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जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : १३
किया। उनके सभी कथन आज भी समीक्षा की अपेक्षा रखते हैं। यद्यपि जैन धर्म का पाश्चात्य जगत् से परिचय कराने में इनके योगदान और कठिन परिश्रम को नकारा नहीं जा सकता है। फिर भी इन्होंने जैन धर्म की अच्छाइयों को उजागर करने की अपेक्षा उसकी कमियों को उजागर करने का ज्यादा प्रयत्न किया।
भारतीय विद्वानों में बौद्ध-परम्परा से विशेष रूप से परिचित विद्वानों, जैसे राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौशल्यायन आदि ने भी जैन धर्म पर अपनी कलम चलाई किन्तु जैन वाङ्मय के गहन ज्ञान के अभाव में उनके द्वारा भी स्खलनाएँ हुई हैं, जैसे-बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के प्रसंग में 'सव्व-वारि-वारितो' का अर्थ- जिसने जल का त्याग कर दिया है ऐसा किया है, जबकि जैन आगम सूत्रकृतांग के छठे अध्याय से तुलना करने पर इसका अर्थ होगा “जिसने सर्व पापों (वारि) का त्याग (वारण) कर दिया।" डॉ० राधाकृष्णन ने भी अनेकान्त को मध्यममार्ग में पड़ाव डालने वाला कहा है। इसी प्रकार अन्य अजैन विद्वानों के भी अनेक निष्कर्ष-दोष पूर्ण रहे हैं। कुछ विशिष्ट अजैन विद्वानों जैसे एस०बी० देव, प्रो० वेलंकर, के०डी० वाजपेयी, घोषाल, एस० मुखर्जी, ए०के० चटर्जी आदि ने निश्चित ही जैन विद्या पर शोध के क्षेत्र में अधिक परिश्रम और प्रामाणिकता से कार्य किया है फिर भी उनकी अपनी सीमाएँ रही हैं, इनमें से जिसने जैन विद्या के जिस पक्ष को लेकर कार्य किया, उसका गहन अध्ययन उसी पक्ष विशेष तक ही सीमित रहा। (२) जैन विद्वानों के शोधकार्य
जैन विद्या के क्षेत्र में जिन जैन विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया उनमें पं० सुखलालजी संघवी, पं० बेचरदासजी दोशी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ए०एन० उपाध्ये, पं० नाथूराम जी प्रेमी, डॉ० हीरालालजी, पं० हीरालाल जी, डॉ० नथमल जी टाटिया, ज्योतिप्रसाद जी जैन, पं० महेन्द्रकुमार जी 'न्यायाचार्य' आदि के नाम प्रमुख रूप से लिए जा सकते हैं। इन विद्वानों में से अनेक विद्वान् न केवल जैन एवं बौद्ध विद्या के अधिकृत विद्वान् थे अपितु संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि भाषाओं के भी ज्ञाता थे, फलतः इन्होंने जो कुछ भी लेखन-कार्य किया वह मूल ग्रन्थों के गहन अध्ययन पर आधारित था। दूसरे शोध के क्षेत्र में जिस सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि की आवश्यकता थी, उसका इन विद्वानों ने प्राय:पूर्ण प्रामाणिकता से पालन किया था। इनकी परवर्ती