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६६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१०
विहारों के पक्ष में भी भूमिदान दिया जाने लगा। प्रस्तुत शोधपत्र में जैन विहारों के उद्भव व विकास में भूमिदान के योगदान पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है।
जैन धर्म में दान को परम पुनीत कर्तव्य के रूप में विवेचित किया गया है। त्याग को ही दान की संज्ञा देते हुये आहारदान, अभयदान औषधदान तथा ज्ञानदान, ये चार प्रकार के दान बताये गये हैं। जैन धर्म में संग्रह को निन्दनीय और अपरिग्रह को धर्म का आधार माना गया है। जैन परिव्राजकों के लिये यह निर्देश था कि 'वह लेप लगाने भर का भी संग्रह न करें, बासी न रखें और कल की अपेक्षा न करते हुए पक्षी की भाँति पर्यटन करें।'५ किन्तु भोजन जीवन के लिये जरूरी था और साधना के लिये जीवन का अस्तित्व भी आवश्यक था, अत: जैन भिक्षुओं के लिये भिक्षा का प्रावधान किया गया। किन्तु उनके द्वारा भिक्षाटन केवल वेदना-शांति, संयम तथा धर्म चिन्तन के लिये था। जैन आचार ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं को यह निर्देश दिया गया है कि उन्हें मात्र जीवन रक्षा के लिये ग्रास की कामना करनी चाहिये। रसास्वादन के लिए भिक्षा-रसों का सेवन उनके लिये निषिद्ध था। उत्तराध्ययनसूत्र में भिक्षा के प्रकार; बताये गये हैं, यथा- जौ का दलिया, जौ का पानी, चावल की माड़, और इसी तरह के अन्य नीरस आहार ही भिक्षा के लिए ग्राह्य बताए गए हैं। आहार का यह संयम भिक्षुत्व की पूर्णता का आधार था। . जहाँ तक बौद्ध भिक्षुओं के प्रति भूमिदान का प्रश्न है, तो यह सम्भवतः उनके सुनिश्चित आवास व्यवस्था से सम्बन्धित था। जैन आगम ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि जैन संघ के प्रारम्भिक दिनों में जैन भिक्षुओं के पास आवास की कोई व्यवस्था नहीं थी। जैन आचार ग्रन्थों में बस्ती से बाहर शून्यागारों तथा निर्जन जंगलों में ही जैन मुनियों का नियत आवास बताया गया है। बृहत्कल्पभाष्य में जैन मुनियों के लिए उपाश्रय-संकट का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उपाश्रय की खोज में इधर-उधर घूमते जैन भिक्षुओं के उल्लेख भी मिलतें हैं। यहीं उनके अस्थिर वास के लिये अच्छी-बरी सेग्ग (शय्या) का भी विवरण मिलता है। उपाश्रय के अभाव में विशेषकर साध्वियों को बहुत कष्ट सहने पड़ते थे। सुरक्षा की दृष्टि से साध्वियों को सभा-स्थल, प्याऊ, देवकुल, घर के बाहर चबूतरे आदि आवागमन वाले स्थानों तथा वृक्ष के नीचे ठहरने का निषेध किया गया है। इस प्रकार प्रतीत होता है कि शीत-वात तथा सुरक्षा की भावना से श्रद्धालुओं द्वारा जैन भिक्षुओं के लिये आवास का निर्माण कराया गया। यद्यपि