Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISSN-0972-100 श्रमण SRAMANA A Quarterly Research Journal of Jainology Vol. LXI No. III July-September 2010 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी रुक्मिणी देवी दीपचन्द गार्डी प्राकृत एवं जैन विद्या उच्च अध्ययन केन्द्र Pārsva nātha Vidyā pitha, Varanasi पार्श्वनाथ विद्या पीठ, वाराणसी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ŚRAMAŅA A Quarterly Research Journal of Jainology Vol. LXI No. III J uly-September 2010 EDITOR Prof. Sudarshan Lal Jain JOINT EDITOR Dr. Shriprakash Pandey Publisher Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi (Recognized by Banaras Hindu University as an external Research Centre) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ŚRAMAŅA पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका A Quarterly Research Journal of Pārsvanātha Vidyāpītha No. III J uly-September-2010 ISSN: 0972-1002 Vol. LXI ADVISORY BOARD Dr. Shugan C. Jain, Chairman; Prof. Cromwell Crawford, Univ. of Hawaii; Prof. Anne Vallely, Univ. of Canada; Prof. Peter Flugel, SOAS, London; Prof. Christopher Key Chapple, Univ. of Loyola, USA; Prof. Ramjee Singh, Bhagalpur; Prof. Sagarmal Jain, Shajapur; Prof. K.C. Sogani, Jaipur; Prof. D.N. Bhargava, Jaipur EDITORIAL BOARD Prof. M.N.P. Tiwari, Dept. of History of Art, B.H.U.; Prof. K. K. Jain, Dept. of Jaina Evam Bauddha Darshan, B.H.U.; Prof. Viney Jain, Gurgaon; Dr. A.P. Singh, Dept. of History, Sikandarpur, Ballia. Subscription Patron Rs. 5,000.00 Annual Membership Life Membership For Institutions : Rs. 500.00 For Institutions : Rs. 3000.00 For Individuals : Rs. 150.00 For Individuals : Rs. 2000.00 Per Issue Price : Rs. 50.00 Membership fee can be sent in the favour of Parshwanath Vidyapeeth, I TI Road, Karaundi, Varanasi-221005 Published by Shri Indrabhooti Barar, for Parshwanath Vidyapeeth, I. T. I. Road, Karaundi, Varanasi-221005, Ph. 911-0542-2575521, 2575890 Email: pvri@sify.com, pvvaranasi@gmail.com Type setting-V. C.Mishra, Parvatipuri Colony, Kamachcha, Varanasi Printed by- Anand Kumar for Mahaveer Press, Bhelupur, Varanasi NOTE: The facts stated and views expressed in the Journal are those of authors only. The Editor/Editors may not be agreed with the facts stated in the artcile. नोटः पत्रिका में प्रकाशित विचार और तथ्य लेखक के अपने हैं। यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक उनके विचार और तथ्यों से सहमत हों। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखकों एवं पाठकों से निवेदन महोदय, सन् १९३७ में स्थापित पार्श्वनाथ विद्यापीठ भारतीय संस्कृति और जैनविद्या पर शोध में सनद्ध एक शोध संस्था है। यहां ४०,००० पुस्तकों एवं २००० पाण्डुलिपियों का अनुपम संग्रह है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ एक त्रैमासिक 'श्रमण' नामक शोध-पत्रिका प्रकाशित करती है जो न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी अपने उत्कृष्ट लेखों और गुणवत्ता के लिये जानी जाती है। विद्यापीठ का प्रारम्भ से ही निष्पक्ष एवं साम्प्रदायिक अभिनिवेश रहित दृष्टिकोण रहा है और वह उसके द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों एवं पत्रिका में प्रकाशित आलेखों से स्पष्ट है। आप अपने विषय के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् हैं? हम आपके आभारी रहेंगे यदि आप श्रमण हेतु अपने विद्वत्तापूर्ण आलेख हमें उपलब्ध कराने की कृपा करेंगे। आलेख हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में हो सकते हैं। आलेख मुख्य रूप से जैनविद्या से सम्बन्धित तलनात्मक तथा वैज्ञानिक हों। विद्वानों से निवेदन है कि लेख भेजते समय कृपया निम्न बातों का ध्यान रखें१. हिन्दी लेख क्रुतिदेव या ए.पी.एस. (प्रियंका या स्टारडस्ट फान्ट साइज १३) __में टंकित होने चाहिये। अंग्रेजी लेख टाइम्स न्यूरोमन अथवा एरियल (फान्ट साइज १३) में हों। २. लेख कम्प्यूटराइज्ड एवं सी.डी. में सुरक्षित हों तो अच्छा है। ३. यदि लेख हस्तलिखित हों तो सुस्पष्ट हैन्ड राइटिंग में हों। ४. श्रमण एक शोध-पत्रिका है, इसलिये लेख मूल ग्रन्थों पर आधारित (पूर्ण सन्दर्भो सहित) होने चाहिए। किसी महापुरुष का परिचय, स्वतन्त्र चिन्तन तथा शोधोपयोगी सामग्री भी प्रकाशित हो सकती है। ५. वर्ष के प्रकाशित चार अंकों में से चुने हुए तीन लेखों को पुरस्कृत किया जाएगा। ६. जिज्ञासा-समाधान हेतु अपनी जिज्ञासा भेजें। ७. ग्रन्थ-समीक्षार्थ ग्रन्थ की दो प्रतियां अवश्य भेजें। ८. पाठकगण प्रकाशित अंक के सन्दर्भ में अपनी सम्मति तथा अपने सुझाव भेजें उसे हम प्रकाशित करेंगे। श्रमण को उत्कृष्ट और शोधपरक बनाने में हमें आपका पूरा सहयोग अपेक्षित है। सम्पादक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Request to the authors and readers Dear Sir, Parshwanath Vidyapeeth is a Research Institute working in the field of Indology in general and Jainology in particular since 1937. It brings out a Bi-lingual Quarterly Research Journal named ŚRAMAŅA continuously since 1950. ŚRAMAŅA has always been the first choice of all the academicians as it contains the original research work pertaining to different branches of Indology and various aspects of Jainology as well. Parshwanath Vidyapeeth is committed to make ŚRAMAŅA more acceptable and academically sound. Sir, you are a great scholar of your field, we shall be highly obliged if you kindly send yourarticles for ŚRAMANA. The articles may be in Hindi or English centered basically on Jainism. We also welcome articles on comparative religions provided Jainism should be figured as the core subject. We shall appreciate if following points are taken care of while writing /sending the articles 1. Kindly send your articles (if it is in Hindi) dully typed in 13 font size using Krutideva or APS Hindi (Priyanka or Stardust fonts) software. For English articles Times New Roman or Arial fonts will be more suitable. 2. The articles should be sent preferably in C.D. 3. The hand written articles must be fairly legible. 4. Since ŚRAMAŅA is a research journal, articles must contain sufficient REFERENCES preferably from original texts. 5. The best three articles of the year will be awarded. 6. The articles under calumn 'Question & Answer' (Jijñāsā aura Samādhāna) are also invited from the contriburors/readers. 7. For review please send two copies of the book to be reviewed. 8. Your valuable comments and remarks on the issue will be appreciated. We look forward for your kind cooperation and suggestion if any to make ŚRAMAŅA more acceptable among the scholars. Editor Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आप 'श्रमण' के स्थायी पाठक हैं। आपने श्रमण का पिछला अंक वर्ष ६१ अंक २ (अप्रैल-जून २०१०) पढ़ा। आपने उसे सराहा हमें प्रसन्नता हुई। अब आपके समक्ष अगला अंक (जुलाई-सितम्बर २०१०) प्रस्तुत करते हुए हम आपके सुझावों को जानना चाहते हैं ताकि आगे के अंकों की गुणवत्ता में निखार ला सकें। किन्हीं अपरिहार्य कारणों से श्रमण समय पर आप तक नहीं पहुंच पा रहा था अब हम इस स्थिति में आ गए हैं कि समय पर आपको श्रमण मिल जाए। आप हम तक श्रमण-सम्बन्धी खट्टे-मीठे अनुभव अवश्य भेजेंगे। इस अंक में विविध जैन विधाओं से संम्बन्धित शोध-लेख आपको अवश्य पसन्द आयेंगे। स्थायी स्तम्भों के अन्तर्गत आपको विशिष्ट व्यक्तित्व के रूप में 'भँवर लाल जी नाहटा' का परिचय मिलेगा, जिज्ञासा और समाधान में वैभाविकी शक्ति तथा पर्युषण पर्व की जानकारी मिलेगी। इनके अतिरिक्त विद्यापीठ की गतिविधियाँ, जैन जगत् की हलचल तथा साहित्य सत्कार से सम्बन्धित सामग्री पूर्ववत् होगी। हमारे अगले अंक (अक्टूबर-दिसम्बर २०१०) में ISSIS संस्था के अन्तर्गत कनाडा, यू.एस.ए. चीन आदि देशों से समागत विदेशी विद्वानों के लेख होंगे। इन्होंने जून-जुलाई २०१० में जयपुर, दिल्ली, वाराणसी, हस्तिनापुर आदि स्थानों पर भ्रमण करके तथा जैन विद्वानों के व्याख्यान सुनकर जैनधर्म-दर्शन-कला आदि से सम्बन्धित शोध-पत्र लिखे हैं। इन शोध-लेखों से हम विदेशियों की भावनाओं को समझ सकेंगे। इस कार्य में सहयोग के लिए हम डॉ. शुगन चन्द जैन निदेशक ISSIS के अत्यन्त आभारी हैं। हमारी अगली योजना विशेषाङ्क निकालने की है जिसके लिए हमें शोधपूर्ण लेख चाहिए जैसे : 'त्रेषठ शलाका पुरुष चरित' (२४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलदेव) पर कुछ विशेषाङ्क हों। इसके अतिरिक्त गणित, भूगोल, द्रव्य, प्रमाण, ग्रन्थ-समीक्षा, कला, ज्योतिष, कर्म, मनोविज्ञान आदि से सम्बन्धित योजनाबद्ध विशेषाङ्क निकाले जायें जो संदर्भ ग्रन्थ का काम करें। अन्त में मैं अपने सहयोगी सम्पादक मण्डल के सभी सदस्यों का आभारी हूँ जिन्होंने बड़ी मेहनत से इसे यह रूप दिया है। डॉ. श्रीमती शारदा सिंह को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने इस अंक के प्रकाशन में प्रूफ रीडिंग में पूर्ण सहयोग दिया है। सम्पादक सुदर्शनलाल जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण जुलाई-सितम्बर २०१० विषयसूची १. प्रायश्चित्त तप क्यों डॉ. सुदर्शनलाल जैन ७-११ २. जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध-केन्द्र : एक समीक्षा प्रो० सागरमल जैन १२-२३ ३. पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान ऋचा सिंह २४-३९ ४. सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ डा० शान्ति स्वरूप सिन्हा ४०-४७ ५. भारतीय कला में लक्ष्मी-श्रीवत्स का अन्तस्सम्बन्ध और अंकन ४८-५४ डॉ. अयोध्या नाथ त्रिपाठी, डॉ. निर्मला गुप्ता ६. भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी ५५-५९ प्रो० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ७. अंगविज्जा में कला-शिल्प डॉ. अतुल कुमार सिंह ६०-६४ ८. प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा ६५-७० (जैन भिक्षु विहारों के विशेष संदर्भ में) डॉ. प्रियंका सिंह 9. A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue : The Jaina View And Indian Experience Prof. Kamlesh Datta Tripathi 71-83 10. Tessitori's pioneering work on the Uvaesamālā (Upadeśamālā) a basic book of Jaina Teachings Nalini Balbir 84-97 11. Pratikramana : An Unparalleled. contribution of Șramaņa tradition to Indian culture Dr. Kamla Jain 98-103 12. Jain's Nonviolent Perspective of Human Survival Samani Dr. Shashi Prajna 104-110 विशिष्ट व्यक्तित्व (कालजयी श्री भंवरलाल जी नाहटा) १११-११३ जिज्ञासा और समाधान (१. वैभाविकी क्रिया २. पर्युषण) ११४-११८ विद्यापीठ के प्रांगण में ११९-१२० जैन जगत् १२१-१२४ साहित्य सत्कार १२५-१२७ Statement about ownership... 128 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० प्रायश्चित्त तप क्यों डॉ. सुदर्शनलाल जैन ['प्रायश्चित्त तप' अपराध-सुधार हेतु एक प्रकार का दण्ड-विधान तथा कर्म-निर्जरा का माध्यम है। यह सभी द्वारा आचरणीय है। यह हमारी आभ्यन्तर शुद्धि का सशक्त माध्यम है। ] जैन दर्शन में आभ्यन्तर तपों की गणना करते समय सर्वप्रथम 'प्रायश्चित्त' तप को गिनाया गया है। प्रमादवश या अज्ञानवश हमारे द्वारा बहुत से अपराध हो जाते हैं जिन्हें हम 'प्रायश्चित्त' के द्वारा दूर कर सकते हैं अर्थात् भूलवश या असावधानी से हुए दोषों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। यह सर्व विदित है कि जैन दर्शन में आचारशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। अतः जैसे फिल्टर से पानी को शुद्ध किया जाता है वैसे ही ग्रहण किए गए व्रतों में दूषण लगने पर प्रायश्चित्त द्वारा उनका शोधन किया जाता है। अत: अपराध की शुद्धि हेतु दण्ड स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। इसके प्रभाव से पूर्वकाल में संचित पापकर्म नष्ट होते हैं तथा आत्मा निर्मल होती है। तीव्र ज्वर में बिना विचारे ग्रहण की गई दोषयुक्त महान् औषधि भी आरोग्यवर्धक नहीं होती उसी प्रकार प्रायश्चित्त के बिना एक पक्ष या मास आदि का उपवास तप भी उपकारक नहीं होता। जैसे स्वच्छ दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब चमकता है वैसे ही सद्गुरु से दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त करने पर तपस्वी चमकता है। __ मूलाचार में प्रायश्चित्त के आठ नाम गिनाए हैं जो प्रायश्चित्त के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुवणं । पुंच्छणमुच्छिवणं छिंदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाई ।। ३६३।। अर्थ- पूर्वोपार्जित कर्मों का १. क्षपण (नष्ट करना), २. क्षेपण (दूर हटाना), ३. निर्जरण (निर्जरा करना), ४. शोधन, ५. धावन (धोना), ६. पुंछन (पोंछना), ७. उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), ८. छेदन (टुकड़े करना) *. प्रो. (डॉ.) सुदर्शनलाल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त दो शब्दों के मेल से बना है- 'प्रायः' और 'चित्त' । 'प्रायः ' शब्द का अर्थ है 'अपराध' और 'चित्त' (चिति धातु से उणादि में निष्ठा अर्थ से बना है) का अर्थ है 'शुद्धि' । अतः जिसके करने से अपराध की शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं।' 'प्रायः' शब्द का अर्थ 'लोक' भी होता है जिसका अर्थ है- जिस क्रिया के करने से लोग (लोक) अपराधी को निर्दोष मानने लगें (प्रायो लोकस्तस्य चित्तं शुद्धिमियर्ति यस्मात् तत्प्रायश्चित्तम्)’। यहाँ ‘प्रायः' शब्द का अर्थ 'तप' और 'चित्त' का अर्थ 'निश्चय' भी है अर्थात् उपवास आदि तप में करणीयता का श्रद्धान ( निश्चय ) । दोष- संशोधन के जितने भी प्रकार हैं वे सभी प्रायश्चित्त के अन्दर आते हैं। संक्षेप में व्यवहार से उन्हें नौ प्रकारों में विभक्त किया गया है— १. आलोचन (आलोचना), २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों), ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार, और ९. उपस्थापन।' यद्यपि इनका विशेष सम्बन्ध साधु संघ से है तथापि इसका उपयोग गृहस्थ श्रावकों के लिए भी अति उपयोगी है। (१) आलोचन या आलोचना (प्रकटन, प्रकाशन ) - गुरु या आचार्य के समक्ष अपनी गलती को निष्कपट भाव से निवेदन करना। यह निवेदन या आलोचना निम्न दस प्रकार के दोषों को बचाकर करना चाहिए। वे दोष हैं (क) आकम्पित दोष- 'आचार्य दया करके हमें कम प्रायश्चित्त देवें' इस भावना से आचार्य को कुछ ( पुस्तक, पिच्छी आदि) भेंट देकर या सेवा करके अपने दोष का निवेदन करना । ५ अनगार - धर्मामृत में प्रायश्चित्त के १० भेद गिनाए हैं - आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ( उपस्थापना ) । श्रद्धान का लक्षण है- गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षा ग्रहणं पुनः । तच्छ्रद्धनमिति - ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।। अर्थ- मिथ्यात्व का ग्रहण होने पर पुनः दीक्षा देना श्रद्धान प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त के १० भेद व्यवहार नय से हैं। निश्चय नय से इसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं।' (ख) अनुमापित दोष- बातोंबातों में प्रायश्चित्त के कम या अधिक का अनुमान लगाकर अपने दोष को गुरु से प्रकट करना । (ग) दृष्ट दोष- जिस दोष को किसी ने देखा नहीं है उसे छु लेना और जो दोष दूसरे साथियों ने देख लिया है उसे ही Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त तप क्यों : ९ गुरु से निवेदन करना। (घ) बादर दोष- केवल स्थूल (महान्) दोष का निवेदन करना, बाकी छोड़ देना। (ङ) सूक्ष्म दोष- बड़े (दण्ड) के भय से बड़े (स्थूल) दोष को छुपाकर छोटे दोष का निवेदन करना। (च) छन्न दोष- 'यदि कोई ऐसा अपराध करे तो उसे क्या दण्ड मिलना चाहिए' इस तरह गुरु से पहले पूछना पश्चात् दोष का निवेदन करना। (छ) शब्दाकुलित दोष- 'कोई मेरे दोष को सुन न ले' इस भावना से जब खूब हल्ला हो रहा हो उस समय अपना दोष कहना। (ज) बहुजन दोष- 'आचार्य ने जो प्रायश्चित्त मुझे दिया है वह ठीक है या नहीं' ऐसी आशङ्का करके अपने अन्य साथियों से पूछना। (झ) अव्यक्त दोष- भयवश आचार्य से अपना दोष न बतलाकर अपने सहयोगी को दोष बतलाना (अ) तत्सेवी- आचार्य से अपने दोष का निवेदन न करके उस साथी से पूछना जिसने उसके समान ही अपराध किया हो और आचार्य ने उसे जो प्रायश्चित्त बतलाया हो उसे ही अपने लिए उचित मानना। (२) प्रतिक्रमण- 'प्रमादवश मुझसे जो अपराध हुआ हो, वह मिथ्या होवे (मिच्छा मे दुक्कड)' इस तरह अपनी मानसिक प्रतिक्रिया वचन द्वारा प्रकट करके सावधानी वर्तना प्रतिक्रमण है। यह रोज का एक कृत्य है। इसके द्वारा हम दैनन्दिन की चर्या में संभावित छोटे-छोटे दोषों का पर्यालोचन करते हैं। इसके लिए प्रतिक्रमण पाठ पढ़ा जाता है। ‘आगे भूल न हो' ऐसी सावधानी इसमें की जाती है। (३) तदुभय (मिश्र)- ऐसा अपराध जिसके लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना पड़े। (४) विवेक- आहार अथवा उपकरणों की सदोषता के विषय में जानकारी होने पर उनको पृथक करना विवेक है अर्थात् 'यह ग्राह्य (निर्दोष) है और यह अग्राह्य (सदोष) है' ऐसा विचार कर ग्राह्य को ही लेना, अग्राह्य को नहीं। (५) व्युत्सर्ग (प्रतिष्ठापन)- जिस दोष के परिहार के लिए विवेक (सदोष और निर्दोष का पृथक्करण) सम्भव नहीं हो वहाँ उसका त्याग करना या कुछ समय पर्यन्त कायोत्सर्ग करना वह व्युत्सर्ग (एकाग्रता के साथ शरीर, वचन आदि के व्यापारों को रोकना) है। (६) तप- जिस दोष के होने पर अनशन आदि तप करना पड़े वह तप प्रायश्चित्त है। (७) छेद (दीक्षा-अपहरण)- जिस अपराध के होने पर गुरु साधु Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० की दीक्षा-अवधि को दोष के अनुसार कम (पक्ष, दिवस, मास, वर्ष का छेद) कर दे उसे छेद प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके फलस्वरूप साधु की वरिष्ठता (ज्येष्ठता पूज्यता) कम हो जाती है और तब उसे उन साधुओं को भी नमस्कार करना पड़ता है जो पहले उसे नमस्कार करते थे और अब ज्येष्ठ हो गए हैं। 'दीक्षा की अवधि कितनी कम की गई है?' इस पर ही ज्येष्ठता-कनिष्ठता बनती है। जैसे किसी दस वर्ष के दीक्षित साधु की यदि दीक्षा-अवधि पाँच वर्ष कम कर दी जाती है तो उसे पाँच वर्ष से एक दिन भी अधिक दीक्षित साधु को नमस्कार करना होगा। (८) परिहार (पृथक्करण)- दोष के अनुसार कुछ समय (पक्ष, मास आदि) के लिए संघ से बाहर कर देना और उससे कोई सम्पर्क न रखना परिहार प्रायश्चित्त है। (९) उपस्थापना (पुनर्वतारोपण या पुनर्दीक्षा)- महाव्रतों के भंग होने पर पुरानी दीक्षा पूरी तरह समाप्त करके पुनः नए सिरे से दीक्षित करना। 'छेद' में पूरी दीक्षा समाप्त नहीं की जाती है। ___अंतिम दो (परिहार और उपस्थापन) के स्थान पर तीन (मूल', अनवस्थाप्य और पारश्चिक १) प्रायश्चित्त के भेद मिलने से कुछ ग्रन्थों में दस भेद भी गिनाए हैं। 'किस दोष के होने पर कौन सा प्रायश्चित्त लेना पड़ता है' इसका वर्णन व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त के प्रतिपादक ग्रन्थों में मिलता है। दोष के अनुसार गृहस्थ जीवन में भी ये प्रायश्चित्त देखे जाते हैं। जैसे, कान पकड़ो, माफी मांगो, आज का खाना बन्द, घर से या शहर से बाहर निकालना, जाति बहिष्कार करना, छात्रों को छात्रावास सुविधा से वंचित करना, परीक्षा-फल रोक देना, स्कूल से कुछ समय या सदा के लिए निकाल देना, कुछ समय बाद पुन: प्रवेश दे देना, आदि। इस तरह प्रायश्चित्त के ९ अथवा १० भेद हैं। यह प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति, काय, संयम-विराधना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का तथा लघु अथवा बृहत् होता है। जैसे पञ्चेन्द्रिय पशु-पक्षि आदि की विराधना से मनुष्य जाति की विराधना अधिक दोषजनक है। देश-काल आदि की परिस्थितियों तथा अपराधी की योग्यता अथवा संयम की स्थिति के अनुसार प्रायश्चित्त भी छोटा-बड़ा होता है। अत: एक ही अपराध का प्रायश्चित्त अलग-अलग हो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त तप क्यों : ११ सकता है। आगमों में जो अपराध का प्रायश्चित्त बतलाया है वह सामान्य कथन है। इसका निर्णय सद्गुरु या आचार्य करता है। हम प्रायश्चित्त के आगम ग्रन्थ पढ़कर स्वयं प्रायश्चित्त नहीं ले सकते हैं। गुरु के अभाव में आप भले स्वयं प्रायश्चित्त कर लें परन्तु यथावसर गुरु से सही-सही बतलाएं तथा गुरु जो कहे तदनुसार करें। आचार्य यदि स्वयं व्रतों में दोष लगाता है तो उसे बड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। दोषों की शद्ध कैसे होगी? इसका विवरण आगमों में विस्तार से दिया गया है।१२ सन्दर्भ-ग्रन्थ १. अनगार धर्मामृत ५.४५ २. अनगार-धर्मामृत ५.४६ ३. मूलाचार, गाथा ३६३ ४. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, सूत्र ९.२२ ५. आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेद-परिहारोपस्थापना। ६. अनगार-धर्मामृत, संस्कृत टीका ७.३७ ७. अनगारधर्मामृत ७.५७ ८. देखें, वही ७.५९। ९. 'मल' में ६ मास से अधिक की दीक्षा का छेद होता है और 'छेद' में ५ अहोरात्र से ६ मास तक की दीक्षा-छेद है। इस तरह 'मूल' चिरघाती है और 'छेद' सद्य:घाती है। -बृहत्कल्पभाष्य ७११ १०. मूलाचार (५.३६२) में मूल प्रायश्चित्त उसे कहा है जिसमें पुन: व्रत दिए जायें अर्थात् पुन: दीक्षा देना। अनवस्थाप्य- दीक्षा से हटाने के बाद तत्काल पुन: दीक्षा न देना। कुछ अवधि तक परीक्षण करने के बाद आचार्य व संघ की अनुमति मिलने पर दीक्षा देना। ११. पारश्चिक यह परिहार का ही भेद है। परिहार के तीन भेद हैं। निजगण अनुपस्थान, २. सपरगणोपस्थान और ३. पारश्चिक। तीनों भेदों में संघ से निष्कासन मुख्य है। तीर्थंकर गणधर आदि की आशातना करने पर यह दण्ड दिया जाता है। अभिधान राजेन्द्रकोश में इसका विस्तार से वर्णन है- अनगार० ५९ संस्कृत टीका। १२. व्यवहार, जीतकल्पसूत्र आदि प्रायश्चित्त प्रधान ग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र ९.२२ तथा इसकी टीकाएँ। लाटीसंहिता ७.८२, प्रवचनसारोद्धार ९२/७५०, मूलाचार १०३३ । ५.३६३, व्यवहारभाष्य, गाथा. ५३, अनगार० ७.३७, स्थानांगसूत्र, मधुकरमुनि टीका १०.