________________
हो जाता है। जो सुख सामग्री अभी है वह क्षण भर बाद नहीं है। सब कुछ स्वप्न के समान मिथ्या है। अतएव ऐसे संसार में आसक्त होना उचित नहीं है। हे माता-पिता! मुझ पर अनुग्रह कीजिए और आप भी भवभ्रमण के अन्त करने का उद्यम कीजिए! आप भी प्रव्रज्या ग्रहण कीजिए। मैं भी आपकी अनुमति से मुक्ति की साधना करूं, क्योंकि मैं जन्म मरण से घबरा उठा हूँ। गुरुप्रसाद से मेरा मनोरथ पूरा होगा ॥३॥
मूल - एवं सेसे वि बोहिज्जा, तओ सममेएहिं सेविज्ज धम्म। करिज्जोचिअकरणिज्जं निरासंसो उ सव्वदा। एअं परममुणिसासणं ॥४॥
अर्थः माता पिता को इस प्रकार प्रतिबोध देने के पश्चात् दूसरें-पत्नी पुत्र आदि को भी उसी प्रकार प्रतिबोध दे। तत्पश्चात् इन सब के साथ धर्म का सेवन करे। सर्वदा निराशंस रहकर महाव्रतादि उचित कर्तव्यों का पालन करे। यही परममुनि सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा है ॥४॥
मूल - अबुज्झमाणेसु अ कम्मपरिणईए विहिज्जा जहासत्तिं तदुवगरणं आओवायसुद्धं समईए। कयण्णुआ खु एसा करुणा य धम्मप्पहाणजणणी जणम्मि तओ अणुण्णाए पडिवज्जिज्ज धम्मं ॥५॥
अर्थःकदाचित्कर्म दोष से माता-पिता आदिको प्रतिबोध प्राप्त न हो तो अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार उनके जीवननिर्वाह की व्यवस्था करे। वह आय-उपाय अपनी समझ के अनुसार शुद्ध होना चाहिए। यह उस मुमुक्षु पुरुष की कृतज्ञता और करुणा है। इस प्रकार की कृतज्ञता और करुणा लोक में धर्म की प्रधान जननी होती है। (शासन की उन्नति करती है।) इतना करने के बाद साधुधर्म को अंगीकार करना चाहिए ।।५।।
मूल - अण्णहा अणुवहे चेव उवहिजुत्ते सिआ। धम्माराहणं खु हिअं सव्वसत्ताणं, तहा तहेअं संपाडिज्जा। सब्बहा अपडिवज्जमाणे चइज्जा ते अट्ठाणगिलाणोसहत्थचागनाएणं ॥६॥
__ अर्थः यदि माता-पिता आदि स्वजन मोह की प्रबलता आदि के कारण प्रव्रज्या महा धर्म अंगीकार करने की अनुमति न दें तो हृदय से मायारहित होते हुए भी ऊपर से माया का सेवन करके भी अनुमति प्राप्त करे, क्योंकि प्राणी मात्र के लिए धर्म की आराधना ही हितकर है। अतएव कोई भी उपाय करके धर्मकी आराधना करनी चाहिए। सब उपाय कर लेने के बाद भी माता-पिता आदि न मानें तो 'अस्थान-ग्लान
औषधार्थत्याग' न्याय से उनका त्याग करके दीक्षा अंगीकार कर ले। वह न्याय इस प्रकार है - ॥६॥
मूल - से जहानामए केइ पुरिसे कहंचि कंतारगए अम्मापिइसमेए श्रामण्य नवनीत
१७