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चाहिए ।।७।।
मूल - पडिवन्नधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा, गिहिसमुचिएसु गिहिसमायारेसु, परिसुद्धाणुट्ठाणे, परिसुद्धमणकिरिए, परिसुद्धवइकिरिए, परिसुद्धकायकिरिए॥८॥
___ अर्थ ः कल्याण मित्र की आज्ञा के वशवर्ती होने के साथ धर्मगुणों को धारण करने वाले पुरुष के योग्य ही बर्ताव करना चाहिए। एक आदर्श गृहस्थ की तरह गृहस्थ के व्यवहारों को निभाना चाहिए। विशुद्ध आचारवान् होना चाहिए। मन, वचन और काया की क्रियाएँ शास्त्रोक्त रीति से पूरी तरह शुद्ध होनी चाहिए ।।८।।
मूल - वज्जिज्जा अणेगोवधायकारगं, गरहणिज्जं, बहुकिलेस, आयइविराहगं, समारंभी न चिंतिज्जा परपीडं। न भाविज्जा दीणयो न गच्छिज्जा हरिसी न सेविज्जा वितहाभिनिवेसी उचियमणपवत्तगे सिया।
न भासिज्जा अलिअं, न फरुसं, न पेसुन्नं, नाणिबद्ध। हिअमिअभासगे सिआ। ___ एवं न हिंसिज्जा भूआणि। न गिव्हिज्ज अदत्तो न निरिक्खिज्ज परदार। न कुज्जा अणत्थदंडं। सुहकायजोगे सिआ ॥९॥
___ अर्थ : मन वचन काया की शुद्धि इस प्रकार करें :- अनेक जीवों का उपघात करने वाले, निन्दनीय, अत्यन्त क्लेशकारी तथा भविष्य को नष्ट करने वाले समारंभ का त्याग करें। दूसरे को पीड़ा पहुँचाने का विचार न करें। मन में दीनता न आने दें। अनुकूल प्रसंग उपस्थित होने पर हर्षित न हों। मिथ्या अभिनिवेश (दुराग्रह) न करें।मन को उचित रीति से ही प्रवृत्त करना चाहिए।
मिथ्या भाषण न करें।कर्कश भाषण न करें। किसी पर मिथ्या दोषारोपण न करें। बेकार गपसप न करें। हितकारी और परिमित वचनों का ही प्रयोग करें।
इसी प्रकार जीवों की हिंसा न करें। अदत्त वस्तु को ग्रहण न करें। परस्त्री को न ताकें। अनर्थदण्ड न करें। तात्पर्य यह है कि काया से शुभ प्रवृत्ति ही करें ।।९।।
मूल - तहा लाहोचिअदाणे, लाहोचिअभोगे, लाहोचिअपरिवारे, लाहोचिअनिहिकरे सिआ।
असंतावगे परिवारस्स, गुणकरे जहासत्तिं, अणुकंपापकरे, निम्ममे भावेणं।
एवं खलु तप्पालणे वि धम्मो, जह अन्नपालणे ति। सब्बे जीवा पुढो पुढो, ममत्तं बंधकारणं ॥१०॥
अर्थः आय (आमद) के अनुसार दान करें, आय के अनुसार उपभोग करें, आय के अनुसार परिवारका पोषण करें और आय के अनुसार संचय करें। साधारणतया माना जाता है कि गृहस्थ अपनी आय का आठवां भाग दान करे, आठवें भाग का स्वयं श्रामण्य नवनीत