७३ * Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध __ केन्द्र : एक समीक्षा प्रो० सागरमल जैन [इस आलेख के माध्यम से विद्वान् लेखक जैन-शोध की विविध संस्थाओं, शोधार्थियों और शोध-निर्देशकों का कच्चाचिट्ठा प्रस्तुत करते हुए, अपने भावों की पीड़ा को समाज के सम्मुख शोध के क्षेत्र में आई गिरावट के प्रति चिन्तित है। परन्तु ऐसा नहीं है कि आज अच्छे शोध-कार्य नहीं हो रहे हैं, उन्हें और अधिक बल प्रदान करने की आवश्यकता है। शोधार्थी इस आलेख के माध्यम से जैनशोध-स्थलों का परिचय प्राप्त कर सकता है। आज यदि जैन विद्वानों को अच्छा वेतन दिया जाए तो विद्वान् अवश्य तैयार होंगे, यह अर्थप्रधान समय का प्रभाव है। (१) जैनेतरों का शोध-कार्य जैन-विद्या के क्षेत्र में आधुनिक शोध का कार्य उन्नीसवीं शती के अन्त से एवं बीसवीं शती के प्रारम्भ से विशेष रूप से विदेशी अजैन विद्वानों के द्वारा प्रारम्भ हुआ। इनमें मैक्समूलर, आलबेस वीबर, बुलर, रिचर्ड पिशेल, हरमन जैकोबी, ग्लेसनेप, शूबिंग, लायमान हार्टले, लुडविग आल्सडोर्फ, वून वार्थ, स्टीवेन्सन, जेम्स वंड, डॉ. शेर्लोट क्राउजे, पाल डुंडास, ई. फिशर आदि को प्रमुख माना जा सकता है। इन लोगों के शोध-कार्य में मुख्य कठिनाई यह रही है कि ये लोग न तो सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय और जैन वाङ्मय से परिचित थे और न ही संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा पालि आदि भाषाओं से पूर्व परिचित थे, जो कुछ इन्हें उपलब्ध हो सका और जिसका वे अध्ययन कर सके, अपने उसी सीमित ज्ञान के आधार पर अपनी प्रतिभा के द्वारा उन्होंने निष्कर्ष निकाल लिये, जैसे 'जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म की एक शाखा है', आदि, दूसरे जो लोग ईसाई धर्म से प्रभावित थे, वे भी अपने निष्कर्षों में प्रामाणिक नहीं रह सके, जैसे- जैन धर्म पर "Heart of Jainism" जैसा विस्तृत ग्रन्थ लिखकर भी स्टीवेन्सन ने लिख दिया कि "Jainism is without heart" अर्थात् जैन धर्म हृदयहीन है। पाल डुंडास ने अपनी पुस्तक में एवं अपने चित्रों के माध्यम से जैन धर्म के आलोचनात्मक पक्ष को ही अधिक मुखर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : १३ किया। उनके सभी कथन आज भी समीक्षा की अपेक्षा रखते हैं। यद्यपि जैन धर्म का पाश्चात्य जगत् से परिचय कराने में इनके योगदान और कठिन परिश्रम को नकारा नहीं जा सकता है। फिर भी इन्होंने जैन धर्म की अच्छाइयों को उजागर करने की अपेक्षा उसकी कमियों को उजागर करने का ज्यादा प्रयत्न किया। भारतीय विद्वानों में बौद्ध-परम्परा से विशेष रूप से परिचित विद्वानों, जैसे राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौशल्यायन आदि ने भी जैन धर्म पर अपनी कलम चलाई किन्तु जैन वाङ्मय के गहन ज्ञान के अभाव में उनके द्वारा भी स्खलनाएँ हुई हैं, जैसे-बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र के प्रसंग में 'सव्व-वारि-वारितो' का अर्थ- जिसने जल का त्याग कर दिया है ऐसा किया है, जबकि जैन आगम सूत्रकृतांग के छठे अध्याय से तुलना करने पर इसका अर्थ होगा “जिसने सर्व पापों (वारि) का त्याग (वारण) कर दिया।" डॉ० राधाकृष्णन ने भी अनेकान्त को मध्यममार्ग में पड़ाव डालने वाला कहा है। इसी प्रकार अन्य अजैन विद्वानों के भी अनेक निष्कर्ष-दोष पूर्ण रहे हैं। कुछ विशिष्ट अजैन विद्वानों जैसे एस०बी० देव, प्रो० वेलंकर, के०डी० वाजपेयी, घोषाल, एस० मुखर्जी, ए०के० चटर्जी आदि ने निश्चित ही जैन विद्या पर शोध के क्षेत्र में अधिक परिश्रम और प्रामाणिकता से कार्य किया है फिर भी उनकी अपनी सीमाएँ रही हैं, इनमें से जिसने जैन विद्या के जिस पक्ष को लेकर कार्य किया, उसका गहन अध्ययन उसी पक्ष विशेष तक ही सीमित रहा। (२) जैन विद्वानों के शोधकार्य जैन विद्या के क्षेत्र में जिन जैन विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया उनमें पं० सुखलालजी संघवी, पं० बेचरदासजी दोशी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ए०एन० उपाध्ये, पं० नाथूराम जी प्रेमी, डॉ० हीरालालजी, पं० हीरालाल जी, डॉ० नथमल जी टाटिया, ज्योतिप्रसाद जी जैन, पं० महेन्द्रकुमार जी 'न्यायाचार्य' आदि के नाम प्रमुख रूप से लिए जा सकते हैं। इन विद्वानों में से अनेक विद्वान् न केवल जैन एवं बौद्ध विद्या के अधिकृत विद्वान् थे अपितु संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि भाषाओं के भी ज्ञाता थे, फलतः इन्होंने जो कुछ भी लेखन-कार्य किया वह मूल ग्रन्थों के गहन अध्ययन पर आधारित था। दूसरे शोध के क्षेत्र में जिस सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि की आवश्यकता थी, उसका इन विद्वानों ने प्राय:पूर्ण प्रामाणिकता से पालन किया था। इनकी परवर्ती Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० समकालीन एक दूसरी पीढ़ी भी हमारे सामने आई थी, जिसमें पं० कैलाशचन्द्र जी, पं० जगन्मोहन लाल जी, पं० (डॉ०) दरबारीलाल जी कोठिया, पं० उदयचन्द जी, पं० नाथूलाल जी, पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री आदि आते हैं। प्रायः ये सभी विद्वान् दिगम्बर परम्परा के साहित्य से ही अधिक परिचित रहे और इसलिए इनके शोध एवम् अध्ययन का क्षेत्र भी उसी दिशा तक सीमित रहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में पं० अगरचंद जी एवं भँवरलाल जी नाहटा जैसे विद्वान् हुए जो यद्यपि किसी कालेज एवं पाठशाला में शिक्षित नहीं थे, फिर भी अपनी प्रतिभा के बल पर विशेष रूप से श्वेताम्बर जैन आचार्यों द्वारा लिखित हजारों कृतियों को प्रकाश में लाने का श्रेय इन्हें दिया जा सकता है। इसी प्रकार जैन सन्तों में श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य राजेन्द्रसूरि जी ने अभिधानराजेन्द्र कोश, लावण्य विजय जी ने धातु-रत्नाकर और दिगम्बर परम्परा के जिनेन्द्र वर्णी जी ने जैनेन्द्र- सिद्धान्तकोश आदि सन्दर्भ ग्रन्थों की रचना की। इसी प्रकार डॉ० मोहनलाल मेहता एवं डॉ० के० ऋषभचन्द्र ने 'प्राकृत-प्रापर-नेम्स' जैसे ग्रन्थों की रचना कर जैन विद्या में शोध को सुविधाजनक एवं प्रामाणिक बनाने में योगदान दिया। इसी तरह से आचार्य तुलसी जी के नेतृत्व में आगम शब्दकोश, वनस्पति कोश, एकार्थक कोश आदि की रचना भी इस दिशा में सहायक रही। श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मुनिजन भी इस शोध-क्षेत्र में समर्पित रहे हैं। जैनागमों के सम्पादन में पूज्य मुनि पुण्यविजयजी और जम्बूविजयजी के अवदान को हम भुला नहीं सकते हैं। इसी प्रकार जैन इतिहास के क्षेत्र में मुनि कल्याणविजयजी और किसी सीमा तक आचार्य हस्तीमलजी के अवदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। इसी प्रकार पं० मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' का अनुयोग ग्रन्थों की रचना और युवाचार्य मिश्रीमल जी का आगम ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अवदान है। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी का जैन विद्या का आधुनिक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुतीकरण जैन - शोध की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य विद्यानन्द, आचार्य विद्यासार, उपाध्याय ज्ञान-सागर आदि का योगदान दिगम्बर परम्परानुसारी रहा। आज की नई पीढ़ी के विद्वानों में प्रो० सुदर्शनलाल, प्रो० धर्मचन्द्र, प्रो० कमलेश कुमार, प्रो० फूलचन्द प्रेमी, डॉ० रमेशचन्द जैन आदि प्रमुख हैं। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर से प्रकाशित 'सम्पर्क' के चतुर्थ खण्ड में जैन विद्या से सम्बन्धित सैंतालिस शोध संस्थाओं की सूची दी गई है । यद्यपि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - विद्या के शोध - अध्ययन तथा शोध केन्द्र : एक समीक्षा : १५ इस सूची में कुछ नाम छूटे हो सकते हैं फिर भी यह संख्या पर्याप्त कही जा सकती है। किन्तु इस सूची पर यदि गम्भीरता से विचार करें तो जीवन्त क्रियाशील शोध संस्थानों की संख्या दस से अधिक नहीं होगी। इनमें कुछ प्रमुख नाम हैं- पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी; लालभाई दलपतभाई भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद; जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं; देव कुमार जैन प्राच्य शोध केन्द्र, आरा; कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर; प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर, इन्हें शोध कार्य के लिए विश्वविद्यालयों से मान्यता भी प्राप्त है। इनके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश शासन ने जैन विद्यापीठ शोध संस्थान, लखनऊ की तथा कर्नाटक शासन ने जैन अध्ययन संस्थान, श्रवणबेलगोला की स्थापना भी इसी उद्देश्य को लेकर की है। शेष जो शोध केन्द्र के रूप में स्थापित हैं वे या तो कुछ मुनिजनों के या विद्वानों के वैयक्तिक प्रयत्नों के ही परिणाम हैं और वे आज भी मान्यता प्राप्त शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान नहीं बना पाए हैं। दूसरे उनके पुस्तकालय एवं अन्य शोध संसाधन भी सीमित हैं। उन शोध केन्द्रों पर कितना कार्य हुआ है या हो रहा है इसकी जानकारी का भी प्रायः अभाव है। विश्वविद्यालयों द्वारा जो मान्यता प्राप्त शोध-केन्द्र हैं उनमें पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, सबसे प्राचीन है और शोधकार्यों तथा शोध ग्रन्थों के प्रकाशन में उसका स्थान अग्रणी रहा है। आर्थिक अभाव से गुजर रही इस संस्था को जीवन्त बनाए रखने की महती आवश्यकता है। यहाँ से कई शोधछात्र Ph.D. उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। अभी-अभी प्रो. सुदर्शनलाल जैन की यहाँ निदेशक के रूप में नियुक्ति हुई है, उनसे हमें आशायें है। यहाँ से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक शोध पत्रिका 'श्रमण' भी प्रगति पर है। इन्साइक्लोपीडिया आदि शोध-ग्रन्थ भी प्रकाशित हो रहे हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ में म्यूजियम, तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों का अच्छा संग्रह है। उसके पश्चात् कालक्रम में स्थापित लालभाई दलपत भाई भारतीय विद्या मंदिर को भी जैन-विद्या के शोध संस्थानों में अग्रणी स्थान प्राप्त रहा है, यद्यपि यहाँ अधिक शोध - विद्यार्थी तो नहीं रहे, किन्तु यहाँ के विद्वानों ने जो शोध कार्य किये हैं वे निश्चय ही महत्त्वपूर्ण रहे हैं। एक समय था जब जैन- विद्या के विश्रुत विद्वानों से मण्डित यह संस्थान श्वेताम्बर जैन समाज एवं गुजरात शासन के सहयोग से सिरमौर बना हुआ था, किन्तु पण्डित दलसुख भाई मालवणिया के अवसान के पश्चात् आज शोध कार्यों की अपेक्षा से उतना सक्रिय प्रतीत नहीं होता है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० जैन विद्या में शोध-कार्य की दृष्टि से प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। एक समय था जब यह संस्थान शोध-कार्य में सिरमौर बना हुआ था, किन्तु डॉ० गुलाब चन्द जी और डॉ० नथमलजी टाटिया के बाद इसे निदेशक के रूप में अधिकृत विद्वान् उपलब्ध नहीं ही सके, साथ ही साथ बिहार - शासन की उपेक्षा और बिहार में गिरते हुए शिक्षा-स्तर के परिणाम स्वरूप आज यह संस्थान जैन विद्या के क्षेत्र में वह गरिमा सुरक्षित नहीं रख पाया है। जहाँ तक देवकुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान, आरा के शोध केन्द्र का प्रश्न है तो यह संस्था मुख्यतः एक परिवार विशेष पर आश्रित होने के कारण अर्थाभाव से गुजर रही है। नवोदित जैन विद्या के शोध केन्द्र के रूप में जैन विश्वभारती, लाडनूं निश्चय ही प्रगति की दिशा में अग्रसर है। विश्वविद्यालय का स्वरूप प्राप्त हो जाने के कारण और तेरापंथ धर्मसंघ की सक्रियता के परिणामस्वरूप निश्चय ही इसके उज्ज्वल भविष्य की कल्पनाएँ की जा सकती हैं। यहाँ से कई जैन साधु-साध्वी और जैन विद्या में रुचि रखने वाले छात्र इससे पंजीकृत होकर अपना शोध-कार्य कर रहे हैं और आज इसमें पंजीकृत शोध छात्रों की संख्या सर्वाधिक है। इसका सर्वाधिक लाभ तेरापंथ धर्मसंघ का समणी वर्ग एवं कुछ श्वेताम्बर साध्वियाँ ही उठा रही हैं और उनका शोध का स्तर भी मानक है। किंतु इस संस्थान में प्रो० नथमलजी टाटिया के अवसान के पश्चात् डॉ० कमलचंद जी सोगानी, डॉ० दयानन्द भार्गव को छोड़कर जैन विद्या का ऐसा कोई बहुश्रुत विद्वान् नहीं जुड़ पाया जिससे इसके अधीन होने वाले शोधकार्य अधिक गम्भीर बन सके। अब समणी मंगल प्रज्ञा जी ने इसे सम्हाला है। जहाँ तक मेरे निर्देशन में कार्यरत प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर का प्रश्न है, विगत दस वर्षों में इस संस्था ने अच्छी प्रगति की है। इसके अधीन लगभग बीस विद्यार्थियों ने जैन विद्या में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की है तथा बारह ने पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है। वर्तमान में भी लगभग दस शोधार्थी कार्यरतं हैं, किन्तु यह संस्था भी मात्र एक वैयक्तिक प्रयास ही है जिसके कारण इसकी अपनी सीमाएं हैं और मेरे पश्चात् इसकी क्या स्थिति होगी यह भविष्य के ही गर्भ में है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर विगत कई वर्षों से कार्यशील है, किन्तु इसके अधीन अधिक शोध छात्र निकले हों ऐसी मेरी जानकारी नहीं है । इतना अवश्य है कि अपने पुस्तकालय एवं Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : १७ . हस्तप्रतियों के सूचीकरण के कारण इसका नाम है, यहाँ सहयोग की भावना समृद्ध है, किन्तु इन्दौर जैसे जैन समाज बहुल नगर में स्थित होकर भी विगत पन्द्रह वर्षों में इसकी जैसी प्रगति होनी चाहिये वैसी प्रगति हो नहीं पाई है। जहाँ तक महावीर आराधना केन्द्र, कोबा, और भोगीलाल लहेरचंद संस्थान, दिल्ली का प्रश्न है, ये दोनों शोध-सुविधा की दृष्टि से समृद्ध संस्थान हैं- किन्तु जहाँ तक मेरी जानकारी है, इन्हें किसी विश्वविद्यालय से अभी तक शोध केन्द्र के रूप में मान्यता नहीं मिली है। आज कोबा की संस्था हस्तप्रतों एवं पुस्तकालय की अपेक्षा से अति समृद्ध है और शोध-कार्य में सहयोग भी करती है, किन्तु योग्य निदेशक के अभाव में शोध-योजनाएँ गतिशील नहीं हो पा रही हैं। फिर भी वहाँ से हस्तप्रतों के कैटलागों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण है। भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय विद्यामन्दिर से प्रारम्भ में कुछ शोध-पूर्ण प्रकाशन हुए थे, किन्तु यह संस्था भी अभी तक किसी ऐसे निदेशक को नहीं खोज पायी है जो जैन विद्या का गम्भीर अध्येता हो। अतः यह संस्था भी प्राकृत शिक्षण के कुछ प्रयत्नों तक सीमित होकर रह गई है। (३) विश्वविद्यालयों में जैन विद्या के अध्ययन एवं शोध की स्थिति जहाँ तक विश्वविद्यालयों में जैन विद्या के अध्ययन का प्रश्न है तो. प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग, उदयपुर, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं में ही ऐसे सक्रिय विभाग हैं जहाँ जैन विद्या से सम्बन्धित शोध-कार्य सन्तोष जनक स्थिति में हैं। पुणे विद्यापीठ के दर्शन विभाग की जैनपीठ वर्तमान में निष्क्रिय सी है। मद्रास विश्वविद्यालय के जैन विद्या विभाग में यद्यपि कुछ शोध-कार्य हुए हैं लेकिन प्रो० खड़बड़ी आदि के जाने के बाद, यहाँ की स्थिति उतनी सन्तोष जनक नहीं रही। दक्षिण भारत के बंगलोर एवं मैसूर विश्वविद्यालयों में भी जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ कार्य हुए हैं। वर्तमान में मैसूर विश्वविद्यालय का जैन विद्या विभाग प्रो० हम्पा नागरजैया के मार्गदर्शन में निश्चित ही सन्तोष जनक कार्य कर रहा है, यद्यपि वहाँ शोध-छात्रों की क्या स्थिति है यह मुझे ज्ञात नहीं है। जहाँ तक उत्तर भारत का प्रश्न है पटियाला विश्वविद्यालय की जैनपीठ में पूर्व में कुछ कार्य हुए हैं लेकिन वर्तमान में स्थिति क्या है यह मेरी जानकारी में नहीं है। इसी प्रकार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रो० धर्मचन्द्र जी के अधीन कुछ शोध-कार्य हुए हैं, किन्तु वहाँ जैनपीठ की क्या स्थिति है इस सम्बन्ध में भी विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। बिहार Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० के कुछ विश्वविद्यालयों में प्राकृत और दर्शन विभागों में जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ शोध- कार्य अवश्य हुए हैं और वर्तमान में भी हो रहे हैं किन्तु वहाँ के शोध कार्यों का स्तर विचारणीय है। वाराणसी में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्याल में प्राकृत एवं जैन आगम और जैन दर्शन के, स्वतन्त्र विभाग हैं किन्तु यहाँ भी शोध की दृष्टि से जैन विद्या के गम्भीर अध्येताओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है। इसी प्रकार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय के अन्तर्गत जैन एवं बौद्ध दर्शन का संयुक्त विभाग है, लेकिन यहाँ भी अध्येता एवं शोधार्थियों की स्थिति प्रायः नगण्य है। यहाँ पंडित सुखलाल जी, पं० दलसुख भाई, पं० दरबारीलाल कोठिया जैसे जैन व्यक्तित्व रहे हैं। यहीं कला संकाय में संस्कृत, कल्चर तथा दर्शन विभाग हैं जिनमें भी शोध कार्य हुए हैं। राम मनोहर लोहिया वि०वि०, फैजाबाद में ऋषभदेव शोधपीठ की स्थापना हुयी है किन्तु वहाँ जैन विद्या के अध्ययन एवं शोध की जैसी स्थिति है वह एक चिन्ता का विषय है । जय नारायण व्यास जोधपुर विश्वविद्यालय में भी संस्कृत विभाग में जैन विद्या का अध्ययन हो रहा है। स्वस्ति श्री चारुकीर्ति जी महाराज के सौजन्य से अभी कुछ समय पूर्व बाहुबली प्राकृत विद्यापीठ की श्रवणबेल गोला (कर्नाटक) में स्थापना हुई है। इससे बड़ी आशाएँ हैं। नागपुर विश्वविद्यालय के पालि- प्राकृत विभाग में पूर्व में प्रो० हीरालाल जी, प्रो० भागचन्द जी जैन आदि विद्वानों ने अनेक स्तरीय कार्य किये किन्तु वर्तमान में यहाँ प्राकृत के छात्रों और शोधार्थियों का प्रायः अभाव ही देखा जा रहा है। इसी प्रकार गुजरात वि०वि० के प्राकृत विभाग में भी पूर्व में कुछ शोध कार्य हुए जिनमें प्रो० के० आर० चन्द्रा का योगदान उल्लेखनीय रहा किन्तु आज उस विभाग में शोध की क्या स्थिति है, यह ज्ञात नहीं है, किन्तु यहाँ अपेक्षायें की जा सकती हैं। इसी प्रकार धारवाड़ के कर्नाटक वि०वि० में जैन विद्या विभाग है किन्तु वह अभी पूर्ण आकार ले पाया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी क्रम में जयपुर का जैन अनुशीलन केन्द्र डॉ० पी०सी० जैन के नेतृत्व में कार्यरत है। यहाँ से कई शोध छात्र Ph.D. उपाधि प्राप्त कर चुके हैं तथा कुछ अभी भी कर रहे हैं। यहाँ अब प्रो. पी. सी. जैन सेवानिवृत्त हो गए हैं, नई नियुक्ति नहीं हुई है। इसके अतिरिक्त यद्यपि सागर विश्वविद्यालय में जैन विद्या का स्वतन्त्र Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : १९ विभाग नहीं है किन्तु वहाँ पर संस्कृत एवं दर्शन विभाग के अन्तर्गत जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ शोध कार्य अवश्य हुए हैं। जहाँ तक मुझे डॉ० कपूर चन्द जैन की प्राकृत एवं जैन विद्या शोधसन्दर्भ से जानकारी प्राप्त है इस देश में व विदेशों में लगभग १००० से अधिक जैन विद्या से सम्बन्धित शोध-कार्य हुए हैं। ये सभी स्तरीय हैं, ऐसा तो मैं नहीं कह सकता किन्तु उनमें से अनेक शोध-ग्रन्थ निश्चित ही महत्त्वपूर्ण हैं। एक सुव्यवस्थित केन्द्रीय संस्था के माध्यम से सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना बनाई जानी चाहिए। (४) शोध ग्रन्थालय शोध संस्थाओं के सबसे महत्त्वपूर्ण साधन पुस्तकालय और हस्तप्रतों के भण्डार होते हैं। देश में आज जैसलमेर, बीकानेर, पाटन, कोबा, अहमदाबाद मूडबिद्री आदि में हस्तप्रतों के अच्छे संग्रह हैं, किन्तु जैसलमेर, पाटण आदि कुछ स्थलों के कैटलागों को छोड़कर अधिकांश स्थलों के कैटलाग भी प्रकाशित नहीं हैं। इनके अतिरिक्त देश में उदयपुर, जयपुर, दिल्ली, उज्जैन आदि में तथा देश के अनेक जैन मंदिरों, स्थानकों एवं निजी संग्रहों में लगभग हस्तप्रतों का अच्छा संग्रह है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में पच्चीस लाख से अधिक हस्तप्रतें हैं। इनमें अनेक अनुपलब्ध और अज्ञात जैन रचनाएँ उपलब्ध हो सकती हैं, यदि आज व्यापक स्तर पर इनका सर्वेक्षण किया जाए। यद्यपि केन्द्रीय शासन ने कुछ सर्वेक्षण अवश्य करवाये हैं, किन्तु इन सबके आधार पर जैन ग्रन्थों को खोजने, प्रकाशित करने में जैन समाज की कितनी रुचि है, यह विचारणीय है। जैन विद्या के क्षेत्र में शोध-कार्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण साधन पुस्तकालय होते हैं। शोध से सम्बन्धित पुस्तकालयों में विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय, जैन शोध संस्थानों के पुस्तकालय और कुछ निजी एवं संस्थागत पुस्तकालय उपलब्ध हैं। जहाँ तक विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों का प्रश्न है, उन्हें जैन विद्या के शोध-संदर्भ में समृद्ध पुस्तकालय के रूप में नहीं माना जा सकता है। देश में आजादी के पश्चात् जो अनेक विश्वविद्यालय खुले हैं उनमें भी जैन विद्या से सम्बन्धित ग्रन्थ नगण्यवत् ही हैं। कुछ प्राचीन विश्वविद्यालयों में जिनमें प्राचीन भारतीय इतिहास, प्राकृत और दर्शन के अध्यापन की व्यवस्थाएँ रही हैं, वहाँ के पुस्तकालयों में जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थ अवश्य उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु वर्तमान में विशेष रूप से उत्तर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० भारत में विश्वविद्यालयों के केन्द्रीय पुस्तकालयों की स्थिति एवं व्यवस्थाएँ ऐसी नहीं हैं जिनके आधार पर जैन विद्या के स्तरीय शोध का कार्य सम्पन्न हो सके। जहाँ तक जैन विद्या से सम्बन्धित शोध-संस्थानों का प्रश्न है निश्चय ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, लालभाई दलपतभाई इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद; भोगीलाल लहेरचंद विद्या मंदिर, दिल्ली; जैन विश्व भारती, लाडनूं, कुन्दकुन्द विद्यापीठ नई दिल्ली, वर्णी शोध-संस्थान, वाराणसी आदि के ग्रन्थालय किसी सीमा तक सक्षम माने जा सकते हैं। वर्तमान में कैलाशसागर सूरि ज्ञान भंडार, कोबा को भी शोध हेतु एक समृद्ध पुस्तकालय के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अधिकांश पुस्तकालयों में या तो उनकी स्थापना के पूर्व प्रकाशित साहित्य का अभाव है या फिर वर्तमान में प्रकाशित होने वाले साहित्य का सम्यक रूप से क्रय न होने के कारण भी वे पुस्तकालय सम्पूर्ण नहीं कहे जा सकते। लालभाई दलपत भाई भारतीय विद्या मंदिर, अहमदाबाद; कैलाश सागर ज्ञान भंडार, कोबा; भोगीलाल लहेरचंद विद्या मंदिर दिल्ली आदि में प्राचीन हस्तप्रतें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार वैयक्तिक एवं संस्थागत संग्रहालयों जैसे- अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर; जैन ज्ञान भंडार जैसलमेर; हेमचन्द्र ज्ञान भंडार, पाटन, तथा आगम संस्थान, उदयपुर तथा खम्भात, बीकानेर, आदि में भी हस्तप्रतों की पर्याप्त सख्या है, किन्तु जैसलमेर, पाटन आदि को छोड़कर कहीं भी व्यवस्थित रूप से सूचीकरण और यथास्थान हस्तप्रतों की उपलब्धता नहीं होने से उनका उपयोग कर पाना अतिकठिन है। जैन विद्या से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थालयों में पुस्तकें तो हैं किंतु उनका व्यवस्थित सूचीकरण और कार्ड-सिस्टम नहीं होने से शोधार्थियों को पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूसरे, कोबा को छोड़कर जैन विद्या से सम्बन्धित शोध संस्थानों और पुस्तकालयों में पुस्तकों का सूचीकरण कम्प्यूटर पर नहीं होने से ग्रन्थ नाम, लेखक नाम, प्रकाशक नाम तथा विषय नाम के आधार पर पुस्तकों को देखने की व्यवस्था नहीं है। अब तो हम सी०डी० और इन्टरनेट के युग में प्रवेश कर चुके हैं। यदि सम्यक् प्रकार से विभिन्न पुस्तकालयों के ग्रन्थों का सूचीकरण हो जाये तो इंटरनेट के आधार पर कोई भी पुस्तक देश के किसी भी कोने में या किसी भी पुस्तकालय में हो, उसकी जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार यदि जैन विद्या के क्षेत्र में शोध को स्तरीय बनाना है, तो हमें युग के अनुरूप अपनी व्यवस्थाओं को सम्यक् स्वरूप देना होगा। यद्यपि जब तक इस दिशा में संयुक्त प्रयत्न नहीं होगा तब तक यह कार्य भी संभव Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : २१ नहीं होगा। (५) शोधार्थियों की स्थिति शोध के क्षेत्र में दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण कठिनाई यह है कि जैन धर्म दर्शन पर कार्य करने वाले अधिकांश छात्र प्राकृत या संस्कृत भाषा से परिचित नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में वे द्वितीयिक संदर्भो से ही अपना काम चलाते हैं जबकि स्तरीय शोध के लिए संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का अध्ययन आवश्यक है। अधिकांश जैन साहित्य इन्हीं भाषाओं में लिखा गया है। दूसरे, जो लोग जैन धर्म दर्शन के क्षेत्र में तुलनात्मक दृष्टि से शोधकार्य करना चाहते हैं उनके लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है क्योंकि पाश्चात्य धर्म-दर्शन और विश्वसाहित्य के अधिकतर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ आज अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान का अभाव विश्वसाहित्य और समकालीन शोध प्रवृत्तियों को समझने में बाधक है। इसी प्रकार जो जैन दर्शन को विज्ञान के संदर्भ में समझना चाहते हैं उनके लिए जहाँ एक ओर आधुनिक विज्ञान का सम्यक् अध्ययन आवश्यक है वहीं दूसरी ओर जैन धर्म-दर्शन के मूल ग्रन्थों का अध्ययन भी आवश्यक है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज जो जैन विद्या के मूल ग्रन्थों के गहन अध्येता हैं वे समकालीन ज्ञान की इन विधाओं से अपरिचित हैं तो दूसरी ओर जो लोग समकालीन विज्ञान से परिचित हैं, वे मूल ग्रन्थों से अपरिचित हैं। इस क्षेत्र में दूसरी कठिनाई यह है कि कभी-कभी हमारे धार्मिक विश्वास भी इस अध्ययन में बाधक बनते हैं। इस संदर्भ में मेरा दृष्टिकोण यह है कि जो तथ्य आधुनिक विज्ञान के द्वारा सिद्ध हो चुके हैं और जो जैन दर्शन में पूर्व से उपस्थित हैं, उनका तुलनात्मक अध्ययन कर हमें उन्हें प्रकाश में लाना चाहिए। साथ ही जिनके विज्ञान सम्मत विधि से सिद्धि की सम्भावना हो उन पर शोध करना चाहिए और जिनका विज्ञान सम्मत विधि से सिद्ध होना कठिन है, उन्हें परम्परागत मान्यता के रूप में स्वीकार कर उन पर बल नहीं देना चाहिए। (६) योग्य मार्ग-दर्शकों की समस्या आज जो भी सक्रिय शोध संस्थान हैं, उनमें कुछ को छोड़कर प्राय: सभी में जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वानों का अभाव है। मार्गदर्शक के लिए यह आवश्यक है कि एक ओर वह जैन विद्या के सभी पक्षों का तथा उनके मूल ग्रन्थों का ज्ञाता हो, दूसरी ओर अन्य परम्पराओं के धर्म-दर्शन, इतिहास आदि का भी ज्ञाता हो। आज ऐसे विद्वानों का प्रायः अभाव है। आज पं० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० सुखलालजी