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उपभोग करे, चौथाई भाग से परिवार का पालन-पोषण करे, चौथाई भाग का पूंजी के रूप में संग्रह करे और चौथाई भाग व्यापार में लगावे ।
परिवार को संताप उत्पन्न न करें, किन्तु अपनी शक्ति के अनुसार संसार का स्वरूप समझाकर उसे धर्म मार्ग में प्रवृत्त करे। परिवार के प्रति प्रतिफल की अपेक्षा न रखता हुआ अनुकंपाशील रहे और जल-कमल की भांति अन्तःकरण से ममत्वरहित हो। सभी जीव पृथक् पृथक् हैं सब की अलग-अलग अपनी सत्ता है, कोई किसी का नहीं है। ऐसी स्थिति में दूसरे जीवों पर ममत्व स्थापित करना उन्हें अपना मानना कर्मबन्ध का कारण है ॥ १० ॥
मूल तहा तेसु तेसु समायारेसु सइसमण्णागए सिआ, अमुगेऽहं, अमुगकुले, अमुगसिस्से, अमुगधम्मट्ठाणट्टिए । न मे तब्बिराहणा, न मे तदारंभी, वुड्ढी ममेअस्स, एअमित्थ सारं, एयमायभूयं, एअं हिअं, असारमण्णं सव्यं, विसेसओ अविहिगहणेणं ।
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एवमाह तिलोगबंधु, परमकारुणिगे, सम्मं संबुद्धे, भगवं अरहंते त्ति, एवं समालोचिइअ तदविरुद्धेसु समायारेसु सम्मं वट्टिज्जा, भावमंगलमेअं तन्निष्फती ॥११॥
अर्थः कुटुम्ब को संताप करने वाला नहीं परंतु गुण करने वाला, अनुकम्पाशील किन्तु अन्तर से ममत्वहीन होकर जो गृहस्थोचित व्यवहार करता है, कुटुंब से व्यवहार करते समय भी ऐसा विचार करता रहे कि मैं अमुक हूँ, अमुक कुल का हूँ, अमुक का शिष्य हूँ और धर्म की अमुक भूमिका पर स्थित हूँ। मैंने जो व्रत अंगीकार किये हैं, उनकी विराधना तो नहीं कर रहा हूँ? उसका (विराधना का ) आरंभ तो नहीं हो रहा है? मेरे धर्म-स्थान की वृद्धि हो रही है न? इस असार संसार में धर्म ही सार है, वही आत्मा की अपनी वस्तु है, वही हितकर है। अन्य धन-धान्य आदि जगत का समस्त वैभव असार है। और यदि वह वैभव अविधिपूर्वक ( अन्यायादि) से ग्रहण किया हुआ हो, तो वह विपाक में दारुण होने के कारण विशेषतया असार है।
तीन लोक के बन्धु लोकोत्तर करुणा के सागर, स्वयं अन्योपदेश निरपेक्षतया वरबोधि को प्राप्त करने वाले भगवान अरिहंत देव ने ऐसा ही कहा है। इस प्रकार भलीभांति विचारकर अधिकृत धर्मस्थानक से अविरुद्ध आचारों में समीचीन प्रवृत्ति करे। इस प्रकार का विधिपूर्वक आचार व्यवहार ही भावमंगल है। क्योंकि इससे उत्तरोत्तर सुन्दर समाचार की प्राप्ति होती है ||११||
मूल तहा जागरिज्ज धम्मजागरिआए को मम कालो? किमेअस्स उचिअं? असारा विसया, नियमगामिणो विरसावसाणा । भीसणो मच्चू
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श्रामण्य नवनीत
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