Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 43
________________ मानना? ... उ. - तब तो कभी स्थिर मुक्ति ही नहीं होगी! क्योंकि उपायों से बन्धन नाश करके अबद्ध होने पर भी पहले की तरह नये बन्ध की आपत्ति बनी रहेगी! अर्थात् मुक्ति उड़ जायगी। इसलिए मानना जरूरी है कि जीव अनादिबद्ध है। प्र. - बन्ध अगर अनादिमान हो तो वह जीव में स्वाभाविक हो गया और स्वभाव का नाश नहीं हो सकता, अतः मोक्ष कभी नहीं हो सकेगा। उ.- कर्मबन्ध प्रवाह से अनादिमान होने पर भी उसका वियोग-अन्त हो सकता है,जैसे स्वर्ण और मिट्टी के अनादिकालीन संयोग का अन्त हो जाता है। प्र. - बन्धको आदिमानं ही मानिए। इसमें पूर्वोक्तानुसार अनादिकाल से अबद्ध को बन्ध की तरह मुक्त को पुनः बन्ध की आपत्ति का निवारण कर सकते हैं। क्योंकि अबद्ध जीव को दिक्षा अर्थात प्रकृति को देखने-जानने की इच्छा होती है. अतएव वह बद्ध होता है। लेकिन जो मुक्त हुआ उसे अब ऐसी दिक्षा नहीं होती है, तो उसे बंध होने की आपत्ति नहीं है। ____उ. - यह ठीक नहीं, क्योंकि अनादि अबद्ध जीव तो शरीर-इन्द्रिय रहित है और इन्द्रिय रहित जीव को दिदृक्षा हो ही नहीं सकती। एवं यह भी बात है कि अनदेखी वस्तु में दिदृक्षा नहीं होती। प्र. - दिदृक्षा (देखने की इच्छा-उत्सुकता) सहज-स्वाभाविक ही मानें तो इन्द्रिय की कोई अपेक्षा नहीं रहेगी। उ. - यदि सहज मानी जाय तब तो उसकी निवृत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जो आत्मा का स्वाभाविक गुण है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता है। यदि उसका विनाश मान लिया जाय तो आत्मा का भी स्थान नहीं रहेगा, अर्थात् आत्मा का भी नाश मानना पड़ेगा, क्योंकि दिदृक्षा को आपने आत्मा का स्वभाव मान लिया; स्वभाव अभिन्न होता है तो आत्म स्वभाव के नाश से आत्मनाश की आपत्ति लगेगी ।।६।। ___ मूल - न य अन्नहा तस्सेसा, न भव्यत्ततुल्ला नाएणं, न केवलजीवरूवमेअं, न भाविजोगविक्खाए तुल्लत्तं, तया केवलत्तेण सयाऽविसेसओ, तहासहावकप्पणमप्पमाणमेव। एसेव दोसो परिकप्पिआए। परिणामभेआ बंधाइभेओ त्ति साहू। सवनयविसुद्धिए निरुवचरिओभयभावेणो न अप्पभूअं कम्म, न परिकप्पिअमेओ न एवं भवादिभेओ ॥७॥ अर्थ ः अगर दिदृक्षा का विनाश होने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता हो तो वह दिदृक्षा आत्मा की नहीं कहलायेगी। ३४ श्रामण्य नवनीत

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