या ए०एन० उपाध्ये जैसे विद्वान् कहाँ हैं? जो कुछ विद्वान् विश्वविद्यालयों के जैन दर्शन या प्राकृत विभाग में हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर, वे व्यापक एवं तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता को पूरा नहीं करते हैं। अब पं० सुखलाल जी या पं० नाथूराम जी प्रेमी, प्रो. एस० मुखर्जी, टाटिया जी, उपाध्ये जी वाली पीढ़ी समाप्त हो गई है, उसके बाद पं० कैलाशचंद जी आदि की पीढ़ी भी नहीं रही। आज जो आठ-दस स्तरीय विद्वान् हैं वे भी जीवन के अन्तिम चरण में हैं। नयी पौध से ही हम सभी को उपर्युक्त आवश्यकता पूरी करनी होगी। किन्तु इसके लिए तो त्याग और समर्पण अपेक्षित है। आज प्रतिभाएं तो अवश्य हैं, उनकी कमी नहीं है- किन्तु उनका विनियोग इस दिशा में कैसे हो? यह विचारणीय है। ___ अन्य परम्परा के जो विद्वान् जैन संस्थानों में कार्यरत हैं, वे मूलत: अपनी आजीविका के कारण जुड़े हुए हैं। चूँकि कोई भी जैन संस्थान अपने कर्मचारियों / विद्वानों को मानक के अनुसार वेतन देने में समर्थ नहीं है अत: उन अजैन विद्वानों में अधिकांश तो अल्प वेतनभोगी होते हैं, अत: भविष्य की असुरक्षा के कारण उनमें विषय के प्रति निष्ठा का प्रायः अभाव होता है। यह एक कटु सत्य है कि जैन विद्या के संस्थानों के व्यवस्थापक गण चाटुकार या भविष्य के सुनहले सपने दिखाने वाले या जोड़-तोड़ करने में समर्थ लोगों के चक्कर में आ जाते हैं और बाद में पछताते हैं। ___जो जैन विद्वान् इन संस्थानों से जुड़े हैं, उनमें भी जो जिस परम्परा से हैं, वे उसी परम्परा के ग्रन्थों के विशेष ज्ञाता होते हैं। अन्य परम्परा के ग्रन्थों की अध्ययनवृत्ति प्रायः नहीं होती है, अत: उनमें सम्प्रदाय निरपेक्ष तुलनात्मक या समीक्षात्मक दृष्टि का अभाव होता है, इस स्थिति में शोधकार्य साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त नहीं होता। अधिकांश मूलग्रन्थ या तो अप्रकाशित हैं और जो प्रकाशित हुये भी हैं उनमें भी अधिकांश आज न बाजार में उपलब्ध हैं और न पुस्तकालयों में ही। कहीं-कहीं वैयक्तिक संग्रह में हैं भी तो शोधार्थी को उनका पता नहीं चलता है। जिन व्यावसायिक पुस्तक प्रकाशकों ने मूलग्रन्थों या उनके द्वितीय संस्करणों का प्रकाशन किया है उनके मूल्य इतने अधिक हैं कि सामान्य अध्येता क्रय करने में कठिनाई अनुभव करता है। कुछ स्तरीय ग्रन्थ विदशों में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुये हैं किन्तु उनका डालर या पौण्ड का मूल्य इतना है कि सामान्य व्यक्ति तो क्या, शोध संस्थानों को भी उसे खरीदने Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या के शोध-अध्ययन तथा शोध केन्द्र :एक समीक्षा : २३ हेतु विचार करना पड़ता है। समाज में मूलग्रन्थ एवं शोध में सहायक ग्रन्थों के प्रकाशन हेतु गीता प्रेस, गोरखपुर के समान एक भी ऐसा संस्थान नहीं है, जो मौलिक ग्रन्थों एवं उनके अनुवादों को प्रकाशित कर सस्ते मूल्य पर बेचे। कुछ साधुओं के प्रवचन या छोटे-मोटे कुछ ग्रन्थ अवश्य ही अल्पमूल्य पर उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे शोध के लिए अनुपयुक्त हैं। यह संतोष का विषय है कि कुछ मूल ग्रन्थों का प्रकाशन दिव्य दर्शन ट्रस्ट आदि के द्वारा गुजराती अनुवाद के साथ हुआ है, किन्तु हिन्दीभाषी जनता उनके लाभ से वंचित ही रहती है। प्राय: गुजरात के शोध-छात्र हिन्दी से और अधिकांश हिन्दी भाषी शोधछात्र गजराती से अपरिचित रहते हैं। अत: उन अनुवादों का लाभ भी नहीं उठा पाते हैं। डिग्री प्राप्ति का लक्ष्य होने से शोध-छात्र अधिक श्रम नहीं करना चाहते हैं और उनके मार्गदर्शक भी परिश्रम से बचने हेतु छात्र को गहराई में जाकर तुलना करने या समीक्षा करने हेतु विवश नहीं करते हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान (तृतीय शताब्दी ई. पू. से सातवीं शताब्दी तक) ऋचा सिंह [प्राचीन भारतीय साहित्य में पश्चिम भारत को प्रायः अपरन्त या अपरान्त के नाम से जाना जाता था। यद्यपि उसकी सीमा सर्वथा अनिश्चित थी। ग्रन्थों में हमें महरट्ठ एवं गुर्जर शब्द भी प्राप्त होता है जिसका सम्बन्य निश्चित रूप से महाराष्ट्र एवं गुजरात से था, परन्तु इनकी भी राजनीतिक सीमा का निर्धारण नहीं किया जा सकता क्योंकि वे हमेशा घटती-बढ़ती रहती थीं। यहाँ पश्चिम भारत से तात्पर्य भारत के पश्चिमी भाग में स्थित वर्तमान मुख्य तीन प्रदेशों-राजस्थान, गुजरात एवं महाराष्ट्र से है। (इन प्रदेशों का सृजन एवं इनकी राजनीतिक सीमा का निर्धारण २०वीं शताब्दी के छठे दशक में किया गया)। यहाँ अवलोकनीय है कि इन प्रदेशों में जैन धर्म ईसा पूर्व की प्रारम्भिक शताब्दी में ही पहुँच गया था। अनुकूल परिस्थितियों के कारण जैन धर्म यहाँ निरन्तर पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में उसने अपना महत् योगदान दिया। प्रस्तुत शोध-लेख में इन तीनों प्रदेशों के जैनाचार्यों द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी तक के साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है।] साहित्य के क्षेत्र में जैन आचार्यों का योगदान अतीव प्रशंसनीय रहा है। प्राचीनकाल से ही उन्होंने विद्या के क्षेत्र में अपनी लेखनी चलाई और उसमें प्रवीणता प्राप्त की। हमें अंग-उपांग-प्रकीर्णक-नियुक्ति-भाष्य एवं चूर्णि के रूप में एक विशाल साहित्य प्राप्त होता है। यद्यपि जैन ग्रन्थों में इसके 'पूर्व' के भी साहित्य का वर्णन प्राप्त होता है और उन्हें इसी कारण 'पुव्व' या 'पूर्व' साहित्य कहा गया और यह माना गया कि महावीर के पूर्व भी इनका अस्तित्व था और उसमें महावीर के पूर्व के तीर्थंकरों के उपदेश थे। जैन ग्रन्थों के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु प्रथम (जिनको सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का समकालीन माना जाता है) अन्तिम चतुर्दश पूर्वधारी थे। उनके शिष्य स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान तो था, परन्तु वे उनमें से केवल १० पूर्वो की ही अर्थ-सहित व्याख्या कर सकते थे, और * शोध छात्रा—प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, का.हि.वि.वि.। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : २५ चार पूर्वों की बिना अर्थ की । इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा मानती है कि चौदह पूर्वों का ज्ञान स्थूलभद्र तक था जिन्होंने नेपाल में अपने गुरु भद्रबाहु (भद्रबाहु प्रथम) से यह ज्ञान प्राप्त किया था। दिगम्बर परम्परा का विश्वास है कि चौदह पूर्वों के ज्ञान की यह अक्षुण्ण धारा भद्रबाहु के समय ही समाप्त हो गई थी। इस परम्परा के अनुसार भद्रबाहु के समय १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा था। भद्रबाहु सहित सभी भिक्षु दक्षिण भारत चले गये। वहीं भद्रबाहु की मृत्यु हो गयी और उनकी मृत्यु के साथ ही ज्ञान की यह धारा भी समाप्त हो गई। समय के झंझावात में पूर्व - ज्ञान की यह धारा भले ही क्षीण हो गई । पर सर्वथा समाप्त नहीं हुई और अनुकूल समय आते ही प्रज्ञा सम्पन्न आचार्यों ने ज्ञान की इस धारा को अक्षुण्ण रखने का भरपूर प्रयत्न किया और इस सत्प्रयास में प्रशंसनीय सफलता भी प्राप्त की। इनमें गणधरों का योगदान सर्वाधिक है। इसीलिए आगम ग्रन्थों को गणिपिटक भी कहा गया। महावीर के ग्यारह गणधर थे। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर की मृत्यु के पूर्व ही सुधर्मा एवं इन्द्रभूति गौतम को छोड़कर शेष गणधरों की मृत्यु हो चुकी थी। अतः श्वेताम्बर परम्परा महावीर के बाद सुधर्मा को महावीर के सारे उपदेशों के संकलन का श्रेय देती है जबकि दिगम्बर परम्परा महावीर की मृत्यु के बाद प्रधान गणधर इन्द्रभूति को उनका उत्तराधिकारी मानती है। जैन श्वेताम्बर अंग ग्रन्थों में सुधर्मा और उनके प्रधान शिष्य आचार्य जम्बू के मध्य वार्तालाप वर्णित है। सामान्य रूप में श्वेताम्बर परम्परा में १२ अंग, (ग्यारह अंग प्रचलन में तथा बारहवाँ अंग दृष्टिवाद को नष्ट माना जाता है), १२ उपांग (एक उपांग वृष्णिदशा समाप्त हो गया), दस प्रकीर्णक, छः छेदसूत्र, चार मूलसूत्र एवं दो चूलिकासूत्र मान्य हैं। समय के अन्तराल के साथ आगमों की यह संख्या बढ़ती गई और यह ८५ तक पहुँच गई, किन्तु सामान्य तौर पर यह संख्या श्वेताम्बरों के मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ४५, स्थानकवासी और तेरापन्थ सम्प्रदाय में ३२ तथा दिगम्बर परम्परा में यह संख्या २६ तक सीमित है। यहाँ १२ अंग प्रविष्ट और १४ अंग बाह्य माने गये हैं जो अनुपलब्ध हैं। ३ अपने विवेच्यकाल में पश्चिम भारत में भी जैनाचार्यों का इस साहित्य के संरक्षण एवं परिरक्षण में अप्रतिम योगदान रहा है। जैसाकि सर्वविदित है जैनाचार्यों ने तीर्थंकरों के उपदेशों को सुरक्षित रखने के लिए कई वाचनायें कीं। श्वेताम्बर मान्यतानुसार ऐसी तीन प्रमुख वाचनाओं में पहली वाचना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० पाटलिपुत्र में हुई जो महावीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में मानी जाती है। यह मौर्य साम्राज्य की स्थापना. के प्रारम्भिक वर्षों का काल था जब जैनसंघ के आचार्य पद पर आचार्य भद्रबाहु सुशोभित थे। श्वेताम्बर परम्परा मानती है कि १२ वर्ष के भयंकर दुष्काल के बाद यहाँ श्रमण संघ एकत्रित हुआ और अंग, उपांग आदि में जिसे जो याद थे, उन सबका संकलन किया गया। इस वाचना के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा ऐसी किसी भी वाचना का निषेध करती है और यह मानती है कि भयंकर दुष्काल के कारण श्रुत परम्परा सर्वथा विनष्ट हो गई थी। ___ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दूसरी वाचना वीर निर्माण की ९वीं शताब्दी में आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में हई। मथुरा में आयोजित होने के कारण इसे माथुरी वाचना के नाम से भी जाना जाता है। कथावली नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि माथुरी वाचना के समय वर्तमान गुजरात के वलभी नगर में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में एक अन्य वाचना हुई। इसे नागार्जुनीय वाचना भी कहते हैं। इसके उपरान्त सबसे महत्त्वपूर्ण तीसरी वाचना महावीर निर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् पुनः वलभी में हुई। इसकी अध्यक्षता प्रख्यात आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने की थी। आचार्य ने सभी संघों को एकत्रित कर तत्कालीन समय में उपलब्ध सभी पाठों को पुस्तकबद्ध किया। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने किसी प्रकार की नई वाचना का प्रवर्तन नहीं किया अपितु जो श्रुतपाठ पहले की वाचनाओं में निश्चित हो चुका था उसी को एकत्र कर व्यवस्थित रूप से संग्रहीत किया।" इस प्रकार हम देखते हैं कि पश्चिम भारत के जैन आचार्यों का साहित्य को संरक्षण प्रदान करने में महत् योगदान था। वलभी के जैनाचार्यों ने दोदो वाचनायें कर ग्रन्थों को अमर कर दिया। अपने इस प्रशंसनीय कार्य के कारण देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण सदैव याद रखे जायेंगे। इस महान् आचार्य के प्रारम्भिक जीवन के विषय में बहुत कम ज्ञात है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आचार्य देवर्द्धिगणि काश्यप गोत्र के थे। लोकानुश्रुति के आधार पर उनकी जन्मभूमि सौराष्ट्र मानी जाती है। यह कहा जाता है कि वे सौराष्ट्र नरेश अरिमर्दन के मंत्री कामार्द्धि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम कलावती था। माता ने गर्भकाल में ऋद्धि सम्पन्न देव को स्वप्न में देखा था। पुत्र उत्पन्न होने पर उसी स्वप्न के आधार पर उनका नाम देवर्द्धि रखा गया। जैसाकि कहा गया है कि वलभी नगर में आयोजित इस तृतीय वाचना के वे ही Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : २७ अध्यक्ष थे। इसका समय कहीं वीर निर्वाण ९८० और कहीं ९९३ बताया गया है' अर्थात् ५१२ ई. अथवा ५२५ ई. में यह महान् कार्य सम्पन्न हुआ था। सम्भवतया यह तीसरी वाचना वलभी के मैत्रक राजवंश के राजा ध्रुवसेन के काल में हुई। यहाँ द्रष्टव्य है कि किसी भी जैन साक्ष्य में ध्रुवसेन अथवा मैत्रक वंश के न तो किसी नरेश का नामोल्लेख है और न ही मैत्रक राजवंश के किसी साक्ष्य में इस वाचना अथवा जैन धर्म के प्रति उनके अनुराग का कोई उल्लेख है, परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य हमें इसी काल में वाचना आयोजित होने की ओर संकेत करते हैं। देवर्द्धिगणि का यह कार्य अत्यन्त वैज्ञानिक था। वे पूर्व में हुई वाचनाओं से परिचित थे। अपने काल से कुछ ही समय पूर्व हुई नागार्जुनीय एवं स्कन्दलीय वाचना की कमियाँ उन्हें ज्ञात थीं। दोनों के पाठ भेद में समानता नहीं थी। चूँकि दोनों आचार्यों का प्रत्यक्ष मिलन नहीं हो पाया था, अतः इन दोनों वाचनाओं में भी कुछ भेद स्थायी रूप से रह गया था। कथावली में दोनों वाचनाओं के मतभेद स्पष्ट रूप से वर्णित हैं। देवर्द्धिगणि ने वैज्ञानिक पद्धति को प्रश्रय दिया। उन्होंने वाचनाकार आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता प्रदान की तथा नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर दोनों को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया और जैन संघ को एक और विघटन से बचा लिया। नन्दीसूत्र इनकी ही रचना मानी जाती है।" १० पश्चिम भारत के जैन आचार्यों की श्रेष्ठ परम्परा में आचार्य मल्लवादी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनके भी प्रारम्भिक जीवन के बारे में अत्यल्प ज्ञान है। बचपन से ही बहुत तेजस्वी थे। प्रभावकचरित एवं प्रबन्धकोश से इनके बाल्य जीवन पर किंचित् प्रकाश पड़ता है। प्रभावकचरित में इनकी जन्मभूमि वलभी बताई गई है। १° इसी प्रकार यदि प्रबन्धकोश के सन्दर्भों पर विश्वास किया जाए तो उनकी माता दुर्लभदेवी वलभी नरेश शिलादित्य की भगिनी थी११ और इस प्रकार मल्लवादी क्षत्रिय कुल के ठहरते हैं। यद्यपि इन सन्दर्भों को पुष्ट करने के लिए हमारे पास कोई और साक्ष्य नहीं है। किन्तु ऐसा कहा जाता है कि भृगुकच्छ में उनके गुरु को जो उनके मामा भी थे, नन्द नामक एक बौद्ध आचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। १२ अपने गुरु के पराभव का बदला लेने के लिए मल्लवादी स्वयं भृगुकच्छ गये और उस बौद्ध भिक्षु को पराजित किया। यह शास्त्रार्थ छः महीनों तक चलता रहा। अन्त में विजयश्री मल्ल को मिली। इस विजय के उपलक्ष्य में उनको वादी की Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० उपाधि दी गई। और वे मल्लवादी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ___आचार्य मल्लवादी एक महान् साहित्यकार थे। उनके द्वारा रचित तीन ग्रन्थों की सूचना मिलती है।१३ १. द्वादशारनयचक्र, २. पद्मचरित, ३. सन्मति तर्क टीका। द्वादशारनयचक्र न्याय विषय का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में चक्र के बारह आरों के समान बारह अध्याय थे परन्तु दुर्भाग्यवश वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। बताया जाता है कि तेरहवीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्र तक यह ग्रन्थ विद्यमान था। प्रभावकचरित में प्रशंसापूर्वक यह कहा गया है कि प्रतिवाद रूपी गजकुम्भ को भेदने में केसरी तुल्य इस ग्रन्थ का वाचन मल्लवादी ने अपने शिष्य समुदाय के सम्मुख किया।१४ उनके द्वारा रचित पद्मचरित में राम के गुणों का वर्णन किया गया था। यह ग्रन्थ भी वर्तमान में नहीं मिलता। मल्लवादी का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ सन्मतितर्क टीका थी। वर्तमान में यह ग्रन्थ भी अप्राप्य है। यह प्रसिद्ध कृति आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर मल्लवादी की टीका थी। इस टीका के कुछ उद्धरण कालान्तर के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। उदाहरणस्वरूप आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ अनेकान्तजयपताका में मल्लवादी के इस ग्रन्थ से कई उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। आचार्य हरिभद्र के इस उद्धरण से मल्लवादी की तिथि-निर्धारण में सहायता मिलती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मल्लवादी हरिभद्र के पहले विद्यमान थे। इसके अतिरिक्त प्रभाचन्द्राचार्य ने प्रभावकचरित में मल्लवादी के साथ बौद्धों के शास्त्रार्थ की तिथि दी है जो५ वीर निर्वाण संवत् ८८४ अर्थात् वि.सं. ४१४ (४७१ई.) से समीकृत की जा सकती है। पश्चिम भारत के जैन आचार्यों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अपने साहित्यिक अवदानों के कारण वे जैन परम्परा में अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं। इनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें अल्प ज्ञान है परन्तु कालान्तर में जैन आचार्यों ने उनके महत्त्वपूर्ण कार्य को देखते हुए उन्हें आचार्य परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। इनका जन्म स्थान कहाँ था, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं हैं परन्तु इनका वलभी से घनिष्ठ सम्बन्ध था, यह अवश्यमेव प्रमाणित होता है। उनके द्वारा कृत विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति जिसमें शक सम्वत् ५३१ (६०९ ई.) उल्लिखित है,१६ वलभी के एक जैन मन्दिर में समर्पित की गई थी। इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट हैं कि जिनभद्रगणि इसके पहले के थे। प्रसिद्ध कलाविद् प्रो. उमाकान्त शाह को अकोटा ग्राम से दो प्रतिमाएँ मिली हैं। उन्होंने प्रतिमाओं के लेखों में उत्कीर्ण आचार्य जिनभद्र को Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : २९ विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण से समीकृत किया है।१७ प्रो. शाह ने प्रतिमाओं के आधार पर इनका काल ५५० से ६०० ई. के मध्य रखा है। उत्कीर्ण लेखों के अनुसार वह निवृत्ति कुल से सम्बन्धित थे तथा यह भी स्पष्ट होता है कि उनका एक नाम वाचनाचार्य भी था। कहा जाता है कि इन्होंने सुारक (आधुनिक सोपारा) नगर के एक सेठ के चारों पुत्रों को दीक्षा प्रदान की थी। कालान्तर में इनके नाम से भिन्न-भिन्न चार प्रकार की शाखाएँ उद्भूत हुईं और उन्हीं कुलों के नाम पर उनकी प्रसिद्धि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक भाष्यकार के रूप में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। आगमों के व्याख्या-ग्रन्थों में नियुक्ति के बाद भाष्य एवं चूर्णि का स्थान आता है। नियुक्तियाँ गूढ़ होती हैं और उनके अर्थ सांकेतिक भाषा में होने के कारण दुर्बोध होते हैं। इन नियुक्तियों को समझने के लिए भाष्य का सहारा लेना पड़ता है। बिना भाष्य के इनके अर्थों को समझना असम्भव है। आचार्य के द्वारा रचित ग्रन्थ निम्न हैं१८ १. विशेषावश्यक भाष्य, २. विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, ३. बृहत्संग्रहणी, ४. वृहत्क्षेत्र समास, ५. विशेषणवती, ६. जीतकल्प, ७. जीतकल्पभाष्य, ८. अनुयोगद्वारचूर्णि, ९. ध्यानशतक। इन ग्रन्थों में अनुयोगद्वारचूर्णि गद्यात्मक है, शेष रचनायें पद्मात्मक हैं। इसी प्रकार विशेषावश्यक भाष्य पर स्वोपज्ञवृत्ति संस्कृत में है जबकि शेष रचनाएं प्राकृत में निबद्ध हैं। ध्यानशतक के बारे में विद्वानों में सन्देह है कि यह उनकी रचना है या नहीं। विशेषावश्यक भाष्य१९ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। यह एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन आगमों में वर्णित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है। इसमें जैन तत्त्वों का निरूपण अन्य दर्शनों की तुलना के साथ प्रस्तुत है जिससे इसकी उपयोगिता और बढ़ जाती है। इसमें गणधरवाद का पूरा विवेचन मिलता है। हम जानते हैं कि आवश्यकनियुक्ति में सात निह्नवों की चर्चा की गयी है। इस भाष्य में आठवें निह्नव बोटिक की भी चर्चा है। इन्हीं बोटिकों को कई विद्वानों ने दिगम्बर सम्प्रदाय से समीकृत किया है। इसी प्रकार जीतकल्पभाष्य में २६०६ गाथायें हैं। भाष्यकर्ता ने साधुसाध्वियों के प्रायश्चित-विधि का विस्तार से उल्लेख किया है। इसी प्रकार जीतकल्प भाष्य आचार्य जिनभद्र की अपनी ही कृति जीतकल्पसूत्र पर लिखा हुआ भाष्य है। इसमें उनके द्वारा लिखित व्यवहार भाष्य, पंचकल्प महाभाष्य Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० आदि ग्रन्थों की अनेक गाथायें अक्षरश: उद्धृत हैं। इस कारण अनेक विद्वानों ने इसे संग्रह ग्रन्थ माना है। इसमें मुख्य रूप से प्रायश्चित्त के विधि-विधान की चर्चा है। इसमें जिनभद्रगणि ने आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जित इन पाँच प्रकार के व्यवहारों का विस्तार से विवेचन किया है। सारांश में आचार चारित्र की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का व्यवहार अनिवार्य माना है। ___ इनके द्वारा रचित तीसरा भाष्य वृहत्कल्प लघु भाष्य है जो छेदसूत्र बृहत्कल्प के मूल सूत्रों पर आधारित है।२० जैन धर्म एवं संस्कृति को समझने के लिए इस भाष्य का विशेष महत्त्व है। इससे प्रथम बार जैन धर्म की संगठनात्मक व्यवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। इसमें जैन श्रमणों के पाँच प्रकार-आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक तथा भिक्षुणियों के पाँच प्रकार-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा और क्षुल्लिका बताया गया है। इस ग्रन्थ में भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए उचित एवं अनुचित उपाश्रय, भिक्षुभिक्षुणियों के विहार का उपयुक्त काल एवं स्थान, रात्रि भोजन का निषेध आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में 'बृहत्कल्प लघुभाष्य' का जैन साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें भाष्यकार के समय की एवं अन्य समकालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली सामग्री की प्रचुरता का दर्शन होता है। इनके द्वारा अन्य रचित ग्रन्थ बृहत्कल्पभाष्य अपूर्ण ही प्राप्त होता है। इसमें बृहत्कल्प लघुभाष्य में प्रतिपादित विषयों का ही विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। __व्यवहारभाष्य उनके द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण भाष्य है। यह भाष्य भी भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार-व्यवहार से सम्बन्धित है। इसमें भी बृहत्कल्पलघुभाष्य के ही समान आचार-व्यवहार एवं प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया है। इस भाष्य में आचार-नियमों के अतिरिक्त आचार्य जिनभद्र ने कुछ भारतीय प्रान्तों के देश स्वभाव की भी चर्चा की है। उन्होंने माना है कि कुछ साधुसाध्वी अपने देश स्वभाव से ही अनेक दोषों से युक्त होते हैं। उनके अनुसार आन्ध्र में उत्पन्न हुआ हो और अक्रूर हो, महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो और अवाचाल हो, कोसल में पैदा हुआ हो और अदुष्ट हो, ऐसा १०० में से एक भी मिलना मुश्किल है। इसी प्रकार उनके द्वारा रचित ओघनियुक्ति भाष्य और पिण्डनियुक्ति भाष्य में क्रमश: वैयावृत्ति, संयम, तप, समिति, भावना एवं पिण्ड सम्बन्धी विषयों Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३१ पर विशेष प्रकाश डाला गया है। इनका सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पंचकल्प महाभाष्य पंचकल्पनियुक्ति के व्याख्यान के रूप में है। इसमें उन्होंने विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है कि किस प्रकार के व्यक्तियों को प्रवज्या देनी चाहिए और किस प्रकार के व्यक्ति प्रवज्या के अयोग्य हैं। इसमें भारत के उन क्षेत्रों की चर्चा है। जिनमें साधु-साध्वियों को भ्रमण करने की सलाह दी गई है और उन्हें आर्य क्षेत्र का बताया गया है। ___ पश्चिम भारत के अन्य प्रतिष्ठित आचार्यों में आचार्य कालक का नाम अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है और उनकी गणना जैन धर्म के प्रभावक आचार्यों में होती है। यहाँ अवलोकनीय है कि जैन परम्परा में एक से अधिक कालक नामधारी आचार्य हुए हैं, अपने विवेच्य काल में जो कालक नामधारी आचार्य हैं वे कालक द्वितीय हैं।२१ अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'सुवर्णभूमि में कालकाचार्य' में उमाकान्त शाह जी ने कालक नामधारी सभी आचार्यों की समीक्षा की है।२२ प्रो. शाह लम्बे तर्क-वितर्कों के बाद इस विचार पर पहुँचते हैं कि कालक ही गर्दभ या गर्दभिल्ल का नाश करने वाले प्रभावक आचार्य थे जिन्होंने प्रथम शताब्दी ई.पू. के आस-पास पश्चिम भारत में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। ऐतिहासिक घटनाओं के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आचार्य कालक की अत्यन्त सुन्दर बहन सरस्वती का अपहरण उज्जयिनी नरेश गर्दभिल्ल ने कर लिया था। उसी को छुड़ाने के लिए आचार्य कालक ने शकों का सहारा लिया था। इन आचार्य कालक का जन्म धारावर्ष में माना जाता है। ये यहाँ के राजा वज्र सिंह और उनकी पत्नी सुरसुन्दरी के पुत्र थे।