Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 39
________________ पंच सूत्र [पंचम सूत्र ] प्रव्रज्याफल मूल स एवमभिसिद्धे परमबंभे मंगलालए जम्मजरामरणरहिए पहीणासुहे अणुबंधसत्तिवज्जिए संपत्तनि असरूवे अकिरिए सहावसंठिए अणंतनाणे अणंतदंसणे Kn अर्थ ः चौथे सूत्र में प्रव्रज्या के पालन की विधि बतलाकर यहां पांचवें सूत्र में उसका फल बतलाते हैं। वह प्रव्रज्यापालक साधु सुख परम्परा द्वारा सिद्धि प्राप्त करके अब सदाशिवत्व के कारण परमब्रह्म स्वरूप बन जाता है। गुणोत्कर्ष के कारण मंगल के आवास रूप हो जाता है | जन्मादि के कारण न रहने से जन्म जरा और मरण से रहित होता है। उसके सर्व अशुभ सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं । अशुभ की अनुबंध शक्ति से भी रहित होकर वह अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त करके गमनादि क्रिया से रहित होकर स्वसहज स्वभाव में रहा हुआ, अनन्त ज्ञानवान् और अनन्त दर्शनवान् हो जाता है ॥ १ ॥ 1 मूल से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, अरूवी सत्ता, अणित्यंत्थसंठाणा, अणंतविरिया, कयकिच्चा, सव्वबाहाविवज्जिआ, सव्वहा निरविक्खा, थिमिआ पसंता ॥२॥ अर्थ ः वह सिद्ध जीव न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है। क्योंकि ये तो पुद्गल के धर्म हैं। फिर भी वह शून्य रूप नहीं, किन्तु ज्ञान की तरह अरूपी सत्तावाला है। उसका कोई अमुक आकार नहीं है। वह सिद्ध आत्मा अनन्त वीर्य से सम्पन्न कृतकृत्य, सर्व बाधा - पीड़ा से रहित, सर्वथा निरपेक्ष और निस्तरंग महासागरवत् स्थिर और प्रशान्त है, सुख की उत्कृष्टता के कारण अनुकूल सत्तावाला IRII मूल - असंजोगिए एसाऽऽणंदे अओ चेव परे मए | अविक्खा अणाणंदे । संजोगो विओगकारणं, अफलं फलमेआओ, विणिवायपरं खु तं । बहुमयं मोहाओ अबुहाणं, जमित्तो विवज्जओ, तओ अणत्था अपज्जवसिआ, एस भावरिऊ परे अओ वुत्ते उ भगवया ॥३॥ ३० श्रामण्य नवनीत

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