Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 28
________________ स ते सम्मत्ताइओसहसंपाडणेण जीवाविज्जा अच्चं तिअं अमरणावंझबीअजोगेणं । संभवाओ सुपुरिसोचिअमेअं दुप्पडिआराणि अ अम्मापिईणि । एस धम्मो सयाणं। भगवंइत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणबंधि अम्मापिइसोगं ति॥८॥ अर्थ ः पूर्वोक्त दृष्टान्त का उपसंहार- इसी प्रकार कोई शुक्लपाक्षिक' महापुरुष संसाररूपी अटवी में पड़ा हुआ है और माता-पिता आदि का सहवास होने पर भी धर्म के प्रति अनुरागी होकर विचरता है। उसके माता पिता आदि कर्म रूपी व्याधि से पीड़ित हैं। यह व्याधि निश्चित रूप से उनके प्राणों को हरण करने वाली है। बोधि बीज (सम्यक्त्व) आदि के संपादन के बिना अकेले पुरुष से वह टल नहीं सकती । किन्तु सम्यक्त्वादि औषध से उस व्याधि का निवारण किया जा सकता है । मृत्यु आदि उस व्याधि का फल है। धर्मानुरागी होने के कारण वह शुक्ल पक्षी जीव विचार करता है कि अगर इन (माता-पिता) का सम्यक्त्व आदि रूपी औषध से उपचार न किया गया तो निस्सन्देह इन्हें मरण आदि का पात्र बनना पड़ेगा। औषध मिलने से बच सकते हैं। व्यवहार से देखते हुए ज्ञात होता है कि माता-पिता अभी कुछ समय निकाल सकते हैंजी सकते हैं। अतएव इस बीच मैं चारित्र अंगीकार कर लूँ फिर इनके लिए सम्यक्त्वादि औषध ले आऊंगा। उस औषध से इन्हें भाव जीवन की प्राप्ति होगी और ये भव अटवी से पार हो जायेंगे और मेरा भी उद्धार हो जायेगा। इस प्रकार विचार करके वह शुक्लपाक्षिक जीव माता-पिता आदि परिवार के निर्वाह की आवश्यकताओं को यथाशक्ति सुन्दर रीति से पूर्ण करके, उनके साथ विशिष्ट गुर्वादि का योग करवाकर, उन्हें सम्यक्त्व आदि औषध प्राप्त कराने के लिए तथा अपनी संयम रूपी वृत्ति के लिए उचित कृत्य करने के हेतु से चारित्र ग्रहण करे। इस तरह वह सिद्धि का साधक मातापितादि का त्याग करे। तात्त्विक दृष्टि से इस प्रकार त्याग देना ही न त्याग देना है, बल्कि न त्यागना ही त्यागना है। इस विषय में तत्त्व फल ही प्रधान है। धीर और आसन्नभव्य जीव पारमार्थिक दृष्टि से फल को ही देखते हैं। इस प्रकार वह शुक्लपक्षी जीव सम्यक्त्व आदि औषध लाकर उन्हें शाश्वत अमरत्व प्रदान करता है, क्योंकि सम्यक्त्वादि ही मृत्यु को जीतने का अमोघ उपाय है, अतएव सत्पुरुष के लिए यही करना उचित है। माता-पिता के उपकार का बदला चूकाना बहुत कठिन है, परन्तु बदला चूकाना सत्पुरुषों का धर्म है। भगवान महावीर इस विषय में उदाहरण हैं । मातादि को अशुभ कर्मों का बन्ध न हो इसलिए माता पिता १. जिसका भवभ्रमण कम रह गया है अर्द्धपुद्गलपरावर्त्तन से भी कुछ कम समय में जो मुक्ति प्राप्त करने वाला है, वह शुक्लपक्षी जीव कहलाता है। श्रामण्य नवनीत १९

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