Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ मूल - न भवाभावो उ सिद्धी। न तदुच्छेदेऽणुप्पाओ। न एवं समंजसत्त। नाणाइमंतो भयो, न हेउफलभावो। तस्स तहासहायकप्पणमजुत्तं, निराहारउन्नय कओनिओगेणी तस्सेव तहाभावे जुत्तमेअं सुहुममट्ठपयमेअं विचिंतिअव्वं महापण्णाए त्ति ॥८॥ अर्थ : बौद्धों के मत के अनुसार भव का अभाव ही मोक्ष है, अर्थात् दीपक के बुझने के समान आत्मा की संतान का उच्छेद हो जाना ही मुक्ति है, यह मानना भी असत्य है। कदाचित् सन्तान का सर्वथा विनाश मान लिया जाय तो सन्तान की पुनः उत्पत्ति भी हो सकेगी। अर्थात् जब सत्का सर्वथा विनाश मान लिया तो सर्वथा असत् की उत्पत्ति भी माननी पड़ेगी; किन्तु यह मान्यता न्याय संगत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से भव अनादि सिद्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि अगर असत्की उत्पत्ति होती हो तब (१) संभव है कि बीचके किसी काल में पहलेअसत् भी भव-संतति उत्पन्न हो गयी हो! इसके अतिरिक्त, (२) कार्य-कारण भाव का नियम भी भंग हो जायेगा, क्योंकि असत् की उत्पत्ति मानने पर प्रथम क्षण तो बिना कारण ही उत्पन्न होगा! पूर्व क्षण कारण माना गया है,पर असत् की उत्पत्ति से पहले कोई सत् पूर्व क्षण था ही नहीं। (३) संतान उच्छेद रूप मुक्ति मानने पर चरम क्षण किसीका कारण न होने की भी आपत्ति है; अकारण होने से असत् सिद्ध होगा! क्योंकि जो अर्थक्रियाकारी है वही सत् होता है। कदाचित् कहो कि सन्तान का स्वभाव ही ऐसा है कि आद्य क्षण कारणनिरपेक्ष उत्पन्न हो, और चरम क्षण सर्वथा नष्ट हो, सो ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी कल्पना करने से चरम क्षण का स्वभाव अवश्य निराधार या निरन्वय सिद्ध होगा! किन्तु यह असंगत है; कारण स्वभाव का अर्थ है अपनी निज की सत्ता। अब उसको निवृत्ति स्वभाव आप कहते हैं; अर्थात् निज की सत्ता निवृत्तिमय हुई तब चरम क्षण ही निवृत्तिमय, यानी अभाव स्वरूप हुआ, तो आपके द्वारा कल्पित स्वभाव कहां ठहरेगा? वह तो निराधार हो गया। अथवा निवृत्ति स्वभाव निराधारान्वय वाला अर्थात् अन्वय रहित सिद्ध होगा क्योंकि निवृत्ति का स्वरूप ही ऐसा है कि कुछ न होना ऐसी निवृत्ति का भावात्मक चरम क्षण के साथ अन्वय यानी संबन्ध ही कैसे बने? अवश्य न बन सके। इस प्रकार आद्य क्षण में भी चिन्तनीय है। अतएव यदि वही तथारूप हो, तब तथास्वभाव की कल्पना करना उचित है। यह अर्थ पद (तत्त्व) सूक्ष्म बुद्धि से यानी महाप्रज्ञा से चिन्तन करने योग्य है ।।८॥ मूल - अपज्जवसिअमेव सिद्धसुखं। इत्तो चेवुत्तमं इमो सव्वहा अणुस्सुगत्तेजणंतभावाओ। लोगंतसिद्धिवासिणो एए। जत्थ य एगो तत्थ निअमा अणंता। ३६ श्रामण्य नवनीत

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86