Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 54
________________ ही भिक्षा लेने की प्रवृति वाले नहीं होते, एवं ऐसा एक ही प्रकार का पदार्थ लेने वाले नहीं होते परंतु अभिग्रहादि के द्वारा जो मिले वह तुच्छ-प्रांत वस्तु में संतोष मानने वाले होते हैं और ऐसा आहार भी मन-इंद्रियों की पुष्टि हेतु नहीं पर केवल संयम के पोषण के लिए ही जो लेते हैं। उन्हीं को साधु कहा है। साधु को साधुतारूपी गुणों को प्रकट करने चाहिए। अनादि भोगेच्छा का बीज इतना सूक्ष्म होता है कि निर्मूल होने जैसा दिखायी देने पर भी सामान्य निमित्त के मिलते ही उसमें से ईच्छारूपी अंकुर फूट निकलते हैं। फिर उसे रोकना अतिदुष्कर होता है। अतः मुख्य मार्ग तो यहाँ कहाँ जैसा पूर्ण विरागी बनकर समदृष्टि से संयम की रक्षा करनी। फिर भी चित्त में चंचलता आ जाय तो ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा उसे वश करना, आतापना, तप आदि के द्वारा उसे निर्बल बनाना। अन्यथा इच्छा के आधीन बनने पर दुःखों के आधीन बनना पड़ता है। इसी कारण से क्षण विनश्वरजड़ पदार्थो का शुभाशुभ शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श प्रति के राग-द्वेष का त्याग करना हितकर है। ऐसा करने से संसार में भी मुक्ति सुख का स्वाद लिया जा सकता है। एक राजपुत्र के द्वारा कुतुहलवृति से स्वयं की दासी के मस्तक पर रहे हुए जल पात्र परकंकर फेंककर छिद्र करने से पानी निकलने लगा, चतुर दासी ने सोचा कि रक्षक ही भक्षक बन जाय तब फरियाद किसे करें? अतः मैं स्वयं ही जल को बचा लूं। और शीघ्र मिट्टि से छिद्र पूरकर जल की रक्षा कर ली। इस प्रकार जिस मन से संयम की सिद्धि करने की है वही चंचल बने तब ज्ञानी पुरुषों द्वारा उपर बताये हुए मार्ग से संयम की रक्षा करनी चाहिए। ___ औदेशिक में जीवहिंसा, क्रयक्रित में गृहस्थ ने पाप द्वारा प्राप्त किये हुए द्रव्य का साधु के लिए व्यय होने से पाप की अनुमोदना, नित्यपिंड में गृहस्थ का एवं किसी वस्तु का राग-प्रतिबंध, अभ्याहत में आने-जाने में ईर्यासमिति का भंग, अनुमोदनादि और पात्र में चिकनाहट आदि विविध दोष, रात्रिभोजन में संनिधि दोष उपरांत रात्रिभोजन का पाप, और स्नान-गंध-पुष्प-पंखेमें अनुक्रम से स्पर्श, गंध आदि पर राग-प्रतिबंध होने के साथ काम विकार का उपद्रव, इस प्रकार प्रत्येक का अनाचीर्णपन यथामति विचारना। अनाचीर्ण के आचरण से संयम दुषित होता है और ज्ञानादि गुणों की हानी होती है। इसमें संनिधि से परिग्रह, गृहस्थ भोजन से चोरी हो जाने का या गृहस्थ को अप्रीति आदि होने का भय आदि विविध दोष, राजपिंड से रसनेन्द्रिय का पोषण, लोक में लघुता, अपशुकन बुद्धि से सामन्तादि को क्रोध हो जाने का संभव आदि दोष, किमिच्छक से आधाकर्मादि दोष, संबाही से सुखशीलपना प्रमाद आदि, दंत प्रक्षालन श्रामण्य नवनीत ४५

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