२३ इन्हें प्रज्ञापनासूत्र नामक उपांग का रचयिता माना जाता है। इनका व्यक्तित्व विराट था। आवश्यकचूर्णि तथा आवश्यक नियुक्ति से ज्ञात होता है कि एक बार जब आचार्य कालक प्रतिष्ठान गये थे उस समय वहाँ जैनियों का प्रसिद्ध त्योहार पर्युषण चल रहा था। पर्युषण पर्व (संवत्सरी) जैन धर्मावलम्बियों द्वारा भाद्रपद शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है। जब आचार्य कालक प्रतिष्ठान गये तो ठीक उसी दिन वहाँ की जनता द्वारा मनाया जाने वाला त्योहार ‘इन्द्रमह' भी पड़ रहा था। सातवाहन राजा की प्रार्थना पर आचार्य कालक ने पञ्चमी के एक दिन पूर्व अर्थात् चतुर्थी को ही पर्युषण पर्व मनाने की आज्ञा प्रदान की जिससे जनता परेशान न हो सके। यहाँ ध्यातव्य है कि ऐसा निर्णय केवल ऐसे प्रभावक आचार्य दे सकते हैं जो युगप्रधान आचार्य एवं श्रुतधर हों।२५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० आचार्य प्रियग्रन्थ राजस्थान के प्रसिद्ध आचार्यों में से एक थे। सम्भवत: ये माध्यमिका अर्थात् वर्तमान चित्तौड़ के रहने वाले थे। कल्पसूत्र की थेरावली में इन्हें माध्यमिका शाखा का प्रवर्तक माना गया है।२६ इससे स्पष्ट है कि ये इसी क्षेत्र के आस-पास के ही रहने वाले थे। इसी ग्रन्थ से ज्ञात होता है ये आचार्य सस्थित सुप्रतिबद्ध के शिष्य थे। जैन ग्रन्थों में आचार्य सस्थित का जन्म वीर निर्वाण २४३ अर्थात् विक्रम पूर्व २२७ बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य प्रियग्रन्थ का समय भी इसी के आस-पास होगा। जैन परम्परा में आचार्य प्रियग्रन्थ को मंत्रविद्या का विशेष ज्ञाता माना जाता है एक बार हिंसा प्रधान यज्ञ को उन्होंने मंत्रविद्या के बल पर रुकवाया और वहाँ उपस्थित लोगों को प्रतिबोध देकर अध्यात्म के अनुकूल बनाया था।२७ __ आचार्य वज्रसेन अपने युग के एक प्रभावशाली आचार्य थे। प्रभावकचरित के अनुसार उनका जन्म महावीर निर्वाण ४९२ अर्थात् लगभग ३५ ई.पू. में हुआ था।२८ उनका जन्म कहाँ हुआ था, यह ज्ञात नहीं है परन्तु उन्होंने सुपरिक (आधुनिक सोपारा) क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाई। वे एक दीर्घजीवी आचार्य थे। वे ९ वर्ष की अवस्था में ही संन्यासी बन गये थे और १२० वर्ष तक श्रमण परम्परा का पालन कर १२८वें वर्ष में मृत्यु को प्राप्त हुए। उनका मुख्य कार्य क्षेत्र सोपारा था।२९ वहाँ उन्होंने श्रेष्ठी जिनदत्त के चार पुत्रों नागेन्द्र, चन्द्र, विद्याधर, निवृत्ति को जैन दीक्षा प्रदान की थी। कालान्तर में चारों पुत्रों के नाम पर चार कुल अर्थात् चार गण स्थापित हए। अर्थात् नागेन्द्र कुल, चन्द्र कुल, विद्याधर कुल और निवृत्ति कुल। इसकी प्रत्येक शाखा में अनेक प्रभावक आचार्य हुए। आचार्य पादलिप्त तीसरी शताब्दी ई. के प्रख्यात जैनाचार्य थे। प्रभावक चरित के अनुसार उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अयोध्या नगर में हुआ था। यद्यपि इनका जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ था किन्तु इनका कार्यक्षेत्र पश्चिम भारत था। वे सातवाहन नरेश हाल के राजदरबार के एक विभूति थे। ये जैन धर्म दर्शन के प्रख्यात पण्डित थे। ये काव्य प्रतिभा के भी धनी थे। आचार्य पादलिप्त का साहित्यिक अवदान अत्यन्त प्रशंसनीय है। वे अपने युग के विश्रुत विद्वान् थे। उनके द्वारा रचित 'तरंगवती' प्राकृत भाषा की एक प्रसिद्ध रचना है।३१ अनेक जैन विद्वानों ने इस कथा का अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। नौवीं शताब्दी के आचार्य शीलांक ने 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' ग्रन्थ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३३ में इसके कला एवं लक्षण शास्त्र की विशेष प्रशंसा की है। इसी प्रकार आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी अपने विशेषावश्यक भाष्य में इसका वासवदत्त कथा के साथ उल्लेख किया है। प्रभावक चरित में इनके अन्य दो ग्रन्थनिर्वाणकलिका और प्रश्नप्रकाश का उल्लेख मिलता है। निर्वाणकलिका में दीक्षा सम्बन्धी नियमों की चर्चा है तथा प्रश्नप्रकाश को ज्योतिष विषयक ग्रन्थ माना गया है। पादलिप्तसूरि की विद्वत्ता एवं सरस कविता की प्रशंसा करते हुए कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरि ने सातवाहन राज हाल की विद्वत्गोष्ठियों में इनको गले के हार के समान सुशोभित बताया है। णिम्मलमणेण गुणगरुयएण परमत्थरयणसारेण । पालित्तएण हालो हारेण व सोहई गोट्ठीसु२२ ।। उद्योतनसूरि की इस प्रशंसा से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य पादलिप्त धर्म दर्शन के ज्ञाता होने के साथ-साथ कवि शिरोमणि भी थे। ___पश्चिम भारत के इन श्रेष्ठ आचार्यों में नियुक्तिकार भद्रबाहु का नाम सर्वोपरि है। श्रुतकेवली भद्रबाहु से अन्तर स्थापित करने के लिए इन्हें भद्रबाहु द्वितीय भी कहा जाता है।३३ प्रबन्धकोश में इन्हें महाराष्ट्र के प्रतिष्ठानपुर का बताया गया है।३४ ये ब्राह्मण धर्मावलम्बी थे और गुप्तकालीन प्रसिद्ध विद्वान् वाराहमिहिर के ज्येष्ठ भ्राता थे। प्रबन्धकोश में विस्तार से बताया गया है कि ये दोनों सहोदर भ्राता निर्धन एवं निराश्रित थे। संसार से विरक्त हो, दोनों भाइयों ने जैन धर्म की दीक्षा ली और दोनों ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित बने। कालान्तर में दोनों भाइयों में विरोध हो गया और दोनों ने अपनी अलगअलग राह पकड़ी। आचार्य भद्रबाहु का नाम वाराहमिहिर के कारण प्रसिद्ध नहीं है अपितु वे अपनी विद्वत्तापूर्ण रचनाओं के कारण अमर हो गये। वे जैनागम के प्रकाण्ड ज्ञाता थे और नियुक्ति साहित्य के रूप में उन्होंने आगमों की सूत्रमयी व्याख्यायें भी की। नियुक्तियाँ आर्या छन्द में रचित पद्ममयी प्राकृत रचनायें हैं। ये नियुक्तियाँ अपनी विविध विषयों के कारण ही नहीं अपितु अपनी सांस्कृतिक सामग्री के लिए भी विख्यात हैं। इन नियुक्तियों का जैन परम्परा में वही स्थान है जो वैदिक परम्परा में निरुक्त का था। आचार्य भद्रबाहु ने स्वयं दस ग्रन्थों पर दस नियुक्तियों की रचना करने का उल्लेख किया है।३५ जिन आगम ग्रन्थों पर उन्होंने नियुक्ति की रचना की, वे निम्न हैं- १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० ४. आचारांग, ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कन्ध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ९. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. ऋषिभाषित। दिगम्बर परम्परा के आचार्य श्वेताम्बर आचार्यों के समान ही पश्चिम भारत के दिगम्बर आचार्यों का योगदान भी प्रशंसनीय रहा है। अपने विवेच्य काल सातवीं शताब्दी तक किसी दिगम्बर आचार्य का नाम अभिलेखों में तो नहीं मिलता परन्तु साहित्यिक स्रोतों से उनकी महत् कृतियों की जानकारी प्राप्त अवश्य होती है। दिगम्बर परम्परा के महान् आचार्यों में गुणधर का नाम सर्वोपरि है।२६ ये इस परम्परा के श्रुतधर आचार्य माने जाते हैं। इनके जन्म-स्थान के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है किन्तु आचार्य धरसेन के साथ इनका नाम जुड़ा होने के कारण इनका कार्यक्षेत्र पश्चिम भारत का गुजरात प्रान्त रहा होगा, यह विश्वास किया जा सकता है। आचार्य गुणधर का साहित्यिक अवदान अत्यन्त श्लाघनीय है। आचार्य गुणधर और धरसेन की प्रतिष्ठा दिगम्बर परम्परा में श्रुतधर के रूप में है। अत: दोनों ने साहित्य के क्षेत्र में अपना विशिष्ट योगदान दिया। आचार्य गुणधर ने ‘कसायपाहुड' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ को उन्होंने सूत्र रूप में निबद्ध किया। अत: गुणधर को दिगम्बर परम्परा का प्रथम सूत्रकार भी माना जाता है। कहा जाता है कि आचार्य ने १६ हजार पद्य परिमाण विषय को १८० गाथाओं में संक्षिप्त कर दिया। इस ग्रन्थ को महासमुद्र के समान माना गया है, जिसमें कर्म विज्ञान सम्बन्धी विषय पर चर्चा की गई है। कसायपाहुड ग्रन्थ में १५ अधिकार (विषय) हैं, और ५३ विवरण गाथाओं सहित २३३ गाथायें हैं। इन २३३ गाथा सूत्रों में आचार्य गुणधर ने क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों का वैज्ञानिक रूप से वर्णन किया है। उन्होंने कर्म बन्ध के चारों भेदों प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध का विस्तार से वर्णन कर कर्म बन्ध की व्यापक व्याख्या की है। क्योंकि ये बन्ध ही मानव के आत्मस्वरूप का बोध कराने में बाधक होते हैं। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ने आने वाली शताब्दियों में दिगम्बर परम्परा के महान् आचार्यों को अत्यन्त प्रभावित किया। आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन ने इसी ग्रन्थ पर 'जयधवला' नामक महान् टीका की रचना की जिसमें ६० हजार श्लोक हैं। यही नहीं आचार्य यतिवृषभ ने इसी ग्रन्थ को आधार बनाकर चूर्णि ग्रन्थ की रचना की जिसमें ६ हजार श्लोक हैं। जयधवला के मंगलाचरण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३५ में आचार्य वीरसेन ने गुणधर की वन्दना की है, जिसने कसायपाहुड जैसे उत्तम ग्रन्थ का व्याख्यान किया है जेणिह कासायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि वियरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ।। २८ जहाँ तक गुणधर के काल का प्रश्न है, प्राय: सभी विद्वान् उन्हें आचार्य धरसेन के पहले का मानते हैं। इन्हें आचार्य अर्हबलि के समय का माना गया है। नन्दीसंघ की 'प्राकृत पट्टावली' में अर्हद्बलि का समय महावीर निर्वाण ५६५ अर्थात् प्रथम शताब्दी ई.पू. माना गया है। कहा जाता है कि अर्हदबलि के नेतृत्व में एक वृहत् मुनि सम्मेलन हुआ था, जिसमें गुणधर संघ की स्थापना हुई थी। प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का मानना है कि संघ स्थापना की स्थिति में पहुँचने तक की ख्याति अर्जित करने में गुणधर की परम्परा को कम से कम १०० वर्ष लगे होंगें। अत: गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी मानना उचित है।३९ आचार्य धरसेन दिगम्बर परम्परा के आचार्यों में आचार्य धरसेन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके जन्म स्थान के बारे में ज्ञात नहीं है परन्तु इनका कार्यक्षेत्र वर्तमान गुजरात का सौराष्ट्र क्षेत्र था। जैन ग्रन्थों में आचार्य धरसेन को सौराष्ट्र के गृहनगर की चन्द्र गुफा में निवास करने वाला बताया गया है। उज्जिते गिरि सिहरे धरसेणो धरइ वय-समिदिगुत्ती । चंदगुहाई णिवासी भवियह तसु णामहु पय जुयलं ।।११ आचार्य धरसेन जैन दर्शन के प्रकाण्ड ज्ञाता थे। षट्खण्डागम का सम्पूर्ण विषय उनको ज्ञात था। कहा जाता है कि उन्होंने अपना मृत्यु समय निकट जानकर दो मेधावी जैन आचार्यों पुष्पदन्त एवं भूतबलि को षट्खण्डागम का सम्पूर्ण पाठ ग्रहण करा दिया था। इस प्रकार आचार्य धरसेन ने अपने योग्य शिष्यों को सारा ज्ञान प्रदान कर श्रुत की धारा को अविच्छिन्न बनाये रखा। आचार्य धरसेन का समय भी विवादास्पद है। नन्दीसंघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि का नामोल्लेख है और इन्हें एक दूसरे का उत्तराधिकारी बताया गया है। अहिबल्लि माघनन्दि य धरसेणं पुष्फयंत भूदबली ।। अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ।।४२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० इस आधार पर आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने धरसेन का समय ७३ ई. से लेकर १०६ ई. तक माना है।४३ कुछ विद्वानों ने सौराष्ट्र के गृहनगर के एक गुफा बाबा प्यारा मठ से प्राप्त एक अभिलेख के आधार पर भी इनके समय को प्रमाणित करने का प्रयास किया है।४४ इस गुफा में स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दीपद, मीनयुगल, कलश आदि के चिह्न खुदे हैं। इस खण्डित अभिलेख में कैवल्य ज्ञान, जरा-मरण आदि शब्द भी पढ़े जा सकते हैं। अभिलेख के अत्यधिक खण्डित होने के कारण समस्त लेख का सार ज्ञात नहीं किया जा सकता परन्तु कुछ विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि इस कार्दमक राजवंश के काल में किसी महान् जैन मुनि के देह त्याग का वृत्तान्त है। इस अभिलेख की तिथि भी विवादास्पद है। परन्तु उसे चष्टन का प्रपौत्र, जयदामन का पौत्र और अनाम व्यक्ति का पुत्र कहा गया है। यदि यह लेख रुद्रदामन का है तो इस अभिलेख का समय १५० ई. के पहले का होना चाहिए क्योंकि अन्य साक्ष्यों से रुद्रदामन का यही काल ठहरता है। इन विद्वानों का अनुमान है कि उक्त अभिलेख धरसेन की समाधिमरण की स्मृति में उत्कीर्ण किया गया है। परन्तु यहाँ द्रष्टव्य है कि उक्त अभिलेख में किसी मुनि का कोई नामोल्लेख नहीं है। यह निश्चित है कि यह अभिलेख जैन परम्परा से सम्बन्धित है परन्तु केवल अनुमान के आधार पर किसी विशिष्ट व्यक्ति या मनि से सम्बन्धित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त दूसरे कुछ विद्वान् षट्खण्डागम को पाँचवीं-छठवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। आचार्य पुष्पदन्त एवं आचार्य भूतबलि आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि जैन परम्परा के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्यों में से हैं। मेधासम्पन्न ये दोनों आचार्य धरसेन के पास षट्खण्डागम का अध्ययन करने के लिए गये थे और दोनों ने विनयपूर्वक षट्खण्डागम के दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक तत्त्वों का गम्भीर अध्ययन किया था। जैन परम्परा के अनुसार आचार्य पुष्पदत्त एक श्रेष्ठि के पुत्र थे और आचार्य भूतबलि सौराष्ट्र के नहपान नामक नरेश थे। गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी से पराजित होकर नहपान नरेश ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली और भूतबलि के नाम से विख्यात हुए। जैन-परम्परा से ज्ञात होता है कि आचार्य पुष्पदन्त का नाम कुछ और था और उनकी सुन्दर दंतपंक्ति को देखकर उनके गुरु धरसेन ने यह नामकरण किया।६ आचार्य श्रुतनन्दी के श्रुतावतार से स्पष्ट होता है कि पुष्पदन्त एवं भूतबलि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३७ दोनों आचार्यों ने शिक्षा ग्रहण कर वर्षावास समाप्त होने पर दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और दोनों करहाटक पहुँचे।४७ करहाटक को कुछ विद्वान् महाराष्ट्र के सतारा जिले के आधुनिक कर्हाट से समीकृत करते हैं जबकि कुछ विद्वान् महाराष्ट्र के कोल्हापुर से। जो कुछ भी हो यह नगर उस समय विद्या का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। जहाँ तक साहित्यिक अवदान का प्रश्न है दिगम्बर साहित्य रचना के क्षेत्र में पुष्पदन्त एवं भूतबलि का अवदान सबसे महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रारम्भिक वीसदिसुत्त के अन्तर्गत सतप्ररूपणा के १७७ सूत्रों का निर्माण किया। इनके कार्यों को आगे बढ़ाते हुए आचार्य भूतबलि ने वीसदि सुत्त के सूत्रों सहित ६ हजार सूत्रों में ५ विशाल खण्डों का निर्माण किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने महाबन्धक नामक छठे खण्ड के तीस हजार सूत्र और रचे। इससे स्पष्ट है कि षट्खण्डागम के प्रारम्भिक सूत्रों की रचना आचार्य पुष्पदन्त ने और अवशिष्ट सूत्रों की रचना आचार्य भूतबलि ने की। यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम के ६ खण्डों में ४० हजार श्लोक हैं। अन्तिम छठा खण्ड महाबन्ध के नाम से प्रसिद्ध है और यह अकेले तीस हजार श्लोक में निबद्ध है। महाबन्ध का दूसरा नाम महाधवला भी है। ____जहाँ तक दोनों आचार्यों के समय का प्रश्न है, परम्परागत स्रोतों के अनुसार दोनों आचार्यों का अधिकांश समय साथ-साथ बीता था। दोनों ने एक साथ दीक्षा ली थी और साथ ही आचार्य धरसेन से शिक्षा ग्रहण की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्पदन्त, भूतबलि से आयु में बड़े थे क्योंकि षट्खण्डागम धवलाटीका में आचार्य वीरसेन ने मंगलाचरण के सन्दर्भ में पुष्पदन्त की पहले वन्दना की है। नन्दी संघ की प्राकृत पट्टावली में भी आचार्य धरसेन के बाद पुष्पदन्त और इसके बाद भूतबलि का नाम आता है। इस पट्टावली में आचार्य पुष्पदन्त का काल ३० वर्ष और भूतबलि का काल २० वर्ष का माना गया है। इन पट्टावलियों के आधार पर पुष्पदन्त एवं भूतबलि का काल ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी माना गया है।८ । ___इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के इन आचार्यों की जीवनी एवं कार्यों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जैन साहित्य को सुरक्षित रखने में तथा अपनी लेखनी द्वारा इनको समृद्ध बनाने में इनका कितना महत्त्वपूर्ण योगदान था। पश्चिम भारत में जैन धर्म के प्रचारप्रसार में इन आचार्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। पश्चिम भारत में जैन धर्म की दो-दो वाचनायें कर जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने में इनका प्रयास सराहनीय Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० है। वर्तमान में भी पश्चिम भारत जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में दिखाई देता है। इन आचार्यों को समाज तथा शासकीय दोनों स्तरों पर सहयोग मिला। आचार्यों के सादगीपूर्ण जीवन के प्रति समाज में अत्यन्त श्रद्धाभाव था। सामान्य वर्ग इनके दैनिक जीवन के उपभोग में आने वाली वस्तुओं का दान देता था। आचार्यों तथा भिक्षु भिक्षुणियों के अध्ययन-अध्यापन में कोई बाधा न आये, इसका ध्यान रखा जाता था। आचार्यों को राजकीय स्तर पर भी शासकों का सहयोग एवं संरक्षण प्राप्त हुआ । कालान्तर की शताब्दियों में अनेक जैन आचार्यों ने कई राजदरबारों को सुशोभित किया और अपनी लेखनी एवं तपस्यापूर्ण जीवन से न केवल राजाओं, राज-परिवारों, उच्च पदस्थ अधिकारियों अपितु पूरे जनमानस को प्रभावित किया। सन्दर्भ ग्रन्थ १.D.APN, Vol. 1, page 117 118, F.N-3 २. तीर्थोद्गारित, पृ० ६९६ ३. आवश्यकचूर्णि, पृ० १८७ ४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग एक, पृ० १२७-२८ ५. वही, पृ० १३२-३३ ६. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ५५ ७. प्राकृत प्रापर नेम्स, भाग एक, पृ० ३८४ ८. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३१४ ९. वही, पृ०३१५ १०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, ११. प्रभावक चरित, पृ० ७७ १२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३३४, प्रबन्धकोश पत्राङ्क, २२ १३. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३४१ १४. वही, पृ० ३४२ १५. प्रभावक चरित, पृ० ७९ १६. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, १७. वही, पृ० ३७७ १८. वही, पृ० ३७६ १९. वही, प० ३८१ पृ० ३४४ २०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, २१. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. ३८० पृ० ७० पृ. ७२ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम भारत के जैनाचार्यों का साहित्यिक अवदान : ३९ २२. वही, पृ० १८५ २३. सुवर्ण भूमि में कालकाचार्य, पृ० २२ २४. प्राकृत प्रापर नेम्स, भाग-प्रथम, पृ० १७० २५. वही, पृ० ४११ २६. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० १३० २७. कल्पसूत्र, २०५ २८. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० १७८ २९. वही, पृ० २५६ ३०. वही, पृ० २५८ ३१. प्रभावक चरित, पृ० २८ ३२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० २१५ ३३. वही, पृ. २४१ ३४. वही, पृ०, ३६९ ३५. प्राकृत प्रापर नेम्स, भाग प्रथम, पृ० ४१२ ३६. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ७२ ३७. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, पृ० २८ ३८. जैन धर्म की ऐतिहासिक रूपरेखा, पृ० ६२-६३ ३९. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, तृतीय सं., पृ. २६६ ४०. वही, पृ० ३०-३१ ४१. जैन परम्परा और श्रमण संस्कृति, पृ० १९१; षट्खण्डागम, भाग-१, पृ० ९६ ४२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, तृ.सं, पृ० २९४ ४३. वही, पृ० २७० ४४. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ४६ ४५. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग-१६, पृ० २३९-२४१; जैन रिलीजन एण्ड रॉयल डॉयनेस्टिज ऑफ नार्थ इण्डिया, भाग-१, पृष्ठ ७८ ४६. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग-१६, पृ० २४० ४७. षट्खण्डागम धवलाटीका, भाग-१, पृष्ठ ७१ ४८. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ५१ श्रुतावतार, पद्म १३२ १३३ ४९. द जैन सोर्सेज ऑफ द हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पेज-१४४, षट्खण्डागम धवलाटीका, प्रथम पुस्तक, प्रस्तावना, पृ० २२-३१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ (जैन परम्परा और कला के विशेष सन्दर्भ में) डा० शान्ति स्वरूप सिन्हा [ प्रस्तुत लेख सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन तीर्थकर की मूर्तियों से सम्बन्धित है। इसके द्वारा विद्वान् लेखक ने सारनाथ को जो मुख्यतः बुद्ध की उपदेशस्थली तथा मौर्य एवं गुप्तकालीन बौद्धमूर्तियों की दृष्टि से प्रसिद्ध है, जैन मूर्तिकलावशेषों की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण बतलाया है।] जैन परम्परा में कला की दृष्टि से बुद्ध की प्रथम उपदेश-स्थली सारनाथ और वाराणसी नगर दोनों का महत्त्व रहा है। वाराणसी का उल्लेख विभिन्न जैन ग्रन्थों यथा- प्रज्ञापना, ज्ञाताधर्मकथा, उत्तराध्ययन चूर्णि, कल्पसूत्र, उपासकदशांग, आवश्यकनियुक्ति, निरयावलिका, अन्तकृत्दशा', तिलोयपण्णत्ति (यतिवृषभ कृत), उत्तर-पुराण (गुणभद्र कृत), पार्श्वनाथ-चरित्र (वादिराजसूरि कृत) एवं आराधना कथा कोश (नेमिदत्त कृत) आदि में हुआ है। इनके अतिरिक्त 'विविधतीर्थकल्प' में भी वाराणसी का विस्तार से वर्णन हुआ है, जिसमें वाराणसी का परिचय देते हुए इसे चार भागों में बाँटा गया है, यथादेव-वाराणसी, राजधानी-वाराणसी, मदन-वाराणसी, विजय-वाराणसी तथा विश्वनाथप्रासाद का वाराणसी की राजधानी के रूप में उल्लेख हुआ है। ऐतिहासिकता की दृष्टि से पार्श्वनाथ का वाराणसी से सम्बन्ध सिद्ध हो चुका है। ___ पुरातत्त्व की दृष्टि से जैन कला परम्परा में वाराणसी का महत्त्व गुप्तकाल से ही है जिसके प्रमाण हमें राजघाट एवं वाराणसी के विभिन्न स्थलों से प्राप्त होते हैं। वर्तमान में जैन धर्म से सम्बन्धित पुरातात्त्विक सामग्री भारत कला भवन (वाराणसी), पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ और राज्य संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित है। जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियों का निर्माण वाराणसी में गुप्त काल से २०वीं शती ई० तक होता रहा है जिसके प्रमाण राजघाट, सारनाथ, भेलूपुर वाराणसी के अनेक स्थलों के उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। * असिस्टेन्ट प्रोफेसर, कला इतिहास विभाग, दृश्य कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ : ४१ वाराणसी से ऋषभनाथ, अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, विमलनाथ, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। वाराणसी के जैन मन्दिरों में सुपार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ और पार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। सम्भवत: इन तीर्थंकरों की मूर्तियों का अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियों की तुलना में अधिक संख्या में प्राप्त होना इस बात का प्रमाण है कि वाराणसी उपरोक्त तीर्थंकरों की कल्याणक-भूमि रही है। सारनाथ स्थित श्रेयांसनाथ के अतिरिक्त वाराणसी के अन्य सभी जैन मन्दिर सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ को समर्पित हैं। मूर्तियों के निर्माण में पूरे क्षेत्र को उसकी समग्रता में देखना अधिक समीचीन है। इस दृष्टि से न केवल श्रेयांसनाथ की जन्म-स्थली सारनाथ से जैन मूर्तियों के प्रमाण मिले हैं बल्कि सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ की जन्मस्थली एवं वाराणसी के विभिन्न क्षेत्रों से भी तीर्थंकर मूर्तियों के पर्याप्त उदारण मिले हैं जो लगभग छठी शती ई० से २०वीं शती ई० के मध्य की हैं। इनमें महावीर, यक्ष-यक्षी युक्त नेमिनाथ, गज-लांछन युक्त अजितनाथ, प्रतिमासर्वतोभद्रिका एवं पंचतीर्थी आकृतियाँ मुख्य हैं। वाराणसी -सारनाथ स्थित अनेक जैन मन्दिरों (दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्परा के) में संगृहीत मूर्तियों के क्षेत्र के रूप में देखा जा सकता है। वर्तमान में सारनाथ-वाराणसी में स्थित जैन मन्दिर १८वीं से २०वीं शती ई० के मध्य के हैं। प्रस्तुत शोध-लेख में सारनाथ संग्रहालय में संग्रहीत जैन मूर्तियों के माध्यम से 'सारनाथ का जैन परम्परा एवं कला में महत्त्व' उजागर करना हमारा अभीष्ट है। सारनाथ वस्तुतः काशी अथवा वाराणसी का ही एक भाग रहा है। पुरातात्त्विक प्रमाण के रूप में काशीराज के दीवान जगत सिंह को अचानक ही सारनाथ से एक बौद्ध मंजूषा प्राप्त हुई, जिसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, परिणामस्वरूप सारनाथ में उत्खनन कार्य प्रारम्भ हुआ। इस उत्खनन में विपुल मात्रा में बौद्ध और साथ ही वैदिक-पौराणिक तथा जैन धर्म से सम्बन्धित कला अवशेषों के उदाहरण मिले, जिससे इस स्थान का भारतीय कला और संस्कृति की दृष्टि से महत्त्व बढ़ गया। सारनाथ के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों का लिखित संकलन डा० दयाराम साहनी ने अपने ग्रन्थ में विस्तार से किया है। यह सत्य है कि संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक बौद्ध अवशेष सारनाथ उत्खनन से ही प्राप्त हुए हैं परन्तु वैदिक-पौराणिक परम्परा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० और जैन परम्परा के अपेक्षाकृत कम संख्या में प्राप्त पुरातात्त्विक अवशेष सारनाथ के सामाजिक धार्मिक-समरसता की ओर संकेत करते हैं। वर्तमान में भी सारनाथ में बौद्ध धर्म के मन्दिरों के साथ ही शिव को समर्पित सारंगदेव का मन्दिर और धम्मेख स्तूप के पास स्थित दिगम्बर एवं सिंहपुरी स्थित श्वेताम्बर जैन मन्दिरों (दोनों ही श्रेयांसनाथ को समर्पित) तथा कुषाण, गुप्त एवं गहड़वाल काल तक के कलावशेष इस स्थान के धार्मिक-सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियों के महत्त्व को रेखाकिंत करते हैं। जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों को सर्वोच्च देवों (देवाधिदेव) के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। वस्तुतः तीर्थंकर, जैन धर्म की त्याग एवं साधना की मूलभावना के शाश्वत प्रतीक हैं, जो जैन धर्म का मूलाधार रहा है। अयोध्या के बाद काशी को ही जैन परम्परा में सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है, क्योंकि २४ तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकरों के विभिन्न कल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा और कैवल्य) वाराणसी में ही सम्पन्न हुए। ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी पार्श्वनाथ का काशी से सम्बन्ध रहा है। इस रूप में भी महत्त्वपूर्ण है कि सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ और २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी नगर में क्रमशः वर्तमान भदैनी एंव भेलूपुर नामक स्थानों पर हुआ था जबकि आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्म वाराणसी नगर से २३ कि.मी. दूरी पर स्थित चन्द्रपुरी नामक स्थान पर हुआ था।६ १४वीं शताब्दी के आचार्य जिनप्रभसूरि के अनुसार वाराणसी नगर से चन्द्रपुरी की दूरी ढ़ाई योजन थी, जो उपरोक्त दूरी से समानता रखती है, साथ ही जिनप्रभसूरि ने चन्द्रप्रभ के चार कल्याणकों के भी यहीं सम्पन्न होने का उल्लेख किया है। ११वें तीर्थंकर श्रेयासंनाथ के जन्मस्थल के रूप में सिंहपुरी तीर्थ का उल्लेख मिलता है, जिसकी पहचान वर्तमान सारनाथ से की गयी है। श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली होने के कारण ही सारनाथ का जैन परम्परा में आज भी विशेष महत्त्व है। वाराणसी से सम्बन्धित चार तीर्थंकरों यथा- सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, श्रेयांसनाथ एवं पार्श्वनाथ के कल्याणक सम्पन्न होने के सन्दर्भ यतिवृषभ कृत 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थ में उल्लिखित हैं। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रेयांसनाथ का जन्म फाल्गुन शुक्ल एकादशी को श्रवण नक्षत्र में सिंहपुर में हुआ था। इनके माता-पिता क्रमशः वेणु देवी और विष्णु नरेन्द्र थे। सीहपुरे सेयंसो विण्हुणरिदेण वेणुदेवीए । एक्कारसिए फग्गुणसिदपक्खे समणभे जादो ।।' Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ : ४३ श्रेयांसनाथ के जन्म एंव स्थान के सन्दर्भ में उत्तर-पुराण तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में श्रेयांसनाथ का नाम 'श्रेयांस' रखने के कारण का भी उल्लेख हुआ है, जिसके अनुसार गर्भ में आने के बाद से ही सभी राजपरिवार और सम्पूर्ण राष्ट्र का श्रेय अर्थात् कल्याण हुआ। जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा । अमिधां श्रेयसि दिने, श्रेयांस इति चक्रतुः।।११ वर्तमान में पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ में प्रो० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी जी के प्रयास से प्रदर्शित जैन मूर्तियों के अतिरिक्त सारनाथ स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर एवं सारनाथ से दक्षिण दिशा में लगभग दो कि.मी. दूरी पर स्थित सिंहपुरी के श्वेताम्बर जैन मन्दिर (दोनों श्रेयांसनाथ को समर्पित) में जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। संग्रहालय की जैन मूर्तियाँ गुप्त काल से १०वीं शती ई. के मध्य की हैं, जबकि उपर्युक्त मन्दिरों की मूर्तियाँ १८वीं से २०वीं शती ई० के मध्य की निर्मित हैं। दोनों मन्दिरों में सुरक्षित मूर्तियों में से कई उदाहरण दूसरे स्थलों पर बनने के बाद इन मन्दिरों में उपासकों द्वारा स्थापित किये गये (जिवराज पापड़ीवाल द्वारा संगमरमर में निर्मित मूर्तियाँ), जो सारनाथ की जैन परम्परा को और भी पुष्ट करती हैं। प्रो. तिवारी के साथ संयुक्त सर्वेक्षण से उद्घाटित एवं सारनाथ में उत्खनन से प्राप्त कुल पाँच जैन मूर्तियाँ प्रकाश में आयी हैं। वर्तमान में इन जैन मूर्तियों को सारनाथ स्थित संग्रहालय में दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किया गया है, जिनका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है:१. श्रीवत्स-त्रिरत्न शिलापट्ट- यह शिलापट्ट सम्भवत: पूजा के निमित्त निर्मित किया गया था। इस पट्ट की सबसे बड़ी विशिष्टता है। जैन धर्म के सर्वमान्य मंगलचिह्न श्रीवत्स, त्रिरत्न, चक्र (धर्मचक्र) और ध्वजस्तम्भ का अंकन दायें से बायें अंकन में सर्वप्रथम ध्वज-स्तंभ का उकेरन है, जो तीन स्तरों वाली पीठिका पर स्थित है। यह ध्वजस्तम्भ मानस्तम्भ का भी सूचक हो सकता है, क्योंकि जिस रूप में सामने विशाल श्रीवत्स बना है और उसके निचले सिरे में पदमकलिकाओं का अंकन हुआ है वह श्रीवत्स चिह्न पूजन के सन्दर्भ से और अन्य महत्त्व से जुड़ता है। मध्य भाग में श्रीवत्स चिह्न का अत्यन्त सुरुचिपूर्ण एवं कलात्मक अंकन हुआ है। सबसे अन्त में चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते चार त्रिरत्नों का अंकन चक्र के चारों ओर हुआ है। यह अंकन इस प्रकार हुआ है कि मानो सभी दिशाओं से त्रिरत्न Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० चिह्न इस काल-चक्र को सुरक्षा प्रदान करते हुए उनको सहारा भी दे रहा हो। प्रो० तिवारी ने शैली के आधार पर इस पट्ट का निर्माण काल लगभग गुप्तकाल का उत्तरार्ध माना है, जबकि डॉ० प्रमोद चन्द्रा इसे कुषाणकाल का मानते हैं। परन्तु शैलीगत विशिष्टता और चुनार के बलुए प्रस्तर का प्रयोग प्रो० तिवारी की मान्यता को अधिक बल देता है। मथुरा से प्राप्त कई कुषाणकालीन आयागपट्टों पर भी चारों ओर चार त्रिरत्नों का अंकन द्रष्टव्य है परन्तु इनमें मध्य में चक्र के स्थान पर तीर्थंकर आकृतियों का उत्कीर्णन हुआ है। २. विमलनाथ - चुनार के बलुए प्रस्तर में निर्मित इस प्रतिमा में विमलनाथ (१३वें तीर्थंकर) कायोत्सर्ग में चामरधारी सेवकों से वेष्टित रूपायित हैं। वर्तमान में इस मूर्ति का मस्तक खण्डित है। विमलनाथ के चरणों के पास पीठिका पर परम्परानुरूप तीर्थंकर का लांछन वराह उत्कीर्ण है । मूलनायक के वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न है। यह मूर्ति दिगम्बर परम्परा की है। इस मूर्ति का निर्माणकाल लगभग नवीं शती ई० है । ३. तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग- तीर्थंकर की इस खण्डित प्रतिमा का शीर्ष भी चुनार बलुए प्रस्तर में निर्मित है। वर्तमान में इस मूर्ति में मस्तक सहित प्रभामण्डल के दाईं ओर का भाग ही सुरक्षित है। इस सौम्य मुख मूर्ति में मूलनायक के मस्तक का भाग घुंघराले केश विन्यास वाला है। लम्ब कर्ण, नासाग्र दृष्टि और पुष्पालंकृत प्रभामण्डल के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह तीर्थंकर मूर्ति अपनी पूर्णता में अत्यन्त ही मनोहारी मूर्ति रही होगी। प्रो० तिवारी ने ही सर्वप्रथम शीर्ष भाग के त्रिछत्र के आधार पर इसे तीर्थंकर मूर्ति के रूप में पहचाना था। इस मूर्ति में प्रभामण्डल वाले भाग के बायें ओर एक मालाधारी नभचारी गन्धर्व आकृति को बादलों की पृष्ठभूमि में मनोहारी रूप में दर्शाया गया है। मालाधारी विद्याधर की मुखाकृति पर मन्दस्मित् का सुन्दर भाव है जो तीर्थंकर के प्रति आदरभाव का सूचक है। गन्धर्वाकृति के नीचे एक तीर्थंकर आकृति को ध्यान - मुद्रा में दर्शाया गया है। सम्भवतः यह मूर्ति पूर्णता में पंचतीर्थी प्रकार की रही होगी। ४. पार्श्वनाथ मूर्ति का शीर्ष भाग- प्रस्तुत खण्डित मूर्ति भी चुनार के बलुए प्रस्तर में निर्मित है। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पहचान सिर के ऊपर सुन्दर सप्त सर्प फणों से सुशोभित छत्र से स्पष्ट है। इस Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ : ४५ मूर्ति में तीर्थंकर के चेहरे पर मन्दस्मित् का भाव एवं नासाग्र दृष्टि उनके गहन तप और उससे उत्पन्न परमानन्द के आध्यात्मिक भाव की सुन्दरतम प्रस्तुति करता है। कुंचित केश एवं लम्ब कर्ण तीर्थंकर मूर्तियों के लक्षण के अनुरूप द्रष्टव्य हैं। निश्चित ही यह मूर्ति भी उपरोक्त मूर्ति के समान अपनी पूर्णता में मनोहारी रही होगी। शैली की दृष्टि से भी यह मूर्ति नवीं शती के उत्तरार्ध और १०वीं शती ई० के पूर्वार्ध के मध्य की जान पड़ती है। तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग- सारनाथ से प्राप्त उपरोक्त मूर्ति परम्परा में प्रस्तुत खण्डित शीर्ष भी चुनार के बलुए प्रस्तर में निर्मित है। पत्रावली युक्त त्रिछत्र से इस प्रतिमा की पहचान तीर्थंकर के रूप में स्पष्ट है। यह मूर्ति निश्चित ही उपरोक्त मूर्ति के बाद निर्मित हुई होगी, प्रो. तिवारी ने इस मूर्ति को शैली के आधार पर १०वीं शती ई. का माना है। सारनाथ से प्राप्त और वर्तमान में पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ में प्रदर्शित उपरोक्त पाँचों उदारहण कुषाण-उत्तर गुप्तकाल से १०वीं शती ई० के मध्य के हैं। इस कालावधि की सभी जैन मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा की हैं। सारनाथ से प्राप्त सभी तीर्थंकर मूर्तियाँ खण्डित हैं, जो जैन मूर्तियों की उपेक्षा को दर्शाता है, परन्तु उपर्युक्त परिस्थितियों में एक ओर सारनाथ का जैन परम्परा में श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली के रूप में उल्लेख और दूसरी ओर कम से कम उत्तर-गुप्तकाल से सारनाथ में जैन मूर्तियों का मिलना महत्त्वपूर्ण है यह इस सम्भावना को जन्म देता है कि आगे विशद अध्ययन और सर्वेक्षण से भविष्य में होने वाले उत्खननों से और भी मूर्तियाँ मिल सकती हैं। बहुत सम्भव है कि प्रारम्भिक स्थिति में केवल बौद्ध कला-केन्द्र के रूप में सारनाथ के महत्त्व के कारण जैन मूर्तियों की पहचान और रख-रखाव को सारनाथ में महत्त्व न भी मिला हो, किन्तु आज के सन्दर्भ में जैन परम्परा और कला, बौद्ध परम्परा और कला के समान ही श्रमण परम्परा की एक सशक्त धारा है, जिसका प्रवाह वैदिक-पौराणिक एवं बौद्ध कला के समान ही निरन्तरता में मिलता है। सन्दर्भ १. जैन सत्येन्द्र मोहन, वाराणसी का ऐतिहासिक परिचय, श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ जन्मभूमि मन्दिर, भेलूपुर, वाराणसी , १९९५, पृ०३; मोतीचन्द्रकाशी का इतिहास, वाराणसी, १९८५. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० २. जैन बलभद्र, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (प्रथम भाग), मुम्बई, १९७४, पृ० शार १११-१३४. ३. विविध तीर्थकल्प (जिनप्रभसूरि कृत), सम्पादक-जिन विजय, सिंघी जैन हि ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक - १०, शान्ति निकेतन (बंगाल), १९३४, पृ० ७४. ४. सिन्हा, शान्ति स्वरूप- “सिग्निफिकेन्स ऑफ सारनाथ इन जैन ट्रैडिशन ऐण्ड आर्ट", जैन कन्ट्रीब्यूशन टू वाराणसी, सम्पादक- आर० सी० शर्मा एवं घोषाल, वाराणसी, २००६, पृ०४९-६७ ५. साहनी दयाराम, कैटलाग ऑफ दि म्यूजियम ऑफ आर्कियोलाजी ऐट सारनाथ, कोलकाता, १९१४, पृ०१६४ एवं ३२७-३२८. ६. तिवारी, मारुतिनन्दन- जैन प्रतिमाविज्ञान, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १९८१, पृ०३०-३१ ७. जैन ललित चन्द्र- वाराणसी जैन तीर्थ दर्शन, वाराणसी, १९९७, पृ०१५ ८. विविध तीर्थकल्प, पृ०७४ ९. तिलोयपण्णत्ति, १४/५३६ १०. उत्तर पुराण, ५७/३२-५८ ११. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र-४/१/८६ १२. सिन्हा शान्ति स्वरूप, पू०नि० पृ०६७ चित्र K १. श्रीवत्स-त्रिरत्न शिलापट्ट, गुप्तोत्तर काल, पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ (क्रमांक सं० ३८०) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारनाथ संग्रहालय में संगृहीत जैन मूर्तियाँ : ४७ Jina Hoad, Varanasi. Bth Century AD. Sarnath Museum २. विमलनाथ, नवीं शती ई०, पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ (क्रमांक सं० २३६) ३. तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग, नवीं शती ई०, पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ (क्रमांक सं० २४२) ४. पार्श्वनाथ मूर्ति का शीर्ष भाग, नवीं-१०वीं शती ई०, पुरातत्त्व संग्रहालय सारनाथ (क्रमांक सं० ७५) ५. तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग, १०वीं शती ई०, पुरातत्त्व संग्रहालय, सारनाथ (क्रमांक सं० ४४४) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० भारतीय कला में लक्ष्मी-श्रीवत्स का अन्तस्सम्बन्ध और अंकन डॉ. अयोध्या नाथ त्रिपाठी डॉ. निर्मला गुप्ता" [डॉ. अयोध्या नाथ त्रिपाठी एवं डॉ. निर्मला गुप्ता ने प्रस्तुत लेख में लक्ष्मी और श्रीवत्स के पारस्परिक अन्तस्सम्बन्धों की पृष्ठभूमि में भारतीय कला में इनके अंकन की विवेचना की है। साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से श्रीवत्स के विकास, उसके बहुविध अंकन, साहित्यिक-पुरातात्त्विक सन्दर्भो तथा स्वरूपगत विकास को भी अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है।] 'प्रतीक' हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर हैं। धार्मिक विचार और कर्मकाण्डीय विधि के रूप में मंगल प्रतीक आज समाज के हर स्तर पर व्याप्त हो गए हैं, बड़े और छोटे सभी उनकी ओर आकृष्ट हुए हैं। वस्तुतः इनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के कष्टों का निवारण करना था। सम्पूर्ण-कला जगत् का सिंहावलोकन करने से यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि प्राचीन काल से ही प्रतीकों में धार्मिक व दार्शनिक अभिप्राय का भी सनिवेश रहा है। देवी और देवताओं की प्रतिमाओं का लक्षण निश्चित करते समय धार्मिक प्रतीकों की आवश्यकता हुई। इसके लिए धार्मिक आचार्यों और शिल्पियों ने प्राचीन मांगलिक चिह्नों पर ध्यान दिया और उन्हें विभिन्न देव-मूर्तियों के लिए स्वीकार किया, जैसे- शंख, चक्र और पद्म को विष्णु की मूर्ति में, चक्र और पद्म को बुद्ध की मूर्ति में, चक्र, सिंह और श्रीवत्स को तीर्थंकर की मूर्ति में। लगभग प्रथम शती ई० से धार्मिक प्रतीक या चिह्न का यह नया रूप सामने आने लगा। आज प्रचलित सर्वाधिक प्रतीकों के अन्तर्गत मुख्यतया-मंगल विहग (प्रायः हंस), श्रीवत्स, स्वस्तिक, घट, मिथुन, पत्रवल्ली, प्रमथ, पूर्णघट, पत्रलता, फुल्लवल्ली, गंगा-यमुना, श्रीवृक्ष, चक्र, त्रिरत्न, दर्पण, परशु, भद्रासन, माला, चामर आदि की गणना की जाती है। इन्हीं कला-प्रतीकों में श्रीवत्स भी एक है और इसका अपना विशिष्ट महत्त्व है। * एसोसिएट प्रोफेसर प्राचीन इतिहास विभाग, एम.डी.पी.जी. कालेज, प्रतापगढ़। ** असिस्टेन्ट प्रोफेसर प्राचीन इतिहास विभाग, पी.जी. कालेज, पट्टी, प्रतापगढ़। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय कला में लक्ष्मी-श्रीवत्स का अन्तस्सम्बन्ध और अंकन : ४९ श्रीवत्स न केवल भारतीय कला वरन् भारतीय जन-जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक है जिसकी गणना अष्टमांगलिकों में की गयी है। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, दर्पण, मीन-मिथुन, छत्र, पुष्पदाम आदि के साथ श्रीवत्स का भी उल्लेख प्राप्त होता है। स्वस्तिक और श्रीवत्स हमारी संस्कृति के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मांगलिक चिह्न रहे हैं। स्वस्तिक सार्वभौमिकता एवं सर्वमंगल का और श्रीवत्स सुखसमृद्धि का द्योतक है। साहित्य का स्वस्ति-वाचन ‘स्वस्ति श्री' भारतीय कला में भी यथावत् अभ्यंकित हुआ है। इसीलिए स्वस्तिक और श्रीवत्स के अंकन का प्रस्तुतीकरण साथ-साथ किया गया है। ऐसे अनेक उदाहरण उड़ीसा में खारवेल के हाथी-गुम्फा अभिलेख एवं मध्यप्रदेश के गुना जिला स्थित चन्देरी शिलाभिलेख में पाए गए हैं। तमिलनाडु में करूर के निकट एक गुफा के शिला-पर्यंक पर स्वस्तिक एवं श्रीवत्स एक साथ उत्कीर्ण हैं, जिसका निर्माण काल लगभग तृतीय शती०ई० माना गया है। मथुरा से मिले जैन आयागपट्टों पर तथा कौशाम्बी और दक्षिणी भारत से मिले कतिपय बुद्धपट्टों पर भी स्वस्तिक और श्रीवत्स का अंकन साथ-साथ किया गया है। श्रीवत्स ('श्रीवत्स' अर्थात् श्री का पुत्र) लक्ष्मी का प्रतीक था। अत: लक्ष्मी के समान श्रीवत्स भी सुख-समृद्धि का द्योतक रहा है। भारतीय कला में लक्ष्मी और श्रीवत्स के साथ-साथ उत्कीर्ण होने का भी उल्लेख प्राप्त होता है। साँची के स्तूप सं. २ के वेदिका स्तम्भों पर तथा अमरावती के चैत्य गवाक्ष के शीर्ष पर इनके अंकन पाए गए हैं। साँची के स्तूप सं.२ के एक वेदिका-स्तम्भ पर पद्मलता का अंकन है, जिसमें चार घेरे हैं। एक घेरे में पद्मस्था और पद्महस्ता लक्ष्मी तथा लता के शीर्ष पर श्रीवत्स उत्कीर्ण है। लक्ष्मी के साथ-साथ श्रीवत्स का अंकन पांचाल, कुणिन्द और मथुरा के सिक्कों पर भी किया गया है। पांचाल नरेश फाल्गुमित्र के सिक्कों के पृष्ठभाग पर हाथ में कमल लिए हुए लक्ष्मी खड़ी हैं जिसके दायें पार्श्व में श्रीवत्स का अंकन किया गया है।११ कुणिन्द शासक अमोघभूति के कुछ ताँबे तथा चाँदी के सिक्कों के अग्र भाग पर एक मृग, मृग के आगे नारी-आकृति (लक्ष्मी) तथा मृग के सींगों के बीच श्रीवत्स उत्कीर्ण है। इसी प्रकार मथुरा क्षेत्र में शासन करने वाले पुरुषदत्त, रामदत्त, गोमित्र द्वितीय तथा शेषदत्त के सिक्कों पर स्थानक लक्ष्मी के पार्श्व में श्रीवत्स का अंकन किया गया है। ऐसे सिक्कों का वर्णन ऐलन ने ब्रिटिश संग्रहालय के सूचीपत्र में किया है।२ लक्ष्मी तथा श्रीवत्स के समवर्गीय होने का प्रबल साक्ष्य यह है कि दोनों को विष्णु के वक्ष पर आसीन माना जाता है। विष्णु के वक्ष पर श्रीवत्स . के लक्षण का एक रोचक वृत्तान्त महाभारत में भी पाया जाता है जिसमें Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० रुद्र और नारायण में पहले युद्ध होता है और फिर सन्धि हो जाती है। सन्धि के समय रुद्र से नारायण ने कहा अद्यप्रभृति श्रीवत्सः शूलाङ्को मे भवत्वयं । . मम पाण्यङ्कितश्चापि श्रीकण्ठस्त्वं भविष्यसि ।। १३ अर्थात् आपके शूल से अंकित मेरे वक्ष का यह चिह्न आज से श्रीवत्स होगा और मेरे हाथ से आपके कण्ठ में जो चिह्न अंकित हो गया है उससे - आप श्रीकण्ठ कहलायेंगे। श्रीवत्स की आकृति एवं इसके विभिन्न अंकन को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रतीक का उद्भव एक मानव-मूर्ति के रूप में हुआ था, क्योंकि अपने समान गुणों के कारण मनुष्य ही लक्ष्मी-पुत्र होने के लिए सक्षम था। मानवाकृति वाले श्रीवत्स के सर्वोत्तम उदाहरण सिन्धु-सभ्यता की मृण्मूर्तियों४ तथा गंगा-घाटी से मिले एन्थ्रॉपोमार्फिक ताम्र-उपकरणों में५ द्रष्टव्य हैं। समय के साथ-साथ इस प्रतीक के स्वरूप में परिवर्तन होता गया। स्थानक मानव मूर्ति से प्रारम्भ होकर मौर्य-शुंग युग में यह पालथी मारकर बैठे मानव के आकार का हो गया। भरहुत, साँची, मथुरा, भाजा, सारनाथ आदि स्थलों से श्रीवत्स का ऐसा ही अंकन मिला है। कालान्तर में यह फण उठाए हुए दो नागों का मिथुन बना और अन्ततः चतुर्दल पुष्प के रूप में परिवर्तित हो गया। श्रीवत्स का नाग-मुद्रा रूप हमें प्राय: कुणिन्द, कुलूत और यौधेयसिक्कों१६ पर और अहिच्छत्रा, भुइला (बस्ती, उ.प्र.) तथा तुमैन से प्राप्त मृदभाण्डों पर दिखाई पड़ता है। श्रीवत्स का चतुर्दल रूप प्रायः मध्ययुगीन देव-प्रतिमाओं के वक्षों पर पाया जाता है। यह रूप जैन प्रतिमाओं तथा कतिपय अभिलेखों में भी पाया जाता है। श्रीवत्स की आकृति मानव-मूर्ति से उद्भूत हुई, इसकी पुष्टि उत्तरी तथा दक्षिणी भारत से मिले कई उत्कीर्ण फलकों से होती है। साँची, सारनाथ, कौशाम्बी तथा मथुरा के उत्कीर्ण शिल्प में श्रीवत्स के मानवाकार रूप का उल्लेख करना नितान्त समीचीन प्रतीत होता है। सांची१८ तथा सारनाथ के वेदिका-स्तम्भों पर, कौशाम्बी से१९ मिले एक तोरण खण्ड पर और मथुरा के माट नामक स्थान से मिली चष्टन की मूर्ति की कमरपेटी के एक पदक पर२° हाथों और पैरों को गोलाई से मोड़कर जिन मानव-आकृतियों को उत्कीर्ण किया गया है वे शुंगयुगीन शिल्प के श्रीवत्स प्रतीक के आकार में हैं। दक्षिण 'भारत के पेडुमुडियम नामक स्थान से मिले एक शिला-फलक पर गणेश, ब्रह्मा, नृसिंह, विष्णु, लक्ष्मी, शिवलिंग, महिषासुरमर्दिनी दुर्गा के साथ ही Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय कला में लक्ष्मी - श्रीवत्स का अन्तस्सम्बन्ध और अंकन : ५१ श्रीवत्स का भी अंकन किया गया है। इस फलक में श्रीवत्स प्रतीक की ऊपरी नोक को मानव मुख बना दिया गया है। राजकीय संग्रहालय चेन्नई में कावेरीपक्कम से प्राप्त एक प्रस्तर फलक सुरक्षित है जिसपर किरीटधारी और मानवमुख श्रीवत्स का गजाभिषेक उत्कीर्ण किया गया है । २१ श्रीवत्स का उद्भव एक मांगलिक चिह्न के रूप में हुआ था। साँची के विशाल स्तूप के उत्तरी तोरण द्वार के एक स्तम्भ के ऊपर चक्रासन पर एक विशाल त्रिरत्न चित्रित है जिसके मध्य में श्रीवत्सर २ का प्रतीक अंकित है। श्रीवत्स की उद्भावना आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व में हुई होगी। उस काल के उदाहरण हमें प्राचीन मातृदेवी की मृण्मयी मूर्तियों के साथ पायी जाने वाली 'स्टार शेप्ड' पुरुष मृण्मूर्तियों, गंगाघाटी के एन्थ्रापोमार्फिक ताम्र-उपकरणों तथा बोगजकोई के अभिलेखों में मिलते हैं। श्रीवत्स की यह मांगलिक परम्परा क्रमशः श्रीचक्रों एवं तारे के आकार की (स्टारशेप्ड) मृण्मूर्तियों के रूप में शुंग-युग तक पायी जाती रही। कुषाण काल से श्रीवत्स की मांगलिक परम्परा में एक अभिनव अभिप्राय और जुड़ गया। यह अभिप्राय था महापुरुष के वक्ष - लक्षण के रूप में अंकन । प्रारम्भ में इसे जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के वक्ष पर उत्कीर्ण किया गया, बुद्ध के चरण-न्यासों पर बिठाया गया और फिर यही विष्णु के वक्ष की शोभा बढ़ाने लगा। कालान्तर में श्रीवत्स वक्ष पर धारण करने का एक सामान्य अलंकरण हो गया और जैन, बौद्ध, वैष्णव, शैव आदि सभी छोटी-बड़ी आकृतियों के वक्षों पर इसका अंकन होने लगा। उत्तरी भारत से प्रारम्भ होकर श्रीवत्स की यह वक्ष - लक्षण परम्परा धीरे-धीरे समस्त देश में लोकप्रिय हो गयी और लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक निरन्तर भारतीय मूर्ति - कला में पायी जाती रही। सन्दर्भ १. औपपातिकसूत्र, ३१, रायपसेणियसुत्त, कण्डिका ६६ २. ललितविस्तर, ७ - पृष्ठ ७५, पंक्ति २६ - पृष्ठ, १९५, पंक्ति १६-१७ ३. सेलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स, वाल्यूम १ बुक २, सं. ९९, दिनेश सरकार, फलक- ३८ ४. इण्डियन आर्कियोलॉजी : ए रिव्यू, १९७१-७२, पृष्ठ ५३ ५. द जैन स्तूप ऐण्ड अदर एण्टीक्विटीज ऐट मथुरा, वी. ए. स्मिथ, फलक ८ एवं एस. के. सरस्वती, ए सर्वे ऑफ इण्डियन स्कल्पचर, फलक १३ ६. फ्राम हिस्ट्री टू प्रीहिस्ट्री, गोवर्द्धन राय शर्मा, पृष्ठ १० का चित्र ७. इण्डियन आर्कियोलॉजी : ए रिव्यू, १९५५-५६, पृष्ठ संख्या २४, फलक ३९ सी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० ८. सर जॉन मार्शल, मान्यूमेण्ट्स ऑफ सॉची, खण्ड - ३, फलक ९१ ९. द आर्ट ऑफ इण्डिया, ओसमू तकाता, खण्ड २ चित्र सं. ३११ १०. अमरावती स्कल्पचर्स इन दि मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम, शिवराममूर्ति, पृष्ठ ८३, फलक ६१ / २ ११. द क्वाइन्स ऑव इण्डिया, सी.जे. ब्राउन, फलक १/४ १२. ब्रिटिश म्यूजियम कैटलॉग, एलन, एन्शियण्ट इण्डिया, फलक १४ / १, ५, १० १३. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४२/१३४ १४. ऑस्पेक्ट्स ऑफ इण्डियन हिस्ट्री ऐण्ड आर्कियोलॉजी, हंसमुख धीरज सांकलिया, चित्र २३ १५. श्रीवत्स : भारतीय कला का एक मांगलिक प्रतीक, ए. एल. श्रीवास्तव, पृष्ठ १०९ - १११, चित्र सं. १९९ १६. वही, पृष्ठ ३४, ३८, चित्र सं. ५५, ६९, ७० १७. वही, पृष्ठ २४-२५, चित्र सं. ३८ १८. मान्यूमेण्ट्स ऑफ साँची, सर जॉन मार्शल, खण्ड ३, फलक ८८ १९. स्टोन स्कल्पचर इन द इलाहाबाद म्यूजियम, प्रमोद चन्द्र, फलक ३०एं २०. मथुरा स्कल्पचर्स, नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी, चित्र सं. ३२ २१. जर्नल ऑफ यू.