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सिद्धि नहीं होती।संकल्प का बल प्रतिज्ञा से सहज प्रकट होता है। लौकिक व्यवहार भी प्रतिज्ञा पर चलता है, तो लोकोत्तर के लिए क्या पूछना, प्रतिज्ञा साधक की एक सहचरी है। किसी भी निश्चय का प्राण या उसके विकास की भूमिका प्रतिज्ञा है। उन्मार्ग में जानेवाले मन को बांधने हेतु प्रतिज्ञा वज्र की शृंखला तुल्य है, नट दोरी पर लक्ष्य पूर्वक कदम रखने से नहीं गिरता, उसी प्रकार साधक प्रतिज्ञा के लक्ष्य में जागृत हो तो चाहे जितने, आशा, तृष्णा, इच्छा या मोह के तुफान आये तो भी वे मोहादि निर्बल बन जातें हैं और साधक जीवनपर्यंत स्वीकृत प्रतिज्ञा के मार्ग पर आगे बढ़ता रहता है। प्रतिज्ञा का भय कार्य प्रति अनादर या स्वयं की निःसत्वता का द्योतक है।
चलने में ईर्यासमिति का पालन न करना, खड़े रहने में हाथ-पैर जैसे-तैसे रखना या दृष्टि जहाँ-वहाँ घूमानी, बैठने में पैर लंबे चौड़े रखना, जहाँ-वहाँ बैठना, अप्रमार्जित भूमि पर बैठना, पूज्यभावों की आशातना हो वैसे पीठ आदि पर बैठना आदि,शयन करने में लम्बे समय तक, बार-बार, या अकाल में सोना, संथारा बिछाकर ही रखना आदि, भोजन में कारण से या निष्कारण से मादक आहार लेना, सादा आहार भी काग-शियाल सम अविधि से वापरना आदि, बोलने में गृहस्थ की भाषा में,निष्ठुर शब्दों में या गुरुकी बात में बीच में बोलना आदि उस-उस विषय में अयतना समझना।
उपर दर्शित अयतना को दूर कर ईर्यासमितिपूर्वक चलने से हाथ, पैर आदि लम्बे चौड़े किये बिना शांत-सभ्यतापूर्वक खड़े रहने से उचित प्रमार्जित भूमि पर उपयोग पूर्वक प्रमार्जना कर बैठने से, रात में मर्यादित समय तक समाधिपूर्वक शयन करने से, कारण से कल्प्य, निर्दोष-प्रमाणोपेत-पथ्य आहार का भोजन करने से और मधुर शब्दों में हितकर-अवसरोचित वचन साधुकी भाषा में बोलने से उन-उन विषय की यतना होती है। यतना करने से आश्रव का रोध और साध्वाचार का पालन होने से पाप कर्म का बंध नहीं होता।
ज्ञान अर्थात् जीवों का (द्रव्य-गुण-पर्याय से) स्वरूप, उसकी रक्षा का उपाय और उसका फल आदि विषयों का ज्ञान और दया अर्थात् संयम के सभी अनुष्ठान समझना।आत्म स्वरूप को इस प्रकार जाने बिना या ऐसे ज्ञानी पुरुष की निश्रा प्राप्त किये बिना स्वकल्पनानुसार किया हुआ अनुष्ठान दिखने में शुभ हो तो भी साध्य शून्य होने से निष्फल होता है, अर्थात् करते हुए भी वस्तुतः न करने जैसा बनता है और अज्ञानी भी ज्ञानी की आज्ञानुसार वर्तन करे तो मासतुष मुनि सम कर्मों को काट सकता है। यही सद्गुरु निश्रा का रहस्य है।
वर्तमान में तो गुरु आज्ञा की प्राधान्यता विशेष समझनी चाहिए। गुरु आधीनता से मन की दौड़ रूकती है। इच्छाओंका रूंधन,विनय पालन आदि अनेक लाभ मिलते
श्रामण्य नवनीत