Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 29
________________ के शोक का उन्होंने परिहार किया था। अर्थात् भगवान ने गर्भ में रहते हुए यह अभिग्रह किया था कि इनके जीते जी मैं दीक्षा नहीं लूंगा अन्यथा इन्हें अकुशलानुबन्धि शोक होगा ॥८॥ ____ मूल - एवं अपरोवतावं सव्वहा, सुगुरुसमीचे पूइत्ता भगवते वीअरागे साहू अ, तोसिऊण विहवोचिअं किवणाई, सुप्पउत्तावस्सए, सुविसुद्धनिमित्ते समहिवासिए, विसुज्झमाणो महया पमोएणं सम्मं पव्वइज्जा लोअधम्महितो लोगुत्तरधम्मगमणेण। एसा जिणाणमाणा ‘महाकल्लाण' त्ति न विरहिअब्बा बुहेणं महाणत्थभयाओ सिद्धिकंखिणा ॥९॥ ॥तइअं पव्वज्जागहणविहिसुत्तं समत्तं ॥ अर्थ : इस प्रकार, किसी को किसी भी प्रकार से संताप न देते हुए, सद्गुरु के समीप जाकर, वीतराग भगवान और साधुओं की पूजा भक्ति करके अपने वैभव के अनुसार दीन अनाथों को दान देकर सन्तुष्ट करके मुनि वेश पहनकर सामायिकादि आवश्यक क्रियाओं को भलि भांति सम्पादन करके अत्यन्त विशुद्ध निमित्त (शकुन आदि) पाकर सद्गुरु द्वारा मंत्रित वासक्षेप से सम्यक् प्रकार से अभिवासित होकर महान् हर्ष से निरन्तर विशुद्ध होते हुए हृदय के साथ, लौकिक कर्तव्यों से पृथक् होकर लोकोत्तर धर्म में प्रवेश करके शास्त्रोक्त विधि से प्रव्रजित हो जाय। जिनेश्वर भगवान की यह आज्ञा है। यह आज्ञा महान् कल्याण का कारण है। विवेकवान मुमुक्षु जीवको आज्ञा की विराधना से उत्पन्न होने वाले घोर अनर्थ से डरकर इस आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। क्योंकि आज्ञा की विराधना से बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है। आज्ञा की आराधना ही मोक्ष मार्ग है ।।९।। ॥ तीसरा प्रव्रज्याग्रहणविधिसूत्र समाप्त ।। • प्रथम शिष्य बनो फिर गुरु बन सकोगे। • ऊँचे जाना है आराधना, नीचे जाना है विराधना। - जयानन्द २० श्रामण्य नवनीत

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