पी. हिस्टॉरिकल सोसाइटी, खण्ड १४, भाग - १ (१९४१), फलक १/४१ २२. मान्यूमेण्ट्स, ऑफ सांची, सर जॉन मार्शल, खण्ड २, फलक २२ * Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय कला में लक्ष्मी - श्रीवत्स का अन्तरसम्बन्ध और अंकन : ५३ शुंग कला (१८४ -७२ ई०पू० ) में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा - डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला; पृष्ठ संख्या १६३, संस्करण, १९९५ शुंग कला (१८४-७२ ई०पू० ) में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा - डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला; पृष्ठ संख्या १९, संस्करण, १९९५ चित्र संख्या ० २७२ शुंग कला (१८४ -७२ ई०पू० ) में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा - डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृष्ठ संख्या १७८, संस्करण १९९५, चित्र संख्या २६३ Rakit सातवाहन युगीन कला ( प्रथम शती ई०पू० ) में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा- डॉ. उदय नारायण राय, भारतीय स्थापत्य कला; पृष्ठ संख्या ९५, संस्करण - २००१, चित्र संख्या-3 -३२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० Art PAGES P4 कुषाण कला (जैन आयाग पट) मथुरा में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा- डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला; पृष्ठ संख्या-२३९, संस्करण-१९९५, चित्र संख्या-३६६ कुषाण युगीन कला में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा- डॉ० उदय नारायण राय, भारतीय स्थापत्य कला; पृष्ठ संख्या-१३०, संस्करण २००१, चित्र संख्या ४४ गुप्त युगीन कला के अन्तर्गत मथुरा में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा- डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला; पृष्ठ संख्या-२४०, संस्करण-१९९५ चित्र संख्या-३६८ गुप्त युगीन कला मथुरा में श्रीवत्स का अंकन, उद्धृत द्वारा- डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला; पृष्ठ संख्या २४१, संस्करण १९९५, चित्र संख्या-३६९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी प्रो० मारुतिनन्दन तिवारी [कला-इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान प्रो. तिवारी ने इस आलेख द्वारा सर्वधर्मसमन्वय के सूचक भारतीय प्रतीक-चिह्नों को रेखाङ्कित किया है। जैन, बौद्ध और हिन्दू सभी धर्मानुयायिओं ने श्रीवत्स आदि प्रतीक-चिह्नों का समभाव से उपयोग अपनीअपनी कलाकृतियों में किया है। जैन प्रतीकों में त्याग एवं तपस्या को विशेष रूप से उकेरा गया है।] भारतीय चिन्तन एवं अभिव्यक्ति में प्रतीकों का महत्त्व प्रागैतिहासिक काल से ही द्रष्टव्य है, जिसे वैदिक वाङ्मय में एक विस्तृत आयाम दिया गया है। जीवन से जुड़े मूलभूत तत्त्वों- सूर्य, अग्नि, जल, वायु को मनुष्य ने श्रद्धाभाव के साथ नमन किया। वैदिक एवं परवर्ती ग्रन्थों में चक्र (सूर्यचक्र एवं धर्मचक्र), स्वस्तिक, श्रीवत्स, पद्म, पूर्णघट, त्रिरत्न, मत्स्ययुगल, गज जैसे अनेक प्रतीकों का निरन्तर उल्लेख हुआ है। हरिवंश एवं वास्तुरत्नकोश जैसे ग्रन्थों में १०८ प्रकार के मांगलिक प्रतीकों का सन्दर्भ मिलता है। तक्षशिला, भरहुत, साँची और मथुरा (जैन आयाग पट्ट) की ई० पूर्व एवं ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों की कला में विभिन्न प्रतीकों का अनेकशः अंकन हुआ है, जो जीवन की ऊर्जा, सातत्य, सर्वकल्याण और अखिल भारतीय समन्वयमूलक सोच को दर्शाते हैं। विभिन्न प्रतीकों में से आठ प्रतीकों को लेकर अष्टमांगलिक प्रतीकों की सूची भी लगभग पहली शती ई. पूर्व और ई. सन् के बीच तैयार हुई, जिनका अंकन तक्षशिला भरहुत और साँची के बौद्ध स्तूपों पर स्वतंत्र तथा मांगलिक मालाओं (साँची महास्तूप) के रूप में हुआ है। साथ ही जैन पूजा शिलापट्टों (आयाग पट्टों) पर भी इनका अनेकशः अंकन हुआ है। अष्टमंगल प्रतीकों का उल्लेख महावंस, अंगविज्जा और हर्षचरित जैसे ग्रन्थों में हुआ है। मांगलिक चिह्नों में श्रीवत्स, स्वस्तिक, त्रिरत्न, मत्स्ययुगल, चक्र (धर्मचक्र), भद्रासन, घट, पद्म, कलश और दर्पण का सर्वाधिक अंकन मिलता है। साथ * कला इतिहास एवं पर्यटन प्रबन्ध विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० ही नन्द्यावर्त एवं वर्धमानक का भी अंकन हुआ है। कुषाणकालीन मूर्तियों में प्रतीकों का अंकन इतना लोकप्रिय था कि जैन तीर्थंकरों एवं बुद्ध की हथेलियों एवं पैर के तालुओं पर और कभी-कभी तो तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सर्पफणों पर भी स्वस्तिक, धर्मचक्र, त्रिरत्न, श्रीवत्स, कलश, मत्स्ययुगल और पद्म जैसे मांगलिक चिह्न उकेरे गये। प्रतीकों के अध्ययन को दो स्तरों पर देखा जा सकता है। एक तो केवल प्रतीकों के रूप में जिनमें श्रीवत्स, स्वस्तिक, पूर्णकलश, त्रिरत्न, चक्र, मीनयुगल, दर्पण, पद्म, शंख, सूर्य, चन्द्र, गौ, गज, अश्व, माला, छत्र, वृक्ष मुख्य हैं। इनमें से कई तो हिन्दू धर्मानुसार समुद्र-मंथन से निकले १४ रत्नों एवं जैन धर्मानुसार मांगलिक स्वप्नों (श्वेताम्बर १४ या दिगम्बर १६ की संख्या) के रूप में भी कला में द्रष्टव्य हैं। मांगलिक स्वप्नों का अंकन देवगढ़ (मन्दिर १२), खजुराहो (आदिनाथ, घण्टई मन्दिर) कुम्भारिया, देलवाड़ा के जैन मन्दिरों पर देखा जा सकता है। दिगम्बर ग्रन्थों में १६ मांगलिक स्वप्नों की सूची में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी या पद्म (पद्मासीन, चार भुजाओं वाले करों में पद्म से युक्त तथा दो गजों द्वारा अभिषिक्त), चन्द्रमा, सूर्य, मत्स्ययुगल, कलशद्वय, दिव्यझील (सरोवर), उद्वेलित समुद्र, सिंहासन, विमान, नागेन्द्रभवन, अपार रत्न-राशि, पुष्पहार एवं निर्धूम अग्नि के उल्लेख हैं। श्वेताम्बर सूची में नागेन्द्रभवन, सिंहासन तथा मत्स्ययुगल के उल्लेख नहीं हैं। दूसरे स्तर पर विभिन्न देवाकृतियों की अवधारणा और अभिव्यक्ति में निहित प्रतीकात्मक भाव के रूप में भी प्रतीकात्मकता के दर्शन होते हैं। मूर्ति चाहे बुद्ध की हो, चाहे तीर्थंकर आदिनाथ, नेमिनाथ, महावीर या पार्श्वनाथ की हो या फिर शिव, विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती या महिषमर्दिनी की हो इनमें कभी यथार्थ स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। वस्तुतः भारतीय देव-मूर्तियाँ भावात्मक और प्रतीक रूप ही रही हैं, जो भारतीय मनीषा और चिन्तनप्रक्रिया को व्यक्त करती हैं। उपर्युक्त दोनों ही स्तरों पर सार्वभौम भारतीय एकता के मूलभूत वैशिष्ट्य को मूर्त रूप में देखा जा सकता है। प्रारम्भ में कुषाण काल तक की कला में मुख्यतः प्रतीकों के माध्यम से ही परम्परा, आस्था तथा संस्कृति के विभिन्न आयामों की अभिव्यक्ति हुई है किन्तु सातवीं से १३वीं शती के बीच, अर्थात् मध्यकाल की कला में प्रतीकों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति कम हुई और मुख्यतः आराध्य देवों के वाहनों, लांछनों, चिह्नों आदि के रूप में ही उन्हें सर्वत्र दर्शाया गया है। इस कालावधि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी : ५७ में राजस्थान में ओसियाँ, मध्यप्रदेश में खजुराहो, गुजरात में देलवाड़ा, राजस्थान में मोढेरा, कुम्भारिया, कर्नाटक में हलेबिड, बेलूर, महाराष्ट्र में एलोरा, उड़ीसा में भुवनेश्वर तथा कोणार्क (सूर्य मन्दिर) जैसे महत्त्वपूर्ण मन्दिरों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स, सूर्य (या चक्र), शंख और पद्म तथा घट जैसे प्रतीकों और पश आकृतियों को मुख्यतः स्थापत्य के सन्दर्भ में प्रतीकों तथा अलंकरणपरक अभिप्रायों के रूप में दिखाया गया है। मन्दिरों के प्रवेशद्वार के समीप बने दो शंख, शंखनिधियों (कालिदास की रचना में मंगल भाव के सूचक) और शिखर भाग में कलश पूर्णकाम या पूर्णता के भाव के सूचक रहे हैं। इन प्रतीकों को केवल सम्बद्धता या सन्दर्भ के आधार पर ही जैन, बौद्ध या वैदिक-ब्राह्मण परम्परा से जोड़ा जा सकता है। वस्तुतः मूल स्वरूप में किसी भी प्रतीक को बौद्ध, जैन या वैदिक-ब्राह्मण प्रतीक के रूप में परिभाषित करना कठिन है, क्योंकि ये पूर्णरूपेण भारतीय मनीषा को व्यक्त करते हैं। इनमें लोकमंगल और सर्वधर्म समन्वय का भाव है। इसी कारण आज भी करवाचौथ, दीपावली, भाईदूज जैसे धार्मिक अवसरों के अतिरिक्त भी रंगोली, चौक पूरना, अल्पना के रूप में इन प्रतीकों को सर्वत्र लोक-व्यवहार में अभिव्यक्ति मिल रही है। ये प्रतीक अखिल भारतीय चिन्तन और भारतीय संस्कृति की व्यापक एकता को व्यक्त करते हैं। मध्यकालीन कला के दो प्रचलित देव स्वरूपों के माध्यम से हम मूर्तियों की प्रतीकात्मकता को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे। इस अवधि में महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ सभी क्षेत्रों में प्रचुर संख्या में उकेरी गयी हैं। महिषमर्दिनी मूर्तियों के कुछ मुख्य उदाहरण एलोरा के कैलाश मन्दिर (८वीं शती ई.), महाबलीपुरम (७वीं शती ई.), भुवनेश्वर (७वीं शती ई.), ओसियाँ (८वीं-१०वीं शती ई.), जगत उदयपुर-राजस्थान (९वीं-१०वीं शती ई.। इस मन्दिर पर अलग-अलग स्वरूप लक्षणों वाली कई मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं), खजुराहो (१०वीं-१२वीं शती ई.), हलेबिड (१२वीं शती ई.) के कला उदाहरणों में द्रष्टव्य हैं। इस स्वरूप की कला में विशेष लोकप्रियता का संभावित कारण तत्कालीन राजनीतिक विषमता और चुनौती की परिस्थितियाँ थीं, जिनमें समाज को एक करने या एक रखने की प्रेरणा देना आवश्यक था। समाज के समक्ष सामूहिक शक्ति के समवेत स्वरूप को प्रस्तुत करना उस समय की जरूरत थी, जिसे महिषमर्दिनी स्वरूप के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। हम सभी जानते हैं कि महिषमर्दिनी के स्वरूप और लक्षणों की कल्पना में सामूहिक शक्ति (तेज पुंजस्वरूपा देवी) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० का भाव निहित है। इस देवी में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, यम, इन्द्र आदि देवों के तत्त्व और उनकी शक्तियाँ (आयुध) समवेत रूप में विद्यमान हैं, जिसका परिणाम अपराजेय महिषासुर के संहार के रूप में द्रष्टव्य है। इस प्रकार महिषमर्दिनी मूर्तियों के माध्यम से मध्यकालीन चुनौती भरी परिस्थितियों में सामूहिक स्तर पर प्रतिरोध की प्रेरणा दी गई है। देवी के आयुध भी संहार एवं रक्षा भाव के प्रतीक हैं। दूसरी ओर जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली गोम्मटेश्वर की मूर्तियों के माध्यम से त्याग और साधना के श्रेष्ठतम स्तर की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है। बादामी, अयहोल (६०० ई.), देवगढ़ (१०वीं१२वीं शती ई.), खजुराहो (१०वीं-११वीं शती ई.), बिल्हरी, दैलवाड़ा (१२वीं-१३वीं शती ई.), एलोरा (९वीं शती ई.), श्रवणबेलगोल (९८३ ई.), कारकल, बेलूर एवं अन्य अनेक स्थलों की बाहुबली की मूर्तियों में तीर्थंकर न होते हुए भी उनके साथ तीर्थंकर मूर्तियों के तत्त्व (सिंहासन, चामरधरी सेवक, प्रभामण्डल, त्रिछत्र और कभी-कभी यक्ष-यक्षी) दिखाये गये हैं। इन तत्त्वों के माध्यम से बाहुबली की प्रतिष्ठा को तीर्थंकरों के समान दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो वस्तुत: त्याग और साधना का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं और बाहुबली को इन श्रेयस् (तीर्थंकर) के गुणों का प्रतीक बना देते हैं। एकाश्मक पत्थर में बनी ५७ फीट ऊँची श्रवणबेलगोल की बाहुबली की ९८३ ई. की प्रस्तर-मूर्ति वास्तव में त्याग और साधना का राष्ट्रीय प्रतीक ही तो है। देवगढ़ एवं एलोरा के कुछ उदाहरणों में बाहुबली के अग्रज, भरत चक्रवर्ती को भी बाहुबली के चरणों के समीप विनम्र भाव से नमस्कार की मुद्रा में दिखलाया गया है, जो त्याग और साधना के समक्ष राजशक्ति के विनयावनत होने का प्रतीक है। आज भी जैन एवं जैनेतर धर्माचार्यों के आसन के समीप राजनेताओं को अपेक्षाकृत नीचे आसन पर ही विनयावनत देखा जा सकता है। मध्यकाल में पूर्व के प्रतीक मुख्यत: स्थापत्य एवं मूर्तियों से सम्पृक्त होकर ही सन्दर्भ पाते हैं। स्वस्तिक, श्रीवत्स, मत्स्य, कलश, पद्म एवं शंख जैसे प्रतीक जैन तीर्थंकरों- सुपार्श्वनाथ, शीतलनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, पद्मप्रभ एवं नेमिनाथ के लांछनों के रूप में तथा खजुराहो, भुवनेश्वर, कोणार्क, देवगढ़ एवं अन्य स्थलों के मन्दिरों के विभिन्न भागों पर व्यक्त हुए हैं। पद्म, चक्र, त्रिरत्न, त्रिशूल, दर्पण, वज्र, अंकुश, विभिन्न देवताओं के आयुध के Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय परम्परा और कला में प्रतीक : सर्वधर्म समन्वय के साक्षी : ५९ रूप में और ऐसे ही वृषभ, गज, सर्प, सिंह विभिन्न देवताओं के वाहनों तथा तीर्थकरों के लांछनों के रूप में अभिव्यक्त हैं। अतः बिना सन्दर्भ के उन्हें धर्म विशेष या सम्प्रदाय विशेष से जोड़ना सम्भव नहीं है। खजुराहो की कला में श्रीवत्स के अंकन से सम्बन्धित विस्तृत अध्ययन पूर्व मध्यकाल एवं मध्यकाल में प्रतीकों की व्यापकता को उजागर करता है । खजुराहो के ब्राह्मण एवं जैन मन्दिरों (१०वीं से १२वीं शती ई.) पर 'श्रीवत्स' केवल तीर्थंकरों या विष्णु आकृतियों के वक्षस्थल पर ही नहीं उकेरा गया है वरन् सभी ब्राह्मणों और जैन देवमूर्तियों में अनिवार्यतः एक मांगलिक प्रतीक या चिह्न के रूप में उसका अंकन हुआ है। श्रीवत्स का अंकन खजुराहो के ब्रह्मा, शिव, गणेश, बलराम, कुबेर, कार्त्तिकेय, दिक्पाल, कीचक एवं गन्धर्वों की आकृतियों के वक्षों पर तो हुआ ही है, साथ ही मिथुन, मृदंगवादक और काम - कला से जुड़ी पुरुष आकृतियों के वक्षस्थलों पर भी उसका अंकन देखा जा सकता है। मोढ़ेरा सूर्यमन्दिर का ( १०२८ ई.) एवं अन्य उदाहरणों में भी यही विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं। अतः वास्तव में ये उदाहरण प्रतीकों के धार्मिक या सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्धता के चिन्तन को स्पष्टतः नकारने और भारतीय परम्परा में उसके व्यापक सन्दर्भ को रेखांकित करने वाले हैं। सन्दर्भ ग्रन्थ १. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, वाराणसी, पृ० ३३६-३७ २. वासुदेव शरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृ० ३३-३७; वैदिक सिम्बालिज्म, भारती, वाराणसी, १९६२-६३, पृ० ९५-९७, यू०पी० शाह, स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९४५, पृ० १०९-११२, ए. एल. श्रीवास्तव, भारतीय कला प्रतीक, इलाहाबाद, १९८९ ३. आदिपुराण, १२/५५, १०१-१९, हरिवंशपुराण, ८/५८-७४ * Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० अंगविज्जा में कला-शिल्प डॉ. अतुल कुमार प्रसाद सिंह* [ इसमें लेखक ने अलग-अलग अध्यायों के वर्णन की पृष्ठभूमि में कला एवं शिल्प के सन्दर्भों को सूचीबद्ध किया है और मथुरा कला की कुषाण कला के साथ तुलना का भी प्रयास किया है। अंगविज्जा की सूची के अनेक नाम न केवल शिल्प वरन् शिल्पियों के वर्गों के उल्लेख की दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। गले के आभूषणों में स्वस्तिक तथा श्रीवत्स वाले अलंकरण से युक्त हारों का सन्दर्भ वैयक्तिक शृंगार में मंगलभाव के महत्त्व को उजागर करता है। अंगविज्जा में जन्मकुंडली और उसका फलादेश भी है । ] श्रमण परम्परा के जिन ग्रन्थों में श्रमप्रधान कलाओं और शिल्पियों का उल्लेख है, उनमें अंगविज्जा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अंगविज्जा का रचनाकार ज्ञात नहीं है क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति की कृति न होकर अलग-अलग कालखंडों के समूहों के अनुभवों को समेटने वाला संग्रह ग्रन्थ जान पड़ता है। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसका काल कुषाण काल का अंत और गुप्त काल के प्रारम्भ का सन्धिकाल माना है। कला, विशेषकर जैनकला की दृष्टि से यह स्वीकार्य है। यद्यपि अंगविज्जा में जिन कलाओं के नाम आते हैं उनका सीधा सम्बन्ध जैन या श्रमण परम्परा से न होकर पूरे समाज से है लेकिन इन शिल्पियों का सम्बन्ध श्रमण परम्परा से होना स्वीकार किया गया है और इसे जैन विद्या का ग्रन्थ माना गया है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमय साठ अध्यायों में विभक्त है और इसमें कुल नौ हजार श्लोक हैं। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत प्रधान होते हुए भी जैन प्राकृत है। अंगविज्जा फलादेश का विशिष्ट ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि द्वारा या जन्मकुण्डली द्वारा फलादेश का निर्देश ही नहीं करता बल्कि मनुष्य की सहज प्रवृत्ति के निरीक्षण द्वारा फलादेश का निरूपण करता है। अतः मनुष्य के चलन और रहन-सहन आदि के विषय में इस ग्रन्थ में विपुल वर्णन पाया जाता है। इस ग्रन्थ की गहनता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कर्ताओं ने एक बात स्वयं ही स्वीकार कर ली * पूर्व शोध छात्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी - ५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगविज्जा में कला-शिल्प : ६१ है कि इस शास्त्र का वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानी से फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशों में से एक असत्य होगा। यह शास्त्र यह भी निश्चित रूप से निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशों में से कौन सा असत्य होगा। यद्यपि ग्रन्थकार ने इसमें मनुष्यों के अंग एवं उनकी विविध चेष्टाओं का विशद रूप में वर्णन करते हुए अंगों के आकार-प्रकार, वर्ण, संख्या, लिंग, स्वभाव आदि को केन्द्र में रखा है तथापि उनकी विभिन्न सांसारिक वस्तुओं और उस समय प्रचलित शिल्पों का भी प्रसंगवश वर्णन होता रहा है। ___ अंगविज्जा के आठवें भूमिकम्म नामक अध्याय में आसनों का उल्लेख आया है जो कई प्रकार के और कई धातुओं या काष्ठों के बने होते थे। इनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में ये शिल्प कलाएँ न केवल विकसित अवस्था में थीं बल्कि इनके शिल्पकार भी निपुण हुआ करते थे। सर्वप्रथम आसनों में सस्ते (समग्घ), मंहगे (महग्घ), औसत मूल्य के (तुलग्घ), टिकाऊ रूप से एक स्थान में जमाए हुए (एकट्ठान), इच्छानुसार कहीं भी रखे जाने वाले (चलित), दुर्बल और बली अर्थात् सुकुमार बने हुए या बहुत भारी या संगीन आसनों का उल्लेख आया है। आसनों के भेद गिनाते हुए कहा गया है कि पर्यंक, फलक, काष्ठ, पीठिका या पिढ़िया, आसन्दक या कुर्सी, फलकी, भिसी या बृसी अर्थात् चटाई, चिंफलक या वस्त्र विशेष का बना हुआ आसन, मंचक या माँचा, मसूरक अर्थात् कपड़े या चमड़े का चपटा गोल आसन, बड़ा पेटीनुमा आसन आदि मुख्य थे। इसके अतिरिक्त पुष्प, फल, बीज, शाखा, भूमि, तृण, लोहा, हाथी दांत से बने आसनों का भी उल्लेख है। एक विशेष प्रकार का आसन नहट्ठिका है जिसका अभिप्राय प्रो. अग्रवाल ने गेंडे, हाथी आदि के नख की हड्डियों से बनाया जाने वाला आसन लगाया है। आसनों में आस्तरक या चादर, प्रवेणी या बिछावन और कम्बल के उल्लेख के अतिरिक्त खट्वा, फलकी, डिप्फर, खेडु खंड (सम्भवतः खेल तमाशे के समय काम आनेवाला), समंथनी आदि का भी उल्लेख आया है जो विशेष प्रकार के आसन थे। मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन मूर्तियों में यक्ष, कुबेर या साधु के पैरों और उदर के चारों ओर वस्त्र बंधा हुआ दिखाया गया है। उसे पलत्थिया कहा जाता था। ये दो प्रकार की होती थीं- समग्र-पलत्थिया और अर्ध-पलत्थिया। अर्ध-पलत्थिया दो प्रकार की होती थी जो दाएं और बाएं पैर में अलगअलग बांधी जाती थी। तीस पटलों में विभक्त इस अध्याय के नवमें पटल Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० में भी कई आसनों का उल्लेख है जैसे- आसंदक, भद्रपीठ, डिप्फर, फलकी, बृसी, काष्ठमय पीढ़ा, तृणपीढ़ा, मिट्टी का पीढ़ा, छगणपीढग। अपाश्रयों (आधार स्वरूप वस्तुएँ) में शयन, आसन, पल्लंक, मंच, मासालक, मंचिका, खट्वा और सेज-शयन-सम्बन्धी अपाश्रय हैं। यान सम्बन्धी अपाश्रयों में सीया, आसंदणा, जाणक, घोलि, गल्लिका, सग्गड़, सगड़ी हैं। किडिका, दारुकपाट या दरवाजा, ह्रस्वाकरण आदि भीत सम्बन्धी अपाश्रय हैं। मणि, मुक्ता, हिरण्य मंजूषा, वस्त्र मंजूषा, दधि, दुग्ध, गुड़-लवण आदि रखने के अनेक पात्रों को भी अपाश्रयों के अन्तर्गत रखा गया है। इस ग्रन्थ में आभूषणों की भी विस्तृत सूची दी गयी है। इनमें सिंहभंडक सबसे सुन्दर आभूषण है जो सिंह के मुख जैसा होता था तथा जिनमें से मोतियों के झुग्गे लटकते रहते थे। दो मकरमुखों की आकृतियों को मिलाकर बनाया जानेवाला आभूषण सामंत मकरिका, वृषभक, हत्थिक, चक्रवाक, चक्रकमिथुनक, हाथ के कड़े और पैरों के खड़वे, णिडालमासक, तिलक, मुहफलक, विशेषक, कुण्डल, तालपत्र, कर्णपीड, कर्णफूल आदि ऐसे आभूषण हैं जिनका कुषाण काल में उपयोग भी होता था। केयूर, तलब, आमेढक, पारिहार्य, वलय, हस्तकलापक, कंकण ये हाथ के आभूषण हैं। गले के आभूषणों में हार, अर्धहार, फलहार, वैकक्षक, अवेयक सूत्रक, स्वर्णसूत्र, स्वस्तिक और श्रीवत्स मुख्य हैं। स्पष्टतः स्वस्तिक और श्रीवत्स हार श्रृंगार के साथ ही मंगल सूचक भी थे। गंडूपक, पाएढक, पादकलापक, पादमासक, पादजाल और खत्तियक पैरों के गहने हैं। श्रोणिसूत्र व रत्नकलापक कटिभाग के गहने कहे गये हैं। मोतियों के जाले आभूषणों के साथ मिलाकर पहने जाते थे। जिनमें बाहुजालक, उरुजालक और सरजालक का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। स्त्रियों के गहनों में शिरीषमालिका, लनीयमालिका, ओरणी, पुष्फितिका, कमण्णी, वालिका, लकड़, कर्णिका, कुण्डमालिका, सिद्धार्थिका, मुद्रिका, अक्षमालिका, पयुका, णितरिंगी, घनपिच्छलिका, विकालिका, एकावलिका, पिप्पलमालिका, हारावली, मुक्तावली के अलावा कमर के लिए काँची, रशना, मेखला, जंबूका, कंटिका, संपडिका, पैरों के लिए पादमुद्रिका, पादसूचिका, पादघट्टिका, किंकिणिका और वर्मिका आदि आते हैं। तीसवें अध्याय में पुनः आभूषणों के नाम दिये हैं। इसमें आभूषणों के तीन प्रकार बताए गये हैंप्राणियों के हड्डियों एवं दाँतों से बने, काष्ठ, फूल, फल, पत्र आदि से बने और धातुओं से बने। श्वेत आभूषणों में चाँदी, शंख, मुक्ता, स्फटिक, विमलक, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगविज्जा में कला-शिल्प : ६३ सेतक्षार मणि के नाम हैं। काले पदार्थों में सीसा, काललोह, अंजतन और कालक्षार मणि; नीले पदार्थों में सस्सक और नीलखार मणि आग्नेय पदार्थों में सुवर्ण, रूपा, सर्वलोह, लोहिताक्ष, मसारकल्ल, क्षारमणि आभूषण आते हैं। इसके बाद शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के आभूषण अलग से उल्लिखित हैं। सिर के लिए ओचूलक, णंदिविणद्धक, अपलोकणिका, सीसोपक; कानों में तालपत्र, आबद्धक, पलिकामदुघनक, कंडल, जतणक, ओकासक, कण्णुप्पीलक; आँखों के लिए अंजन; भौहों के लिए मसी, गालों के लिए हरताल, हिंगुल और मैनसिल एवं होठों के लिए अलक्तक राग का नाम आता है। गले के लिए सुवणसुत्तक, विज्जाधारक, असीमालिका, पुच्छलक, आवलिका, मणिसोमाणक, लोक पुरुष के ग्रीवा भाग में विमान सोमणस अट्ठमंगलक, पेचुका, वायुमुत्ता, वुप्पसुत्त, कट्ठवट्टख भुजाओं में अंगद और तुडिय; हाथों में हस्तकटक, कटक, रुचक, सूची, अंगुलियों के लिए अंगुलेयक, मुद्देयक, वेंटक आदि का उल्लेख हुआ है। कटि में कांचीकलाप, मेखला और जंघा में गंडूपदक, नूपुर, परिहेरक, पैरों में खिंखिणिक, खत्तियधम्मक, पादोपक आदि पहने जाते थे। ५७वें नट्टकोसय नामक अध्याय में धातु के आभरणों में सुवर्ण, रुप्प, तांबा, कहारकूट, वपु या रांगा, सीसा आदि के नाम बताए गये हैं। इस प्रकार अंगविज्जा का उक्त विवरण आभूषणों के बहुत से नये नामों से हमारा परिचय कराता है और सांस्कृतिक दृष्टि से उसका महत्त्व भी है। ___ कर्मद्वार नामक उन्नीसवें अध्याय० में राजोपजीवी शिल्पी एवं उनके उपकरणों का उल्लेख किया गया है। बर्तनों में थाल, तट्टक या तश्तरी, कुंडा या श्रीकुंड और पणसक है जो कटहल की आकृति की बतायी गयी है। अहिच्छत्रा से ऐसे पात्र का नमूना भी मिला है। हस्तिनापुर और राजघाट में भी ऐसे बर्तन मिले हैं। सुपतिट्ठक नाम का कटोरा, पुष्करपत्रक, मुंडक, श्रीकंसक, जम्बूफलक, मल्लक, मूलक, करोटक, वर्धमानक नाम के अन्य बर्तनों का भी उल्लेख है। मिट्टी के पात्रों में अलिंजर, अलिन्द, कुंडग, माणक, वारक, कलश, मल्लक, पिठरक आदि का उल्लेख है। __ अंगविज्जा प्राचीन साहित्य में सम्भवतः एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें शिल्पों की महत्ता के साथ उनके शिल्पकारों का भी उल्लेख किया गया है। ग्रन्थ के अट्ठाईसवें अध्याय में पेशेवर लोगों की लम्बी सची दी गयी है। इसमें ववहारी, उदकवड्डकि या नाव बनानेवाला, सुवण्णकार, अलित्तकार, रत्तरज्जक, देवड, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १० उण्णवाणिय, सुत्तवाणिय, जतुकार, चित्तकार, चित्तवाजी, तट्ठकार या ठठेरा, सुद्धरजक, लोहकार, सीतपेट्टक, कुम्भकार, मणिकार, संखकार, कंसकार, पट्टकार, दुस्सिक, रजक, कोसेज्ज, वाग, ओरब्भिक, महिसघातक, उस्सणिकामत्त, छत्तकारक, वत्थोपजीवी, फलवाणिय, मूलवाणिय, धान्यवाणिय, ओदनिक, मंसवाणिज्ज, कम्मासवाणिज्ज, आपूपिक, खज्जकारक, पण्णिक, फलवाणियक, सिंगरेवाणिया, आगेतित्थवापतं, रथकार, दारुक, महाणसिक का उल्लेख है। साथ ही कुंभकारिक, इड्डुकार, कंसकारक, ओयकार, ओड, मूलखाणक, बालेपतुंद, सुत्तवत्त, वत्ता, रूवपक्खर, फलकारक, सीकाहारक मड्डहारक, कोसज्जवायक, दिअंडकंबलवायका, कोलिका, वेज्ज, कायतेगिच्छका, सल्लकत्त, सालाकी, भूतविज्जिक, कोमारभिच्च वितित्थिक, गोहातक, मायाकारक, गौरीपाढक, लंखक, मुट्ठिक, लासक, वेलंबक, गंडक, घोषक आदि प्रकार के शिल्पियों का उल्लेख कर्म-योनि नामक प्रकरण में आया है। अंगविज्जा के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व को देखते हु आगे आवश्यकता है कि इस ग्रन्थ में दिये शिल्पों और शिल्पकारों के वर्गों के बारे में विशद और सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति के बारे में निश्चित जानकारी प्राप्त कर विश्लेषण किया जाए। ऐसे अध्ययन से श्रम की प्रधानता को नकारने के दोष को दूर कर आगे उसकी प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। सन्दर्भ १. अंगविज्जा, वॉल्यूम - १, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, सम्पादक - मुनि पुण्यविजय, पृ. २६५ २ . वही, पृ. १५, भूमिका, पृ. ५८ ३. वही, पृ. १७ ४. वही, पृ. २७, ३० ५. वही, पृ. ६४-६५ ६. वही, पृ. ७१ ७. वही, पृ. १६२ ८, वही, पृ. २१७ ९. वही, पृ. १४६ १०. वही, पृ. १५९-१६१ * Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष६१, अंक ३ जुलाई-सितम्बर २०१० प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा (जैन भिक्षु विहारों के विशेष सन्दर्भ में) . ___ डॉ. प्रियंका सिंह [डॉ. प्रियंका सिंह ने प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा की विवेचना जैन विहारों के विशेष सन्दर्भ में की है। उपलब्ध साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों पर आधारित अध्ययन में जैन धर्म और उससे सम्बन्धित मुनियों की संख्या में होने वाली वृद्धि के कारण परिस्थितिजन्य परिवर्तन की पृष्ठभूमि में भूमिदान की परम्परा को भली-भाँति रेखांकित किया गया है। उपासकों द्वारा कैसे शून्यागारों से विहार की आवश्यकता को बल दिया तथा उनके रख-रखाव के लिए भूमिदान को अनिवार्य बना दिया इसका भी उल्लेख हुआ है।] प्राचीन काल से ही भारत में भूमिदान को पुण्यकारी कृत्य माना गया है। भूमि को दान में देने की परम्परा का सूत्रपात सीमित रूप में वैदिक काल में ही हो गया था। