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पंच सूत्र . [चतुर्थ सूत्र] प्रव्रज्या - परिपालना
मूल - स एवमभिपब्बइए समाणे सुविहिभावओ किरियाफलेण जुज्जड़। विसुद्धचरणे महासत्ते न विवज्जयमेइ। एअअभावे अभिप्पेअसिद्धि उवायपवित्तिओ। नाविवज्जत्थोऽणुवाए पयट्टइ। उवाओ अ उवेअसाहगो नियमणी तस्स तत्तच्चाओ अण्णहा, अइप्पसंगाओ, निच्छयमयमेअं॥१॥
अर्थ : मुमुक्षु जीव पूर्व सूत्र में कथित विधि के अनुसार दीक्षा अंगीकार करके, समीचीन विधि-संपादन के कारण क्रिया के फल को प्राप्त करता है। क्योंकि वह क्रिया साधकक्रिया हुई है। विशुद्ध (निरतिचार) चारित्र वाला महात्मा होने से वह मुमुक्षु विपरीतता को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उसके ज्ञान और आचार में किसी प्रकार का विपर्यास नहीं होता। विपरीतता न होने की वजह से सम्यग् उपाय में प्रवृत्ति होने से वांछित की सिद्धि होती है, जो विपर्यास को प्राप्त नहीं है,वह उपाय को छोड़कर अनुपाय (उपायाभास) में प्रवृत्ति नहीं करता। और उपाय (कारण) उपेय (कार्य) का नियम से साधक होता है। अगर उपाय उपेय को सिद्ध न करे तो वह अपने स्वरूप का ही त्याग करे अर्थात् वह उपाय ही न रहे। क्योंकि अतिप्रसंग दोष आता है। कार्य का साधक न होने पर भी किसी को कारण मान लिया जाय तो किसी को भी किसी का कारण मान लेना होगा और फलतः कार्यकारण-भाव की व्यवस्था ही नहीं रहेगी। यह निश्चयनय का मत है। इसे सूक्ष्मबुद्धि पुरुष ही अच्छी तरह समझ सकते हैं ।।१।।
मूल - से समलिटूकंचणे समसत्तुमित्ते निअत्तग्गहदुक्खे पसमसुहसमेए सम्मं सिक्खमाइअइ। गुरुकुलवासी गुरुपडिबद्धे विणीए भूअत्थदरिसो 'न इओ हिअं तत्तं' ति मन्नइ सुस्सूसाइगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसा विहिपरे परममंतो त्ति अहिज्जइ सुत्तं बद्धलक्खे आसंसाविप्पमुक्के आययट्ठी। स तमवेइ सब्बहा। तओ सम्म निउंजइ। एयं धीराण सासणं ॥२॥
अर्थः वह दीक्षित साधक पाषाण और स्वर्ण में तथा शत्रु और मित्र में समान दृष्टि वाला, आग्रह के दुःख से रहित (मिथ्या अभिनिवेश से होने वाली पीड़ा परेशानियों से रहित) तथा प्रशम के सुख से युक्त होकर ग्रहण और आसेवन रूपी शिक्षा
श्रामण्य नवनीत