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कभी भी ऐसा विचार न करे कि हम गुरु में कोई विशेषता देखते नहीं है। गुरु रक्त, . मूढ़, एवं असमर्थ है तो हम क्या करें?।।२१।।
रयणपरिक्खगमेगं, मुत्तुं समकंतिवन्नरयणाणं । किं जाणंति विसेस, मिलिया सब्बे वि गामिल्ला ॥२२॥
एक समान कांति एवं वर्णवाले रत्नों के विषय में एक रत्न परीक्षक के अलावा चाहे जितने अन्य ग्रामिण जन मिल जाय तो भी वे क्या जानें?।।२२।।
एयं जिण जाणमाणा, ते सीसा साहयंति परलोयं । अवरे उयरं भरिउं, कालं वोलंति महिवलए ॥२३॥
(रत्न परीक्षक सम) गुरु को जाननेवाले शिष्य गण परलोक को साध लेते हैं। दूसरे तो पेट भरकर पृथ्वी पर समय पसार करते हैं।
एयंपिहु मा जंपड़ गुरुणो दीसंति तारिसा नेव । जे मज्झत्था होउं जहट्ठिय वत्थु वियारंति ॥२४॥
ऐसे शब्द भी न बोले कि वैसे गुरु भगवंत दिखायी नहीं देते जो मध्यस्थ होकर यथावस्थित वस्तु को विचारते हैं।।२४।।
समयाणुसारिणो जे, गुरुणो ते गोयमं व सेवेज्जा। ... मां चितंह कुविकप्पं, जह इच्छह साहिउं मोक्खं ॥२५॥
समयानुसार जो गुरु भगवंत है उनको गौतम स्वामी समान मानकर सेवा कर। जो मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो तो किसी भी प्रकार का गुरुसेवा के विषय में कुविकल्प न कर।।२५।।
वक्कजडा अह सीसा, के वि हु चिंतति किंपि अघडतं । तह वि हु नियकम्माणं, दोसं देज्जा न हु गुरुणं ॥२६॥
वक्र एवं जड़ ऐसे शिष्य कितने ही अघड़ित विचार करते हैं। उसमें भी स्वकर्म का दोष विचारना गुरु को दोष न देना।।६।।
चक्कित्तं इंदत्तं गणहर अरहंतपमुह चारुपयं । मणवंछियमवरंपि हु, जायइ गुरुभत्ति जुत्ताणं ॥२७॥
चक्रवर्तित्व, इन्द्रत्व, गणधर पद, अरिहंत पद आदि सुंदर संपदा और अन्य भी मनवंछित की प्राप्ति गुरुभक्ति युक्त आत्माओं को होती है।।२७।।
आराहणाओ गुरुणो अवरं न हु किंपि अत्थि इह अमियं । तस्स य विराहणाओ, बीयं हलाहलं नत्थि॥२८॥
गुरु की आराधना करने जैसा अन्य कोइ अमृत नहीं है। और उनकी विराधना करने जैसा दूसरा कोई हलाहल विष नहीं है।।२९।।
श्रामण्य नवनीत
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