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को सुन्दर रीति से प्राप्त करता है। वह गुरुकुलवासी, गुरु के प्रति अनुरागी, विनयवान, परमार्थदर्शी साधक, 'गुरुकुल वास से बढ़कर अन्य हितकर तत्त्व नहीं' ऐसा मानता है। वह शुश्रूषा आदि वृद्धि के आठ गुणों से सम्पन्न हो तत्त्व के प्रति आग्रहशील होने से विधि तत्पर बनकर साधु-कर्त्तव्य में अपना लक्ष्य केन्द्रित करता है और इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी कामनाओं से रहित एवं मोक्ष का अभिलाषी होकर सूत्रों को रागद्वेष विष के निवारक परम मंत्र समझकर उनका अध्ययन करता है। वह सूत्र और अर्थको यथार्थ रूप से जानता है। ऐसे ही ज्ञान से सम्यक् प्रकार सूत्र का नियोग करता है, यानी उसको व्यवहार में लाता है। सूत्र को इस प्रकार विधिपूर्वक जाना हुआ ही सम्यग् नियुक्त किया हुआ कहा जाता है, ऐसा तीर्थंकरादि धीर पुरुषों का शासन यानि फरमान है ।।२।।
मूल - अण्णहा अणिओगो अविहिगहियमंतनाएण। अणाराहणाए न किंचि, तदणारंभाओ धुवं। इत्थ मग्गदेसणाए दुक्खं अवधारणा अप्पडिवत्ती। नेवमहीअं अहीअं अवगमविरहेणी न एसा मग्गगामिणो विराहणा अणत्थमुहा, अत्थहेऊ तस्सारंभाओ धुवं। इत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो पडिवत्तिमित्तं किरिआरंभो। एवं पि अहीअं अहीअं अवगमलेसजोगओ। अयं सबीओ निअमेण मग्गगामिणो खु एसा अवायबहुलस्स। निरवाए जहोदिए सुत्तुत्तकारी हवइ पवयणमाइसंगए पंचसमिए तिगुत्ते ॥३॥
__ अर्थः अन्यथा अर्थात् अविधि से सूत्र का अध्ययन करने से अविधिगृहीत मंत्र के दृष्टान्तानुसार अनियोग (सदुपयोग का अभाव) होता है। अविधि से मंत्र ग्रहण किया जाय तो उन्माद, ग्रहपीड़ा आदि दोष उत्पन्न होते हैं। यदि बिलकुल आराधना ही न की जाय तो अध्ययन का आरंभ ही न करने के कारण निश्चित है कि कुछ भी शुभ या अशुभ फल की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसे अनाराधक के समक्ष अगर तात्त्विक मार्गदेशना की जाय तो क्षुद्र जीव के सामने सिंहनाद की तरह उसे दुःख उत्पन्न होता है। यदि वह कुछ लघुकर्मी हो तो उसे दुःख नहीं होता, किन्तु उस देशना की वह अवगणना-अवधीरणा करता है उसे तुच्छ गिनता है। यदि वह अधिक लघुकर्मी हो तो उसे दुःख भी नहीं होता
और उसके द्वारा अवगणना भी नहीं होती, किन्तु वह देशना को स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार मार्गकी अनाराधना के द्वारा किया हुआ सूत्र का अध्ययन तात्त्विक अध्ययन ही नहीं है, क्योंकि वह सम्यग् ज्ञान से रहित होता है। मार्गगामी साधक को एकान्तः पूर्वोक्त अनाराधना नहीं है। क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त होने से वह सर्वथा सक्रिया में प्रवृत्ति करता है। उसे अध्ययन में सम्भवित विराधना मार्गगामी को कंटकादिवत अनर्थकर होने पर भी निश्चित मोक्षगमन के आरंभ वाली ही होने से अर्थहेतु यानी परम्परा से मोक्ष का अंग होती है, क्योंकि विराधना होने पर भी तात्त्विक मार्गदेशना
श्रामण्य नवनीत
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