Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ धम्मं संकिलेसो खु एसा परं अबोहिबीअं, अबोहिफलमप्पणो ति ॥५॥ अर्थ ः जीवों के प्रति करुणा परायण होने के कारण वे धर्म के विमुख न बनें इसलिए लोक विरुद्ध कार्यों का जैसे कि सात कुव्यसन, निन्दा, चुगली, कर्मादान आदि का त्याग करना चाहिए। जिससे धर्म की अवहेलना होती हो ऐसी प्रवृत्ति से उसे दूर रहना चाहिए। यह अवहेलना संक्लेश रूप होने से और धर्म के प्रति प्रद्वेष को उत्पन्न करने वाली होने से प्रद्वेषवान व्यक्ति के परम अबोधि का कारण है। तात्पर्य यह है कि इस अवहेलना से जनसाधारण में धर्म के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है। धर्म के प्रति अरुचि या घृणा उत्पन्न होने से साधारण लोग बोधिबीज से वंचित होते हैं, अतएव अपने लिए अबोधि रूपी फल उत्पन्न होता है ॥५॥ मूल- एवमालोएज्जा- न खलु इतो परो अणत्यो, अंधत्तमेअं संसाराडवीए, जणगमणिट्ठावायाणं, अइदारुणं सरूवेणं, असुहाणुबंधमच्चत्थं ॥६॥ अर्थ : : इस प्रकार विचार करना चाहिए कि अबोधि रूप फल या उस फल के जनक लोकविरुद्ध कार्यों से बढ़कर कोई दूसरा अनर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यह अबोधि संसाररूपी अटवी में अंधेपन के समान है, नरकादि अनिष्ट गतियों में गिराने वाली है। संक्लिष्ट परिणाम रूप होने से उसका स्वरूप ही अत्यन्त भयानक है और उसके कारण कर्मों का अत्यन्त अशुभ विपाक वाला अनुबंध (कर्म बीज शक्ति) होता है ॥६॥ मूल - सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं, अंधो विवाणूकट्ठए, वाहिए विव विज्जे, दरिद्दो विव ईसरे, भीओ विव महानायगे । न इओ सुन्दरतरमन्नं ति, बहुमाणजुत्ते सिआ, आणाकंखी, आणापडिच्छगे, आणाअविराहगे, आणा निप्फायगे त्ति ॥७॥ अर्थ : विधिपूर्वक अर्थात् श्रद्धा, प्रीति एवं आदर के साथ कल्याण मित्र का सेवन करना चाहिए। जैसे अंधा आदमी अटवी में भटकता हुआ पातादि के भय से सुपथ की ओर ले जाने वाले का, बीमार दुःख के भय से वैद्य का, दरिद्र निर्वाह के कारण ऐश्वर्यवान् का और भयभीत पुरुष शरण के लिए किसी सामार्थ्यवान् नायक का आश्रय लेता है उसी प्रकार कल्याणमित्र का आश्रय लेना चाहिए। इस संसार में कल्याणमित्र के सेवन से अधिक हितकर अन्य कुछ भी नहीं है। अतएव कल्याणमित्र के प्रति खूब आदर भाव रखना चाहिए। आज्ञा प्राप्ति के पूर्वकाल में उसकी आज्ञा का अभिलाषी बनना चाहिए। आज्ञा, प्रदानकाल में आज्ञा का स्वीकार करना चाहिए, आज्ञा प्राप्त होने के पश्चात आज्ञा की विराधना नहीं करनी चाहिए, और आज्ञा पालन के समय औचित्य, बहुमान, विनय, सेवा आदि सहित और आज्ञा के अनुसार ही कार्य करना श्रामण्य नवनीत १०

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86