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, आदि ग्रन्थों में भूमिदान-विषयक कतिपय प्रसंगों का उल्लेख यज्ञ में दक्षिणा के सन्दर्भ में प्राप्त होता है किन्तु वेदोत्तर काल में भूमिदान के माध्यम से पुण्य, यश तथा स्वर्गप्राप्ति का विधान प्रस्तुत किया गया जिससे यह प्रथा समाज में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो गई तथा इसके प्रचलन में वृद्धि और विविधता भी आयी। धर्मसूत्रों, पुराणों, महाकाव्यों आदि ग्रन्थों में पुण्यप्रद धार्मिक कृत्य के रूप में भूमिदान की महत्ता का विस्तार से उल्लेख है। महाभारत में भूमिदान के माध्यम से कुल, वंश, यशोऽभिवृद्धि तथा पुत्रादि की इच्छापूर्ति बतायी गयी है। भूमिदान व्यवस्था के अन्तर्गत प्रतिगृहीता के रूप में प्राचीन काल में ब्राह्मणों के दो वर्ग विशेष रूप से परिलक्षित होते हैं-पुरोहित एवं आचार्य। धर्म-शास्त्रों में सर्वत्र सच्चरित्रता, विद्वत्ता तथा अपने तपस्यायुक्त साधनापरक जीवनचर्या के कारण प्रतिगृहीता के रूप में इनकी प्रशंसा की गयी है। वैदिक साहित्य, पुराण, महाकाव्य इत्यादि ग्रन्थों में प्रायः पुरोहित, आचार्य एवं ब्राह्मण को ही भूमिदान देने के उल्लेख मिलते हैं किन्तु छठी शताब्दी ई. पू. में जैन एवं बौद्ध * प्रवक्ता, धीरेन्द्र महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सुन्दरपुर, वाराणसी। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० विहारों के पक्ष में भी भूमिदान दिया जाने लगा। प्रस्तुत शोधपत्र में जैन विहारों के उद्भव व विकास में भूमिदान के योगदान पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। जैन धर्म में दान को परम पुनीत कर्तव्य के रूप में विवेचित किया गया है। त्याग को ही दान की संज्ञा देते हुये आहारदान, अभयदान औषधदान तथा ज्ञानदान, ये चार प्रकार के दान बताये गये हैं। जैन धर्म में संग्रह को निन्दनीय और अपरिग्रह को धर्म का आधार माना गया है। जैन परिव्राजकों के लिये यह निर्देश था कि 'वह लेप लगाने भर का भी संग्रह न करें, बासी न रखें और कल की अपेक्षा न करते हुए पक्षी की भाँति पर्यटन करें।'५ किन्तु भोजन जीवन के लिये जरूरी था और साधना के लिये जीवन का अस्तित्व भी आवश्यक था, अत: जैन भिक्षुओं के लिये भिक्षा का प्रावधान किया गया। किन्तु उनके द्वारा भिक्षाटन केवल वेदना-शांति, संयम तथा धर्म चिन्तन के लिये था। जैन आचार ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं को यह निर्देश दिया गया है कि उन्हें मात्र जीवन रक्षा के लिये ग्रास की कामना करनी चाहिये। रसास्वादन के लिए भिक्षा-रसों का सेवन उनके लिये निषिद्ध था। उत्तराध्ययनसूत्र में भिक्षा के प्रकार; बताये गये हैं, यथा- जौ का दलिया, जौ का पानी, चावल की माड़, और इसी तरह के अन्य नीरस आहार ही भिक्षा के लिए ग्राह्य बताए गए हैं। आहार का यह संयम भिक्षुत्व की पूर्णता का आधार था। . जहाँ तक बौद्ध भिक्षुओं के प्रति भूमिदान का प्रश्न है, तो यह सम्भवतः उनके सुनिश्चित आवास व्यवस्था से सम्बन्धित था। जैन आगम ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि जैन संघ के प्रारम्भिक दिनों में जैन भिक्षुओं के पास आवास की कोई व्यवस्था नहीं थी। जैन आचार ग्रन्थों में बस्ती से बाहर शून्यागारों तथा निर्जन जंगलों में ही जैन मुनियों का नियत आवास बताया गया है। बृहत्कल्पभाष्य में जैन मुनियों के लिए उपाश्रय-संकट का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उपाश्रय की खोज में इधर-उधर घूमते जैन भिक्षुओं के उल्लेख भी मिलतें हैं। यहीं उनके अस्थिर वास के लिये अच्छी-बरी सेग्ग (शय्या) का भी विवरण मिलता है। उपाश्रय के अभाव में विशेषकर साध्वियों को बहुत कष्ट सहने पड़ते थे। सुरक्षा की दृष्टि से साध्वियों को सभा-स्थल, प्याऊ, देवकुल, घर के बाहर चबूतरे आदि आवागमन वाले स्थानों तथा वृक्ष के नीचे ठहरने का निषेध किया गया है। इस प्रकार प्रतीत होता है कि शीत-वात तथा सुरक्षा की भावना से श्रद्धालुओं द्वारा जैन भिक्षुओं के लिये आवास का निर्माण कराया गया। यद्यपि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा : ६७ आरम्भिक जैन साहित्य में जैन भिक्षुओं के निमित्त आवास दान (गुहा, विहार, चैत्य, वसदि) का कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु बाद में संघ की प्रक्रिया में धीरे-धीरे जैन भिक्षुओं के निमित्त निश्चित आवास की परम्परा प्राप्त होने लगती है। जिनसेन के आदिपुराण में भूमि, क्षेत्र तथा वसदि बनाकर दान दिये जाने के अनेकशः विवरण प्राप्त होते हैं। शिवकोटि की रत्नमाला' में भी जैन मुनियों के लिये निश्चित चैत्यवास के विधान किये गये हैं। सम्भवत: यही व्यवस्था बाद में चैत्यवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक सिद्ध हुई। रत्नमाला में भिन्न-भिन्न आवासों में रहने वाले भिक्षुओं को भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है यथा-गुहावासी, वनवासी, स्तूपवासी तथा चैत्यवासी। इससे स्पष्ट होता है कि चैत्य एवं अर्हत् पूजा के लिये निर्मित मन्दिर जैन साधुओं के उपाश्रय स्थल थे। उल्लेखनीय है कि आवासीय भिक्षुओं के साथ-साथ पारम्परिक आस्थाओं वाला भिक्षुओं का एक वर्ग (वनवासी) भी समाज में हमेशा विद्यमान रहा जिसे आचार-शैथिल्य की उपर्युक्त दशायें (चैत्यवासी परम्परा) स्वीकार्य न थीं। जैनाचार्य गुणभद्र ने आवासीय मुनियों की इस प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हुये कहा है कि-"जैसे रात्रि में इधर-उधर के भयभीत हुये मृग ग्राम के समीप आ बसते हैं, उसी प्रकार कलिकाल के तपस्वी जन भी वनों को छोड़ ग्रामों में आश्रय लेते हैं। ये बड़ी दु:खद बात है।" जैन साहित्य तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि जैन भिक्षुओं को भूमिदान गुहा, विहार, वसदि, खेत तथा ग्राम आदि के रूप में दिया गया। गुहा, विहार आदि का दान जैन भिक्षुओं के निवास के लिये तथा खेत, आदि तथा करमुक्त ग्रामों, का दान आहार, औषधि तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दिया गया। बौद्ध तथा आजीविकों के निमित्त गुहादान के उदाहरण मौर्यकाल से ही प्राप्त होने लगते हैं, किन्तु जैन भिक्षुओं के आवास हेतु गुहा निर्माण की परम्परा की शुरुआत कलिंग नरेश खारवेल ने की। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख११ में यह उल्लेख आया है कि खारवेल ने अपने राज्यकाल के १३वें वर्ष में जैन अर्हतों के लिये उदयगिरि में १६ तथा खण्डगिरि में १९ गुफाओं का निर्माण कराया था। मंछापुरी अभिलेख१२ में खारवेल की अग्रमहिषी द्वारा भी कलिंगदेशीय जैन भिक्षुओं के निवासार्थ गुहा बनवाने का उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय है कि प्रारम्भ में इस प्रकार के गुहादान मात्र वर्षावास के लिये दिये गये थे, किन्तु धीरे-धीरे जैन धर्म के शिथिल होते नियमों, जिन मन्दिरों के निर्माण तथा मूर्तिपूजा के विकास के साथ-साथ कुछ जैन भिक्षुओं ने स्थायित्व का मार्ग ढूंढ़ निकाला और ये सम्मिलित रूप से Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १० गुहा तथा विहारों में रहकर अध्ययन का कार्य करने लगे। इसके लिये उपासक वर्ग जिसमें राजा से लेकर सामान्य जन भी सम्मिलित थे, के द्वारा भवन, वसदि, जिनशाला इत्यादि का निर्माण करवाकर दान किया गया जिससे भिक्षु वर्ग शांतिमय वातावरण में रहकर अपने श्रमण आदर्शों का पालन कर सकें। जैन भिक्षुओं के वर्षावास के लिये भवन, गुहा, विहार, वसदि, चैत्य आदि के निर्माण तथा उसके दान के कुछ अन्य अभिलेखीय उदाहरण इस प्रकार हैं १. चालुक्य शासक विजयादित्य षष्ठ द्वारा भवन का दान १३ । २. होयसल नरेश त्रिभुवनमल्ल के सामंत लक्ष्मण १४ द्वारा जैन वसदि की स्थापना। ३. होयसल त्रिभुवनमल्ल वल्लाव देव द्वारा शीत रक्षा के उद्देश्य से जैन भिक्षुओं हेतु भवन दान | १५ ४. चालुक्य शासक त्रिभुवनमल्ल के शासनकाल में सामंत एवं राज्याधिकारियों द्वारा वसदि का दान | १६ गुहा, विहार में रहने वाले भिक्षुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति (आहार, औषधि आदि) उपासक वर्ग द्वारा ही की जाती थी किन्तु, संघ विस्तार तथा जैन धर्म की लोकप्रियता के कारण जैन भिक्षुओं की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गयी और उपासक वर्ग द्वारा भिक्षुओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन हो गया। फलतः भिक्षुओं के निमित्त क्षेत्रदान तथा ग्रामदान की प्रथा प्रचलित हो गयी। जैन विहार को ग्रामदान अथवा भूमिदान के उदाहरण चौथी शताब्दी ईस्वी से ही मिलने लगते हैं। कदम्ब नरेश काकुस्थ वर्मा के शासन के चौथे वर्ष में जारी एक दानपत्र १७ में यह उल्लेख है कि काकुस्थ वर्मा ने कालखड़ग नामक ग्राम को तीन भागों में विभाजित कर एक भाग पुष्कल में स्थापित अर्हत्शाला को जिनेन्द्र देव की पूजा के लिये तथा अन्य दो भाग क्रमशः धर्माचरण में रत श्वेताम्बर महाश्रमण तथा निर्ग्रन्थ महाश्रमणों के उपभोग के लिये निवेदित किया। चालुक्य, गंग, चौहान १९ तथा होयसल २० राजाओं तथा उनके अधीन सामंत शासकों द्वारा भी जैन चैत्य निर्माण तथा तत्सम्बन्धी व्यवस्था एवं भिक्षुओं के आहार आदि के लिये करमुक्त ग्राम, दान में दिये गये। जैन भिक्षु संघ तथा विहारों को दिये गये कर-मुक्त ग्रामदानों के उदाहरण पश्चिम भारत ( राजस्थान, गुजरात) से लेकर दक्षिण भारत तक के क्षेत्रों में अधिक दिखाई देते हैं। ये सभी क्षेत्र जैन धर्म के विकास Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा : ६९ एवं विस्तार की भूमि हैं। साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पूर्वमध्य काल तक जैन चैत्य एवं विहारों की स्थिति हिन्दू मठों एवं मन्दिरों की भाँति हो गयी थी जिनमें तीर्थंकरों की प्रतिमाओं से युक्त मन्दिर भी थे। इन मन्दिरों में उपाश्रय के लिये प्रायः एक ही गण के साधु-साध्वी निवास करते थे। कहीं-कहीं इन्हीं भिक्षुओं पर मन्दिर की सम्पूर्ण व्यवस्था की जिम्मेदारी भी होती थी। जैन भिक्षुओं को भूमिदान उनके आवास अथवा भोजन के लिये दिया गया किन्तु जैन मन्दिरों को भूमिदान सम्भवत: जैन मन्दिर के निर्माण, जीर्णोद्धार, अर्हतों की पूजा सम्बन्धी आवश्यक सामग्रियों तथा तदाश्रयी संघ के भोजन आदि के लिये दिया गया। अभिलेखीय विवरणों में जैन मठोंमंदिरों के निर्माण जीर्णोद्धार, मठ प्रबन्ध तथा अन्य आवश्यकताओं के लिये विभिन्न प्रकार के करमुक्त ग्रामों के दान के अनेकशः उदाहरण प्राप्त होते हैं१. कदम्ब नरेश मृगेश वर्मा द्वारा अरहन्त देव मंदिर के जीर्णोद्धार एवं देव पूजा के लिये एक निवर्तन भूमि का दान। २. चौहान अल्हण देव एवं कीर्तिपाल द्वारा२२ महावीर मन्दिर के लिये करमुक्त भूमिदान। ३. गंग नरेश मारसिंह द्वारा अर्हत् मन्दिर से सम्बद्ध जिनालय का निर्माण तथा ग्रामदान।२३ ४. होयसल नरेश विनयादित्य तथा उसके पुत्र त्रिभुवनमल्ल२४ यरेयंग द्वारा कल्पवप्पु पर्वत की बस्तियों का जीर्णोद्धार तथा भिक्षुओं के निमित्त आहार, भोजन, वस्त्र आदि का दान। ५. विक्रम शांतरदेव द्वारा पंच वसदि के जैनाचार्य२५ को उपर्युक्त उद्देश्य हेतु करमुक्त ग्रामदान। उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में जैन भिक्षु अनगारी था। त्याग ही उसके लिये सबसे बड़ा दान बताया गया था, किन्तु संघ-विस्तार को ध्यान में रखकर अतिथि जैन भिक्षुओं के लिये निश्चित आवास की व्यवस्था की गयी। संघ विस्तार तथा स्थायी आवास की प्रक्रिया में उत्तरोत्तर जैन भिक्षुओं की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भूमि, भवन, क्षेत्र, ग्राम इत्यादि का भी दान दिया जाने लगा, जिससे जैन भिक्षु शांतिमय वातावरण में अध्ययनमनन कर सकें। इतना विशेष है कि उपासक द्वारा ग्रामादि का दान किसी एक साधु के लिए नहीं था अपितु समय-समय पर आने वाले सभी साधुओं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० के लिए एक रूप में था, उस स्थान या मठ पर उनका कोई स्वामित्व नहीं था अन्यथा वे साधु (अनगारी) कैसे कहे जाते ? सन्दर्भ १. ऐतरेय ब्राह्मण, ३९.६, एच. एन. (सम्पा.) आनन्दाश्रम, पूना, १९३४ २. महाभारत (अनुशासन पर्व ) ६१.२, भण्डारकर (सम्पा.), ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, १९६६ ३. वही, ६१.२ ४. मनुस्मृति, ७.११९, हरगोविन्द शास्त्री (अनु.), वाराणसी, १९७० ५. उत्तराध्ययनसूत्र ६.५ हर्मन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ द ईस्ट, जैन सूत्राज जिल्द, ६५ ६. वही, १५.१३ ७. बृहत्कल्पभाष्य, ३.११, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, जगदीश चन्द्र जैन, वाराणसी, १९६५, पृ. ४०२ ८. आदि पुराण, २०.८८ जिनसेन कृत, पन्नालाल जैन (अनु.), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९६३ ९. जैन धर्म, कैलाश चन्द्र जैन, मथुरा, १९६६, पृ० ३०० १०. वही, पृ. ३००, पाद टिप्पणी । ११. प्राचीन भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, हरिदत्त वेदालंकार, दिल्ली, १९८४, पृ. ४२ १२. वही, पृ० ९३ १३. हिस्टारिकल लिटरेरी इन्स्क्रिप्शंस, राजबली पाण्डेय, पृ० ४१ ४२ १४. वही, पृ. ५३-५४ १५. वही, पृ. ५१-५२ १६. जैन शिलालेख संग्रह, भाग - २, विजयमूर्ति (सम्पा० ) मणिकचन्द्र दिगम्बर ग्रन्थमाला, १९५२, पृ० २४८-२४९ १७. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग-७, पृ० ३७-३८ १८. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, पृ० २४९ १९. वही, पृ० ४४५-४४६ २०. वही, भाग-३, विजयमूर्ति (सम्पा०) मणिकचन्द्र दिगम्बर ग्रन्थमाला, १९५२, पृ० ४२-४५ २९. वही, भाग- २, पृ० ६९ २२. देखिये, हिस्टारिकल लिटरेरी इन्स्क्रिप्शन्स, राजबली पाण्डेय, पृ. ४१ २३. जैन शिलालेख संग्रह, भाग - २, पृ. ६७ २४. वही, पृ० ३३३ २५. वही, पृ० १८२-१८८ * Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramana, Vol. 61, No. 3 July-September 10 A HARMONIOUS WORLD ORDER THROUGH INTERFAITH DIALOGUE: THE JAINA VIEW AND INDIAN EXPERIENCE Kamlesh Datta Tripathi* [Today, the prevailing philosophy of unabated consumerism, the disintegration of traditional values, and the rampant growth of materialism has put a common challenge to all religions of the world. It has questioned the very existence of religions and their utility. In this article the author has presented Interfaith-dialogue as tool for dissolving differences and restoration of the spiritual values in human life. Interfaith dialogue which is an art of communication at a deeper level, enables us to make a space for others for joining hands on the ultimate journey washing out one's all prejudices and develops spirit of oneness. Differences are mainly due to holding partial truth ultimate for the whole truth which Jainism suggests to dissolve through Anekāntavāda and Syādvāda. ] The world's prevailing conditions do not appear to be encouraging for establishing a dialogue between the cultures i.e. Eastern and Western. One fact of our age is the confrontation between different cultures and different religions. There used to be a time when religions ran along parallels tracks without much influence on one another. Today they have been thrust together. Varying degrees of lack of trust between religions can easily be seen in various regions of the world. Yet, there is another aspect of the present-day world. The advancement of technology, powerful media, and instant communication- all this has offered a unique opportunity for interaction * Professor Emeritus, Deptt. of Religious and Agamic Studies, B.H.U., Varanasi. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72: Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 between all parts of the world. If there is any single phenomenon which is characteristic of our times, it is the mingling of peoples, races, cultures. Never before has such a meeting taken place in the history of our world. The idea of 'global village' or a 'metropolitan tribe' is very much present in people's minds. But in fact, the whole of scientific and technological advancement is being used for the furtherance of one particular view of the universe. The term 'globalization' appears to be synonymous with the unipolarity of the world. Dr. S. Radhakrishnan saw this danger in the middle of 20th century itself. He observed, "We are witnessing today of dangerous portents. Some of the advanced nations of the West whose names are synonymous with progress are embarking with cynical deliberation on a course which conflicts with the high injunctions of the religions they profess. They are striving to super-impose a culture and a way of life where all the cultural diversity of the world may vanish. This does not bode well for the future of mankind". The prevailing philosophy of unabated consumerism, the disintegration of traditional values, and the rampant growth of materialism poses a common challenge to all religions of the world. What is needed is a restoration of the place of spiritual values in human life. All this necessitates meaningful inter-religious dialogue and a deeper understanding of the contemporary challenges which all the religions of the world are facing today. In fact, such a dialogue between Western and non-Western religions and philosophies started in the early 19th century A.D. It may be just a coincidence, but this took place when the process of de-Christianization reached its peak in Europe. In the 1880s the Sanskrit language was introduced to Europe in a learned way by Sir William Jones. Jones, a young scholar and judge of the Calcutta High Court, had translated Kálidāsa's play 'Abhijiñāna Sākuntalam', as well as wrote a brilliant paper showing the Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue : 73 relationship of European languages with old Iranian language as well as Sanskrit. This introduction of Sanskrit was responsible for the rise of a new phase of two disciplines-namely Comparative and Historical philology and Comparative Studies of Religions and Philosophies. Increasingly sophisticated dialogue between Western philosophies and non Western philosophies - for example, those of India, China, Islam and so on developed over the course of time, this resulted in the beginning of a new era of the West's effort to take other cultures seriously. However, objective and comparative studies of the religions and philosophies, especially done from the view-point of the superiority of Western culture, could offer only limited results. Now the time has come when we may move from the comparative sutdy of Religions and Philosophies to the path of inter-religious dialogue in order to evolve a greater degree of understanding of one another. We have to understand the integral features of all religions. But at the same time, we have to take into account the powerful dimension of cultural differences. India may offer something valuable in this direction. Constant dialogue between different schools of Indian philosophy continued from the early centuries of the Christian era to medieval times. We are aware of the continued dialogue between the Buddhists and Sāṁkhya school of Indian philosophy on the one hand, and Buddhists and Vedantins on the other. Illuminating discussions occurring in the early Buddhists, Sārkhya and Vedantic Sanskrit texts give testimony to this process. Such a dialogue between Buddhists and Mīmārsakas, Mimāṁsakas and Vedantins, Jainas and the different Vedic schools of Indian philosophy are known to the scholars of Indian religions and philosophical traditions. The culmination of such dialogue in pre-medieval and medieval India took place when Buddhists and Logicians on the one hand, and Buddhists and the Kaśmīra Saivites on the other, were engaged in a vigorous debate over their respective epistemological and metaphysical positions. Sometimes, the entire debate has been a polemic Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74: Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 one, but ultimately it opened a path for certain deeper understanding of their respective positions. A process meant for enriching one's own spiritual experience through understanding the other's experiences of spirituality has resulted in a system, which granted a respectable place for the views of opponents. It was an accepted norm that whosoever engaged in a 'Šāstrārtha' or philosophical debate, loses in giving a convincing exposition, he will have to accept winner's position. This norm was strictly adhered to, yet there was another, higher aspect of the system. There are texts of different schools of philosophy which offer an extremely illuminating discussion giving very faithful accounts of the opponent's views and then logically refuting them. They argued not simply by citing traditional authorities, but by using reasoning or 'Yukti' and 'Tarka! The recognition of interpretative plurality and the problem of inter-religious as well as cross cultural understanding is a hallmark of such a tradition of debate. This is why these exponents of their respective systems have discovered an ingenious way of positioning different shades of spiritual experiences in a hierarchy in which, of course, one's own spiritual experience occupies the highest place, yet others are also given a respectable position. For instance, for the one who adheres to the path of knowledge, for him the path of love is subservient to knowledge, but for one who follows the path of Bhakti or love, it may be the other way round. Thus, instead of completely rejecting the views of opponents, an approach of accommodating and harmonizing them with one's own view is very much evident in the process of dialogue. Such an interaction has not been confined to the dialogue between different schools of Indian philosophy and religions, but took place between Indians and the people coming to India, together with their distinct cultures, from different parts of the world i.e. ancient Iran, Greece, Central Asia, and so on. Assimilation of ancient Greek, Roman, Scythian, and Hun elements in Indian culture is too well-known to be discussed here in this paper. