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एस आराहगे सामण्णस्स, जहागहिअपइण्णे, सब्बोवहासुद्धे, संघइ सुद्धगं भवं सम्मं अभवसाहगं भोगकिरिया सुरुवाइकप्पं तओ ता संपुण्णा पाउणह अविगलहेउभावओ असंकिलिट्ठसुहरूवाओ अपरोवताविणो सुन्दरा अणुबंधेणं। न य अण्णा संपुण्णा ॥९॥
__ अथः तत्पश्चात् वह महामुनि शुक्ल' अर्थात् अखंड चारित्रवाला, मात्सर्यरहित, कृतज्ञ, शुभ आरंभ वाला और हितपरिणामवान् तथा 'शुक्लाभिजात्य' अर्थात् उन अखण्ड चारित्रादि गुणों की प्रधानता वाला होकर कर्मानुबन्ध की छिन्न-सी अवस्था वाला बन जाता है। वह भगवद्वचन से प्रतिकूल लोकसंज्ञा को जीत लेता है। लोकसंज्ञा यह बहुत भव्य जीवों की प्रवृत्ति पर प्रीति स्वरूप है। इसे जीत लेने पर वह प्रतिस्रोतगामी हो जाता है और अनुस्रोत से निवृत्त हो जाता है, अर्थात् लोकाचार स्वरूपी नदी प्रवाह का अनुसरण नहीं करता, संसार के रसिक जीवों की सुलभ संसारवर्धक प्रवृत्तियों से विमुख हो जाता है। उसके योग सदैव शुभ यानी श्रमणता की चर्चा से युक्त होते हैं। ऐसे साधक को ही भगवान् ने 'योगी' कहा है यही संयम का वास्तव में आराधक है और प्रारम्भ से सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला होने से ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा का यथार्थ पालक है और निरतिचार साधक होने से सर्वोपाय-शुद्ध या सर्वपरीक्षाशुद्ध वह साधु अभव (मोक्ष) साधक शुद्ध भव का संधान करता है, अर्थात् चरम भव प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करता है, क्योंकि जैसे सुरूप-वय वैचक्षण्यसौभाग्य-माधुर्य और ऐश्वर्य स्वरूप भोग साधनों से ही सम्पूर्ण भोगक्रिया होती है, उसी प्रकार शुद्ध भव से ही संपूर्ण भोग क्रिया द्वारा अभव (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। ऐसे शुद्ध भव से ही प्राप्य भोग क्रिया कारणों की सम्पूर्णता होने से संपूर्ण यानी संक्लेशरहित, सुखरूप, परको उपताप उत्पन्न न करने वाली तथा अनुबंध से सुन्दर होती है, जिससे बढ़कर अन्य कोई भोगक्रिया सम्पूर्ण सुखद और सुन्दर होती ही नहीं है।।९।। . मूल - तत्तत्खंडणेण एअं नाणं ति वुच्चइ। एअम्मि सुहजोगसिद्धी उचिअपडिवत्तिपहाणा। इत्थ भावो पवत्तगो। पायं विग्यो न विज्जइ निरणुबंधासुहकम्मभावेण। अक्खित्ताओ इमे जोगा भावाराहणाओ तहा। तओ सम्मं पवत्तइ। निप्फायइ अणाउले। एवं किरिया सुकिरिया एगंतनिक्कलंका निक्कलंकत्थसाहिआ तहा सुहाणुबंधा उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए।
तओ से साहइ परं पत्थं सम्मं तक्कुसले सया, तेहिं तेहिं पगारेहिं साणुबंधं महोदए बीजबीजादिट्ठावणेणो कत्तिविरिआइजुत्ते अवंझसुहचिट्ठे समंतभद्दे सुप्पणिहाणाइहेऊमोहतिमिरदीवे रागामयविज्जे दोसानलजलनिही संवेगसिद्धिकरे हवइ अचिंतचिंतामणिकप्पे ॥१०॥ श्रामण्य नवनीत
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