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और छोडने पर भोगांतराय कर्मबंध होता है, आदि दोष समझना। ___ हक्क से लेना उसको भिक्षा कैसे कही जाय? दातार इच्छानुसार दे या न दे तो भी प्रसन्न रहना, उसमें सामायिक है। क्रोध से उस सामायिक की विराधना होती है। अतः कोप न करना, न मांगना, मांगने से असद्भाव एवं कठोर शब्दों से अपमानादि होता है। वंदन करते हुए देख कर, प्रेम न करे, वंदन करे और न दे तो भी तुं व्यर्थ वंदन करता है , 'ऐसे कटु-कठोर शब्द भी न कहे'।
____ हाँ,आगमों में चिलाती पुत्र एवं सुसमाकी किंचित् कथाको दर्शाकर कहा है कि जब चिलाती पुत्र सुसमा के मस्तक को काटकर ले गया और सुसमा के पिता ने अपने पुत्रों के आहार बिना प्राण जाने की परिस्थिति को देखकर कहा कि मुझे मारकर खाओ
और तुम्हारे प्राण बचाओ वहां उनके चारों पुत्रों ने भी यही कहा। तब पिता ने अपनी पुत्री के मृत देह के मांस को खाने की बात की और सभी ने उसे स्वीकारकर जीवन बचाया और भोगोपभोग कर्ता बने। उसी प्रकार साधुओं के लिए आहार, कारण की उपस्थिति में ही करना है। वह देह की सुरक्षा भी संयम की आराधना हेतु करनी है। इस भावना से आहार करनेवाले मुनि देह को संयम पालन में उपयुक्त बनाकर निर्वाण सुख के उपभोक्ता बनते हैं।
_ 'अहिंसा परमोधर्मः' ऐसा कहने पर भी अहिंसा का पालन हो वैसे आचारों का कथन अन्य धर्मों में नहीं है अतः उनकी अहिंसा कहने मात्र की है। स्वर्ण के पानी से युक्त पीतल की शोभा कितने समय की? छेद या तापकी परीक्षा न हो उतने समय की। हेयोपादेय तत्त्वों को, कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन जैसा किया हो और उसका पालन हो सके वैसे आचारों का वर्णन भी हो तो वह कथन सत्य माना जाय। जैन शासन में अहिंसा का जैसा वर्णन किया है। उसी प्रकार उसका पालन हो वैसे आचार भी दर्शाये हैं।जैसे स्वर्ण की परीक्षा कष-छेद-ताप से होती है वैसे धर्मशास्त्रों की परीक्षा भी कषछेद-ताप से करने की है तीनों में शुद्ध वह शास्त्रशुद्ध। करणीय का विधान, अकरणीय का निषेध, वह कष शुद्ध शास्त्र,विधि-निषेध के अनुसार आचारों का वर्णन हो वह छेद शुद्ध शास्त्र, हिंसा आदि पापों का निषेध कर, धर्मानुष्ठान हिंसादि पापकारक बताये हो तो छेद परिक्षा में अशुद्ध। ये दोनों हो पर आत्मादि द्रव्य एकांत नित्य एकांत अनित्य बताये हो तो धर्म का फल आत्मा को मिलता ही नहीं अतः पदार्थको एकान्त नित्य या एकांत अनित्य दर्शक आगम शास्त्र ताप सेअशुद्ध। जिन, आगमों में स्याद्वाद दृष्टि से आत्मादि पदार्थों का कथंचित् नित्यानित्य आदि बताये हों। वे ही शास्त्र तापसे शुद्ध होने से संपूर्ण शुद्ध हैं। प्रभु महावीर दर्शित अहिंसा कष-छेद-ताप से शुद्ध एवं सूक्ष्म है उसके पालन हेतु मन एवं इंद्रियों का पूर्ण संयम आवश्यक है अतः त्रिविध-त्रिविध भंग
श्रामण्य नवनीत