Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 42
________________ सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनन्त है अर्थात् उसकी आदि तो है पर अन्त नहीं है, परन्तु प्रवाह की अपेक्षा सेअनादि-अनन्त है। सिद्ध भगवान के विषय में भी यही समझना चाहिए, अर्थात् एक सिद्ध की अपेक्षा आदि है, अन्त नहीं और प्रवाह की अपेक्षा आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं है। प्र. - भव्यत्व तो समान है तब भिन्न भिन्न काल में सिद्धि क्यों? उ. - प्रत्येक जीव का तथाभव्यत्व भिन्न भिन्न है कोई जीव कभी और कोई जीव कभी सिद्ध होता है, इसका कारण उस उस जीवों का विशेष प्रकार का भव्यत्व जो कि तथाभव्यत्व कहलाता है वह है। भव्यत्व-भाव काल आदि विशिष्ट प्रकार से होनेवाले फल की भिन्नता से जीवों की सिद्धि भिन्न भिन्न काल में होती है। - प्र. - भव्यत्व समान होने पर भी सहकारी कारणों के भेद से मोक्ष का काल भेद हो सकता है न? उ.- अगर भव्यत्व-भाव में भेद न हो तो सहकारी कारणों में भी भेद न हो सके, इसलिए सहकारी कारणों का भेद भव्यत्व-भाव को भेद-यानी विचित्र तथाभव्यत्वकी अपेक्षा रहती है। यही अनेकांतवाद है और अनेकान्तवाद ही तात्त्विक है। भव्यत्व-भाव को सर्वथा एक-सा मानने से एकान्तवाद का प्रसंग होता है और एकान्त यह मिथ्यात्व है; क्यों कि एकान्तवाद से कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। यह भव्यत्व एकान्ततः एकरूप हो तो सहकारि-भेद किस प्रकार संगत हो सके? एकान्त का आश्रयण आर्हत्मत से विरुद्ध है ।।५।। __मूल - संसारिणो उ सिद्धत्ती नाबद्धस्स मुत्ती सद्दत्थरहिआ। अणाइमं बंधो पवाहेणं अईअकालतुल्लो। अबद्धबंधणे वाऽमुत्ती पुणो बंधपसंगओ। अविसेसो अ बद्धमुक्काणं। ___ अणाइजोगेऽवि विओगो कंचणोवलनाएणी न दिदिक्खा अकरणस्स। न यादिट्ठम्मि एसा। न सहजाए निवित्ती। न निवित्तीए आयट्ठाणं ॥६॥ __ अर्थ ः यह सिद्धत्व संसारी जीवको 'ही' प्राप्त होता है, क्यों कि बन्ध रहित जीव को तात्त्विक मुक्ति घटित नहीं होती, फिर भी उसे मुक्ति मानी जाय तो वह शब्दार्थ से रहित होगी। तात्पर्य यह है कि 'मुक्ति' का अर्थ है बन्धन हट जाना। जो पहले से ही बन्धन रहित है, उसके बन्धन का हटना कैसे कहा जा सकता है? यह कर्मबन्ध वैयक्तिक रूप से आदिमान होने पर भी अतीत कला की भांति प्रवाह से अनादि है अर्थात् अनादिकाल से चला आता है। जैसे अतीतकाल की आदि नहीं, उसी प्रकार संसारी जीव के कर्मबन्ध की भी आदि नहीं। प्र. - जीव पहले अबद्ध था और फिर उसे कर्मों का बन्ध हुआ, ऐसा क्यों नहीं श्रामण्य नवनीत ३३

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