Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 37
________________ अर्थः इस भव या परभव में संक्लेशादि कराना यह भोगक्रिया का स्वरूप यानी भोगत्व है। इसका खण्डन करें वह सच्चा ज्ञान कहा जाता है। इष्ट वस्तु तत्त्व का निरूपक ज्ञान ऐसा ही होता है। ऐसा ज्ञान होने पर सम्यग् आलोचन द्वारा उस प्रवृत्ति के अनुबंध यानी फलप्रवाह की धारा पर दृष्टि रहती है। इससे उभयलोक की इष्ट प्रवृत्ति के विषय में औचित्य को प्रधान रखकर शुभ योग, शुभ व्यापार की सिद्धि होती है। यह सब सच्चे ज्ञान पर निर्भर है। सच्चा ज्ञानी पुरुष वैसी प्रवृत्ति में भाव यानी प्रशस्त अन्तःकरण ही प्रेरणादायक होता है, नहीं कि मोह। इस भाव से अशुभ कर्म अनुबन्धरहित हो जाने से एवं सम्यक् साधनों का योग होने से प्रायः विघ्न नहीं आता और सम्यक् प्रव्रज्या पालन होता है। सानुबन्ध अशुभ कर्म वालों को यह शक्य नहीं। द्रव्याराधना नहीं किन्तु भावाराधना एवंजन्मान्तर में प्रव्रज्या का बहुमान करने के कारण सुप्रव्रज्या के योग स्वीकृत ही होते हैं, अतएव वह प्रव्रज्या में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करता है और बिना किसी व्याकुलता से इष्ट तत्त्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार सम्यक्ज्ञान और औचित्य-पूर्वक की हुई क्रिया सुक्रिया होती है। वह एकान्त निष्कलंक और निष्कलंक अर्थ (मोक्ष) की साधक होती है क्योंकि वह शुभ अनुबंध वाली होने से उत्तरोत्तर सतत् शुभ योग का संपादन करती है। ऐसी शुभ अनुबन्ध वाली शुभ क्रिया के द्वारा वह परोपकार साधना में कुशल साधु प्रधान परहित का साधन करता है। यह इस प्रकार-प्रधान परार्थका साधक होने से महान् उदय वाला वह साधक अन्य भव्य जीवों में विविध उपायों से धर्म बीज आदि कान्यास कराता है,अर्थात् सम्यक्त्वकी प्राप्ति कराने वाले शासनप्रशंसादिका संपादन अन्यों में करता है वह परहित भी अनुबंध वाला होता है। उसमें कर्तृभूत (साधक) सक्रिय वीर्यादि को धारण करता हुआ उस परहित के प्रति सफल प्रयत्न में निरत रहता है। वह सुन्दर आकार वाला होने से समन्तभद्र, शुभ प्रणिधान आदि का हेतु, मोहान्धकार को नष्ट करने के लिए दीपक के समान, राग रूपी रोग को दूर करने में वैद्य के समान, द्वेषरूपी अग्नि को बुझाने में समुद्र के समान संवेग की सिद्धि करने वाला और जीवों के सुख का हेतु होने से अचिन्त्य चिन्तामणि के समान बन जाता है।।१०।। __मूल - स एवं परंपरत्थसाहए तहाकरुणाइभावओ, अणेगेहिं भवेहिं विमुच्चमाणे पावकम्मुणा, पवड्ढमाणे अ सुहमावेहिं, अणेगभविआए आराहणाए पाउणइ सब्बुत्तमं भवं चरमं अचरमभवहेउं अविगलपरंपत्थनिमित्तो तत्थ काऊण निरवसेसं किच्वं विहूअरयमले सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्वइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेड़ ॥११॥ ॥चउत्थं पवज्जा-परिपालणा सुत्तं समत्तं ॥ २८ श्रामण्य नवनीत

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