Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 53
________________ श्रमण संघ को उपयोगी हितशिक्षा भ्रमर जिस प्रकार किसी भी प्रकार की पीड़ा उत्पन्न करवाये बिना अल्प-अल्प रस अन्य-अन्य पुष्पों में से चूस लेता है। उसी प्रकार श्रमण को आहार-पानी आदि जीवनोपयोगी पदार्थ अनेक घरों से अल्प-अल्प लेकर निर्वाह करने का कहा है। वह भी गृहस्थ की भावनानुसार, उसकी द्रव्यसंपत्ति के अनुसार, उसको असद्भाव न हो उस प्रकार, उसने अपने लिए बनाये हुए पदार्थ में से भी संयम में कल्पनीय हो वही लेना चाहिए। यह तब ही हो सकेगा जब साधु तपस्वी होगा, चौदह अभ्यंतर ग्रन्थी (वेद ३ हास्यषट्क, कषाय ४ मिथ्यात्व) एवं नौ बाह्य ग्रन्थी धन्य-धान्यादि परिग्रह रूप से रहित हो। आहार की पवित्रता के बिना रक्त की पवित्रता एवं रक्त की पवित्रता के बिना मन, वचन, काया के योगों की पवित्रता, दुःसंभवित है। तभी तो कहा है 'जेवू खाय अन्न तेर्बु थाय मन' 'आहार तेवो ओडकार' 'आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः' आहार शुद्धि, संयमशुद्धि की वृद्धि का प्रधान कारण है। तभी तो कहा है 'सर्वजीतं जीते रसे' एक रसनेन्द्रिय को जीत ली उसने सब जीत लिया। अष्ट प्रवचन माता में भी एषणा समिती का स्थान प्रधान है। आहार, आहारदाता, एवं आहारग्रहण कर्ता आदि जितने प्रमाण में निर्दोष उतना आहार विशेष उपकारक होता है। इसी कारण ४२ दोष टालकर आहार लेना एवं गोचरी करते समय पाँच दोषों को टालने का आगमोक्त विधान है। श्रद्धा एवं दान दोनों का फल चारित्र है एवं चारित्र का आधार आहार है। इसी कारण से गृहस्थ के मार्गानुसारिता विवरण में प्रथम स्थान न्यायोपार्जित वित को एवं श्रमण के लिए प्रथम शुद्ध आहार का विधान दर्शाया है। यही श्रमण एवं मुक्त विशेषण का वास्तविक अर्थ गृहस्थ ने साधु के लिए निर्जीव किये हुए, खरिद किये हुए या पकाये हुए आहारादि लेने से तज्जनित हिंसादि दोषों की अनुमोदना का दोष साधु को लगता है। और देनेवाले गृहस्थ को देते समय दुःख अभाव आदि हो तो उसको मोहनीय कर्म के बंध द्वारा बोधिदुर्लभपना होता है परिणाम में धर्म पर द्वेष होता है। उस कार्य में निमित्त बनने वाले साधुको भी वैसा मोहनीय कर्म का बंध होता है। परिणाम में धर्म एवं संयम की प्राप्ति दुर्लभ होने से विशेष हानि होती है। इसी कारण कोई भी व्यक्ति अनादरअसद्भाव न करे उसी प्रकार का वर्तन हो ऐसी भावना प्रत्येक मुनि करे एवं वैसा ही वर्तन करना चाहिए। भिक्षा ग्रहण करने में भ्रमर तुल्य भिक्षा लेने के लाभ आदि के साधुं ज्ञाता होते हैं। विशेष में किसी खास विशिष्ट घरकी, भक्त के घरकी, श्रीमंत राजा आदि के घर की ४४ श्रामण्य नवनीत

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