Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 33
________________ स्थिर दीप ( क्षायिक ज्ञान) को प्राप्त करने का यथाशक्ति उद्यम करता है और भ्रान्ति रहित योग समाप्ति की अनुचित त्वरा एवं फल प्राप्ति की उत्सुकता से रहित हो श्रमण जीवन के योगों की परस्पर में अबाधक आराधना करता है । उत्तरोत्तर उन धर्म-योगों की सिद्धि के द्वारा तत्तद्गुण के प्रतिबन्धक पाप कर्मों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार विशुद्ध परिणाम वाला होता हुआ जीवनपर्यन्त औचित्यारम्भपालन स्वरूप मोक्षसाधक भावक्रिया का आराधक बनता है। तब वह लोकोत्तर प्रशम- सुख का अनुभव करने लगता है, तप और संयम की क्रियाएं उसे पीड़ा नहीं पहुँचाती और परीषह एवं उपसर्ग उसे व्यथित नहीं कर सकते। यह बात रोगी पुरुष से रोगशमन के लिए की जाने वाली सम्यक् चिकित्सा के उदाहरण से जाननी चाहिए || ५ || - मूल से जहानामए कई महावाहिगहिए अणुहूअतव्वेअणे विष्णाया सरुवेण निव्विण्णो तत्तओ, सुविज्जवयणेण सम्मं तमवगच्छिअ जहाविहाणओ पवण्णे सुकिरिअं । निरुद्धजहिच्छाचारे तुच्छपत्थभोई मुच्चमाणे वाहिणा निअत्तमाणवेअणे समुवलब्मारोग्गं पवड्ढमाणतमावे तल्लाभनिब्बुईए तप्पडिबंधाओ सिराखाराइजोगे वि वाहिसमारुग्गविण्णाणेण इट्ठनिप्पत्तीओ अणाकुलभावयाए · किरिओवओगेण अपीडिए अव्वहिए सुहलेस्साए वड्ढड़ विज्जं च बहु मण्णइ ॥६॥ अर्थः जैसे कि कोई अमुक नाम वाला पुरुष किसी कुष्ठादि महा व्याधि से ग्रस्त था। उस महा-व्याधि की वेदना का अनुभव करके उस व्याधि के सही स्वरूप को जानने वाला वह वास्तव में उससे खिन्न हो गया। फिर किसी अच्छे वैद्य के कहने से सम्यक् प्रकार से उस व्याधि को जानकर वह विधि के अनुसार देव पूजादि करके रोग पकाने इत्यादि सत्क्रिया में प्रवृत्त हुआ। अब वह स्वेच्छाचार को त्याग देता है, व्याधि के मुताबिक हलका पथ्य भोजन करता है। तब वह जैसे जैसे व्याधि से मुक्त होता है वैसे वैसे उसकी वेदना दूर होने लगती है। फिर खाज वगैरह पीड़ा की शान्ति होने से इतना आरोग्य प्राप्त हुआ देखकर उसकी आरोग्य के प्रति अभिलाषा बढ़ती जाती है। कुछ आरोग्य की प्राप्ति होने पर अधिक आरोग्य के विषय में उसकी लगन लग जाने से वह शिरावेध ( नसों को बींधना ) और क्षार आदि का योग होने पर भी इसी से व्याधि के उपशम द्वारा आरोग्य की प्राप्ति होगी वैसा वह जानता है। मनोवांछित की प्राप्ति होने से उन शिरावेध आदि में व्याकुलता किये बिना, उपचार सम्बन्धी क्रिया के प्रयोग से शारीरिक कष्ट का खयाल न करके और मन में भी व्यथा का अनुभव न करके, शुभ लेश्या (अध्यवसाय) से बढ़ता ही चला जाता है और वैद्य का बहुमान करता है || ६ || मूल एवं कम्मवाहिगहिए, अणुभूअ - जम्माइवे अणे, विण्णाया दुक्खरुवेणं, श्रामण्य नवनीत २४

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