे नहीं, वपरावे नहीं। इससे रत्नाधिक भी अयोग्य वस्तु लघु साधु को न दे। बाहर से आने पर ईरियावहि सामान्य से है ही फिर भी वसति में परठे तो भी ईरियावहि प्रतिक्रमण अवश्य करे। गोअरचरिआए एक उत्तम चिंतन है। इसमें श्री जिनेश्वर देव का उपकार, साधुका कर्तव्य,गोचरी का उद्देश, दोष दूरकरने की प्रेरणा,और देह रक्षा की आवश्यकता आदि अनेक सूचन हैं। इससे आहारकी लोलुपता,और शरीरकी ममता दूर होती है आराधना में अप्रमत्तता, निर्दोष आहार की वृत्ति, और यह श्री परमोपकारी देवाधिदेव प्रति कृतज्ञ भाव का प्रकटीकरण हो ऐसा अमृत है। यह चिंतन यथार्थ बनने पर साधु जीवन दोष रहित बनता है। वस्तुतः गोचरी की आलोचना एक शुभ भाव से भरपूर सुंदर आत्मोपकारक अनुष्ठान है। ___ रोगी, तपस्वी, क्षुधालु, बाल आदि साधुओंको गुरु की आज्ञा से एकाकी गोचरी करने की विधि भी है,शेष साधुओंको सभी मंडल के साथ में ही गोचरी करने की विधि होने से आहार मंडली कही हुई है। साधु को इस विधि से दान धर्म के साथ गुणवानों की सेवा द्वारा गुणों की सेवा होती है, उदर भरिता दूर होती है, औचित्य धर्म का पालन होता है और परस्पर मैत्री प्रीति और वात्सल्य की वृद्धि होती है, गृहस्थों के समान रत्नाधिक साधुओं का भी धर्म है कि सभी को संतोषित कर गोचरी करें। पात्र पहोलाई वाला हो तो गिरे हुए या उडते जीव, मक्खी आदि को बचा सकते हैं। खाते समय नीचे गिराने से कीडि आदिका उपद्रव, वे ले जाय तो अविरति का पोषण ५२ श्रामण्य नवनीत

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