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होता है, उससे अशुभ कर्म का सामर्थ्य नष्ट हो जाता है, अतएव वह कर्म अनुबन्धहीन होता है। जैसे मन्त्र के सामर्थ्य से कटकबद्ध (सर्पादि के डंक के नजदीक कपड़ा, डोरी आदि का बन्ध करने से बांधा हुआ) विष अत्यन्त न्यून फलदायी होता है, उसी प्रकार शुभ परिणाम के प्रभाव से अशुभ कर्म अल्प फलदायी होता है और सरलता से उसे निर्जरित (नष्ट) किया जा सकता है। इतना ही नहीं वैसी उत्कृष्ट स्थिति और अशुभ विपाक वाला रस फिर उत्पन्न भी नहीं होता। ___साथ ही इस सूत्र के पठन, श्रवण एवं चिन्तन से शुभ कर्म के अनुबंध आत्मा में आकर्षित होते हैं, पुष्ट होते हैं और पूर्णता को प्राप्त होते हैं। अनुबंध वाला शुभ कर्म उत्कृष्ट बनता है और उत्कृष्ट अध्यवसाय द्वारा उपार्जित होने के कारण अवश्य फल देता है। वह कुशलानुबंधि कर्म विधि-पथ्यादि प्रयुक्त महान् औषध के समान शुभफल-दायक होता है। नवीन शुभ में प्रवृत्ति कराता है और अन्त में परम सुख (निर्वाण) का साधक बनता है।
यह सूत्र सांसारिक कामनाओं को दूर करके तथा अशुभ भावों का निरोध करके शुभ भावों का बीज बनता है। अतएव सुन्दर प्रणिधान (एकाग्रता एवं कर्तव्यनिश्चय) के साथ, चित्त को प्रशान्त बनाकर इसका सम्यक् पाठ करना चाहिये, सम्यक् श्रवण करना चाहिए, और सम्यक् चिन्तन करना चाहिये ।।१७।।
मूल - नमो नमिअनमिआणं परमगुरुवीअरागाणी नमो सेसनमुक्कारारिहाणं। जयउ सवण्णुसासणं। परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीया, सुहिणो भवंतु जीवा, ॥१८॥
पढम पावपडिग्याय-गुण-बीजाहाण सुत्तं समत्तं ।
अर्थ : देव और दानवादि से नमस्कृत ऐसे इन्द्र एवं गणधर आदि भी जिन्हें नमस्कार करते हैं, उन परमगुरु वीतराग भगवन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ। शेष नमस्कार करने योग्य सिद्ध, आचार्य आदि को नमस्कार करता हूँ। सर्वज्ञ के शासन की जय हो! परम संबोधि (निर्मल सम्यक्त्व) को प्राप्त करके जगत के सर्वजीव सुखी हों! जगत के सर्वजीव सुखी हों! जगत के सर्वजीव सुखी हों ।।१८।।
।। पहला पाप प्रतिघात गुण बीजाधान सूत्र समाप्त ।।
जो अपने विचारों को शुद्ध बनाता है, उसीके लिए भावना भवनाशिनी है।
- जयानन्द
श्रामण्य नवनीत