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कल्याण स्वरूप हैं और विविध उपायों द्वारा जगत के जीवों के लोकोत्तर कल्याण के कारण हैं। (उनके प्रभाव से मेरी यह अनुमोदना सम्यग्-वास्तविक क्यों नहीं बनेगी? अवश्यमेव बनेगी।) ।।१५।। ___ मूल - मूढे अम्हि पाये, अणाइमोहवासिए, अणभिन्ने भावओ हिआहिआणं, अभिन्ने सिया अहिअनिवित्ते सिआ, हिअपवित्ते सिआ, आराहगे सिआ उचिअपडिवत्तीए सव्वसत्ताणं सहिअंति। इच्छामि सुकडं, इच्छामि सुकडं, इच्छामि सुकडं ॥१६॥
अर्थ : पूर्वोक्त विशिष्ट गुणों वाले अरिहन्त आदि भगवन्तों को शरणरूप में स्वीकार करने में मैं मूढ (अयोग्य) हूँ, क्योंकि मैं पापी हूँ, अनादिकालीन मोह की वासना से वासित हूँ। हे प्रभो! परमार्थ रूप से मैं अपने हिताहित से अनजान हूँ। किन्तु आपके अचिन्त्य सामर्थ्य से मैं हिताहित का ज्ञाता बनूँ, अहितकारी मिथ्यात्वअविरति-कषाय आदि से निवृत्त होऊ, हित (मोक्षमार्ग) में प्रवृत्त होऊं तथा सर्व जीवों के प्रति समुचित प्रवृत्ति के साथ मोक्षमार्ग का आराधक बनूं। इस प्रकार मैं सुकृत की अभिलाषा करता हूँ। सुकृत की अभिलाषा करता हूँ। पुनः पुनः सुकृत की अभिलाषा करता हूँ।
(तीन बार सुकृत की अभिलाषा करने का कथन सुकृत करने की अति उत्कट अभिलाषा को भी प्रकट करता है) ।।१६।। ___ मूल - एवमेअं सम्म पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स सिढिलीभवंति परिहायंति खिजंति असुहकम्माणुबन्धा। निरणुबंधे वाऽसुहकम्मे भग्गसामत्थे सुहपरिणामेणं, कडगबद्धे विअ विसे, अप्पफले सिआ सुहावणिज्जे सिया, अपुणभावे सिआ। - तहा आसगलिज्जंति परिपोसिज्जति निम्मविज्जति सुहकम्माणुबंधा। साणुबंधं च सुहकम्म पगिहूँ पगिट्ठभावज्जिअं नियमफलयं सुप्पउत्ते विअ ' महागए सुहफले सिआ, सुहपवत्तगे सिआ, परमसुहसाहगे सिआ।
अओ अपडिबंधमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीअं ति सुप्पणिहाणं सम्म पढिअव्वं, सम्म सोअव्वं, सम्म अणुप्पेहिअब्बंति ॥१७॥
अर्थ : हृदय में संवेगभाव धारण करके जो मनुष्य स्वयं सम्यक् प्रकार से इस सूत्र को पढ़ता है या दूसरों से सुनता है और फिर इसके अर्थका चिन्तन करता है, उसके पूर्वबद्ध अशुभकर्मों का रस मन्द हो जाता है, उन कर्मों की स्थिति कम हो जाती है और विशिष्ट अध्यवसाय उत्पन्न होने सेअशुभ कर्मों का अनुबंध (बीज शक्ति) समूल नष्ट भी हो जाता है। इस प्रकार इस सूत्र के अध्ययन-चिन्तन से जो शुभ परिणाम उत्पन्न
श्रामण्य नवनीत