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue : 75 All this suggests that an inter-religious and inter-cultural dialogue is known to ancient India- and even after the coming of Islam. This process continued in the medieval ages. Interaction between Islam and Hinduism resulted not only in the rise of an excellent mystic philosophy of 'Sufism', but, went deeper into the synthesis of two cultures on a much broader plain. The impact of such a synthesis may be observed in the Indian languages contemporaneous to them and depicting Indian life and invoking Hindu gods in their poetry. Indian architecture, paintings, and musical forms are a testimony to creative fusion of Hindu and Islamic arts. But this fusion is not at the cost of Indian tradition itself. Rather, the elements from other cultural streams are assimilated into the tradition of the land itself. Thus, it is apparent that India offers a model for establishing a pluralistic society based on the values of harmony and synthesis. This spirit of synthesis present all over in ancient and medieval life and thought stands in sharp contrast with the suspicion and lack of trust seen today in certain quarters of Indian life. Although modern India too stands firmly for cultural and religious harmony and is committed to have interaction with the rest of world, one can, nonetheless, see some sign of strains among the majority and minority on the one hand, and a sense of alarm against the superimposition of a consumerist culture on the other. However, the process of dialogue has not been weakened even today. It is evident from this brief account that the tradition of Indian thought has been strengthened by the process of constant dialogue between different religions. Moreover, Indian culture has been stimulated by its historic confrontation with different cultures. The same is true with Christian philosophy. Christian Philosophy has constantly interacted with Hellenistic, Jewish, Muslim, and modern scientific thought. Now, it is trying to interact in this direction. David Peter Lawrence has analyzed this process and states. "The Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 : Sramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 effort to achieve a universal intelligibility of many of the religious philosophies of other cultures may be further illuminated by some of the reflections of contemporary Western theology. A catholic theologian, David Tracy, has distinguished philosophical theology, which he calls fundamental theology, from systematic theology and practical theology in a manner addressing problems of crosscultural interpretation and rationality."! The task is a difficult one and the effort must be made to evolve a maximum possible understanding of one another and minimizing the role of so-called objective philosophical inquiry, which may be, sometimes, detrimental to the understanding of an alien spiritual tradition. With these words on the background of the dialogue and methodology to be adopted for establishing a meaningful interaction, I may speak about the specific Hindu view of the universe, the macro-micro-cosmic axis, the universe and the individual, cultural paradigms of our temporal consciousness, religion, rite, and myth and so on. Hinduism and the other religions of Indian origin have a common basis, and dialogue among them has been constantly taking place. Now dialogue between Hinduism and Christianity is taking place. Thus, we may explore how we can work together for the good of humanity as well as for enriching our own spiritual experiences through such dialogue. The Indian view of the universe is fundamentally different from the view in which man is the center of the world. In the Indian view, noted contemporary Indian thinker and writer Prof. Vidya Nivas Mishra observes- "When someone is in the center, the other is in the periphery. When the other is in the center the first goes to the periphery. this means that there is no absolute supremacy among the elements of the whole i.e., man, animal, nature, god, except that of the whole, of the unmanifest, undefined, which subsumes all and is something more than all."2 Man is neither Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue :77 superior to nature, nor in nature opposed to man. Both coexist and interact with a spirit of sharing. Nature is intertwined into the human predicament. The entire Indian tradition of literature and art-dance, drama, music paintings etc. is replete with this specific view of the world. This does not mean that man has no value of his own in the Indian view of the universe. On the contrary, man has a specific role to play because God has given him the capacity to think. The speech which is identical with consciousness has been given to all beings, but it has fully blossomed in man from the stage of 'Para', the state of Absolute Monism, where there is no distinction between the things said and the saying to the grossest ordinary form of spoken and heard speech through the desire of speaking and the medial words and meaning in the intellect. Thus, man is the only one equipped with the power to articulate proper thought. Therefore, he who can speak has the responsibility of understanding others. Such a distinct position of man in his own universe does not entitle him to a privileged place. Instead, he has to ensure the welfare of other beings. In fact, the idea of interdependence permeates the entire Indian view of the universe. One cannot live without the other. As a result, abandoning one's own narrow interest for the good of other and ultimately overcoming the problem of the narrow 'Ego' and individualism is reflected in the highest goal of all the schools of Indian philosophy. This view of the universe based on the notions of multicenteredness, integration, interdependence, and sharing is an alternative to the anthropomorphic view of the universe and it offers a more flexible view of spirituality also. We can say that spirituality according to the Indian schools of philosophy is a method designed to attain permanent peace by tacking the problem of the 'Ego'. Bhartphari, a noted philosopher and an exponent of philosophy of language, writes in fourth century A.D. "Attainment of Brahman is nothing more than going beyond Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 the knot of the ego-sense in the form of 'T' and 'Mine'."3 This approach towards 'Mokşa' or salvation has been analyse by the late Prof. R.K. Tripathi of Banaras Hindu University in his paper entitled 'Spirituality from the Indian point of view.' It points out the common and essential feature of different kinds of spirituality, it brings the vital importance of spirituality, it distinguishes the inner aspect of spirituality from the external forms and it recognizes also many forms of spirituality." It may be emphasized here that spirituality is a method or a 'Mārga' as we call it in India. In this sense, "it is primarily a way of life or method or discipline with the necessary implication that there can be many methods and disciplines and not only one, although the goal is one. "S When this is forgotten and the method is mistaken to be the thing itself, there is fanaticism, narrowness, and dogmatism. If we want to avoid bigotry and fanaticism and we do not intend to ignore other religions and traditions, it is necessary to accept a pluralistic approach. Precisely here comes the relevance of plurality of paths-i.e. paths of the Bhakti (Devotion or Love), Jñāna (knowledge), Karman (Action), Yoga, the Buddhist way, the Jaina way and so on. Different methods define their goals differently in terms of salvation, Mukti, Nirvāṇa and īśvaraprāpti etc. considering life after death. But something may happen here and now if we take recourse to any of these methods properly and sincerely and the immediate objective may be defined in terms of realization of permanent peace. Empiricists may discover the cause of loss of peace in external circumstances; the moralists may see the cause as vice or sin. For the spiritualists the source of disquiet is something internal, the ego. It is the ego that isolates and separates us from the 'Plentitude' and causes the rise of a narrow sense of self-interest and selfishness, for it is the ego which passes for ourselves. Our life remains nothing but the life of ego all the time seeking self Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue : 79 gratification, seeking power and consequently experiencing the "Dvandvas" or the pairs of success and failure, victory and defeat, pleasure and pain, inflation and depression. Thus, ego is at the root of our sufferings. Vedic ritualists or the Mimāṁaskas resolve this question of 'Ego' by defining the 'Action' in terms of Vedic 'Yāga' or offerings, generally translated as Vedic sacrifice. Although there is no action without result and desire for result, therefore, Vedic rituals have been taught initially in terms of a means for fulfilling desires, yet ultimately, sacrifice has been viewed as a total giving of our own being to the other. It is an act of emptying out of a being in order to obtain fulfillment. Fulfillment then is the complete merging of oneself in the other. "In other words, emptying out is the beginning of fulfillment and vice versa. Fulfillment is a new start for another emptying out in order to obtain more fulfillments. This, in certain aspects has been compared with the idea of the dark night in St. John of the cross or in other mystics for whom the ritual of the Mass has a similar significance." observes Prof. Vidya Nivas Mishra. In the Hindu view, rites are an attempt to rejuvenate a person through a re-enactment of the primordial act of creation. Every ritual is a death of the finite and realization of the Infinite. This is why the partaking of the sacrificial 'Soma juice' has been viewed in terms of realization of immortality and eternity. The path of 'Nişkāma-karma-yoga' or the "Yoga" of desireless action taught in Srimad Bhagavadgitā is essentially one with this ultimate understandings of 'Karman' and opens the door, for translating this philosophy of 'Action' in not only day to day life, but rising gradually to the highest goal of feeling the presence of the Infinite and Eternal through the path of 'Bhakti of realizing the 'Mokşa', through the 'Path of knowledge.' Bhakti means yoking of 'Ego' in the services of God. The ego, because of its self-gratifying nature, develops desire for finite and Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 transitory objects and consequently suffers. So the answer lies in turning our back to the finite and directing our love to the Infinite and feeling His presence every moment. Thus, surrender is the essential spirit of 'Bhakti. It is a way to overcome the problem of egoity, the spirit of worldliness. Thus the path of Bhakti does not negate the 'Ego', but transforms it. All the schools if 'Bhakti in India share this view and a dialogue with the religions of Semitic origin is not difficult to be established on this basis. The 'path of 'knowledge' as taught in Advaita Vedānta is primarily aimed at overcoming the problem of separateness and particularity generated by the 'ego'. It teaches to shake off our exclusiveness and gives deeper meaning to life to find the 'universal Self, that is our real 'Self. In other words, it is a way, of broadening or expanding our notion of 'Self. By realizing our 'Universality' and 'Infinity', we can overcome the problem of duality, fear and loss of peace, caused by ignorance of the 'Self. If the path of Bhakti is path of transforming the 'Ego' and the path of 'Jñāna', the path of expansion, then the Buddhist path of knowledge may be termed as the "path of explosion of the particularity or individuality" according to prof. R. K. Tripathi. Our egoism rests on the belief that we are something durable, if not also imperishable; while the fact is that we are nothing more than a momentary conglomeration of momentary 'Dharmas'. Once we come to realize this, the citadel of our 'Ego' is exploded and vanishes into thin air, there remains nothing which we can call "I" or "Mine". There is yet another understanding of the Jainas, who have seen the genesis of suffering in the insistence and intensity of 'Ego'. Their answer to this problem of our prejudices lies in the doctrine of the manifold nature of reality (Anekāntavāda) and the theory of the relativity of knowledge (Syādvāda). According; to this theory, reality has infinite aspects which are relative we can know only some of these aspects. All our judgments therefore are necessarily Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue :81 relative, conditional, and limited. Almost all philosophical, ideological, and religious differences and disputes are mainly due to holding partial truth ultimate for the whole truth. Our judgment represents different aspects of a many-sided reality and can claim only partial truth. This view makes Jainism Catholic, broadminded, and tolerant. Thus, it is evident that the centrality of the problem of ego has been given due recognition by all the religions of Indian origin and they offer the solution to this problem from their respective metaphysical, ontological, and epistemological angles. Each doctrine offers a corresponding spiritual practice also in order to overcome the problem of ego and, consequently, lead to ultimate spiritual experience. The significance of Jaina view lies in the fact that it puts forward a rational view and a sound logic in favour of the manifold nature of reality. The specific Indian view of the universe and spirituality is reflected in the specific cultural paradigms of Indian view of 'Time'. Time is cyclical and spirituality is reflected in the specific cultural paradigms of Indian temporal awareness. Time is cyclical and totally anti-linear. Some Western thinkers describe it as cosmic return of the archetypal myth. Diametrically opposed to this is the historical concept of time : linear, progressive, irreversible and functioning as a casual chain. Although both the views of time were there in the pre-renaissance period, the latter view had prevailed since the renaissance. There is also a third concept of time termed as 'spiral'. Although shared by other cultures, it is typically Indian. Time revolves here too, but while making a circle, it does not close the circle at the same point from where it started. The new point of starting a circle is different from the point where it closed. The whole process entails an endeavour to move back and forward in order to rise a little higher. So, here it is not the wheel that is the symbol of time. It is the conch-shell or the hand-drum (Damarū) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 of Siva. This hand drum is like two inverted triangles joined by the common vertex. Such a unique concept of time cannot be taken to be a total denial of history. Unless you are witness to the whole, you cannot relate yourself to reality. You need to have a fuller vision. Here comes the role of myth in India religiosity and thought. In the Indian context, it is more powerful than history. Indian creativity is myth-making creativity by integrating the earlier vision with a more expansive and comprehensive vision. Prof. Vidya Nivas Mishra had rightly emphasized, "Myth is a transcendental frame that takes, gives, and apprehends out of finite time and tries to place it in an infinite time and space. The very process of myth-making necessitates a continuous, unbroken chain of creativity. Thus, it is the most important language of Indian art, thought, and religios ity."7 In light of such a unique notion and function of myth, the role of myth in Indian religiosity, ritualism, and spiritual practice with the symbols and metaphors and their continuous presence in Indian life may be understood properly. This also explains why Indian life cannot be dichotomized into sacred and profane. It is an experience of indivisible totality, Plenitude. This uniqueness of Indian thought had given rise to new trends in dialogue between the West and India. An attempt towards a better understanding of Indian art and aesthetics on one hand and Jainism on the other may be cited as the most recent development in contemporary Western studies. For example, Malmo University of Sweden has embarked on the project to solve the riddle of Consciousness in which physicists, Neuro Scientists as well as the scholars of Jaina Philosophy have been working together. This augurs well not only for a better world, but for resolving some of the most crucial problems of contemporary science also. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Harmonious World Order Through Interfaith Dialogue : 83 References 1. Peter David Lawrence, Rediscovering God with Transcendental Argument : A Contemporary Interpretation of Monistic Kashmiri Saiva Philosophy, p. 13 Sri Satgura Publications, Indian Book Centre, Delhi, India, 2000 2. From an unpublished interview given by Prof. Vidya Nivas Mishra to a Spanish philosopher. 3. The Vākyapadīya of Bhartphari with Vịtti, Chapter I, Translation by K.A. Subramenia Iyear, p. 7 (Deccan College, Post graduate and Research Institute, Poona, India, 1965). 4. An article entitled "The Nature and Significance of Spirituality" by Prof. Rama Kant Tripathi, Anvikșiki, Vol. 1-2 (1987), p. 2 5. Ibid, p. 2 6. Ibid., p. 8 7. From an unpublished interview given by Prof. Vidya Nivas Mishra to a Spanish philosopher. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramana, Vol. 61, No. 3 July - September 10 TESSITORI'S PIONEERING WORK ON THE UVAEŠAMĀLĀ (UPADEŠAMĀLĀ) A SRAMAŅA BASIC BOOK OF JAINA TEACHINGS Nalini Balbir* [ Composed by Dharmadāsagani, Uvaesamālā (Skt. Upadeśamālā) is very famous treatise which deals with teachings on various aspects of Jainism. Uvaesamālā literally means "garland of teachings". Containing 540 verses, it is a basic book on Jaina teachings which holds an essential place in Jaina literature particularly in Svetāmbara Jains. The author of the article has critically examined and compared with all other available manuscripts and commentaries on the said work with his well-received conclusions based on phonological and morphological studies. ] By chance, it happens that Tessitori is probably the Italian scholar with whom I feel most deeply connected, because he is, as far as I remember, one of those I had to read first as a Ph.D. student in Indology. This was due to the following circumstances: for my Ph.D., I was given the task of critically editing, translating and studying an unpublished Jaina Sanskrit work containing eight stories extolling the virtues of charity towards the Jaina monk (dāna), one manuscript of which is part of the rich collection kept in Strasbourg. It later turned out that this collection of narratives was certainly quite popular in Western India in the 14th century onward, as was proved, on the one hand, by the fairly numerous manuscripts discovered in the libraries of Gujarat, and, on the other hand, by the fact that this anonymous collection was the basis for two remakes in Sanskrit due to the pen of well-known monks of * Paper presented to "Tessitori el India, Seminar at Udine (Italy) on 10th September, 1994 on the occasion of Tessitori's Day. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā the Jaina community, and one adaptation in old Gujarati. The important point is that this collection is grouped around one stanza of the Uvaesamālā, which says: : 85 "Lodging, bed, seat, food, drink, medicine, clothes, almsbowl: even if one's own wealth is limited in quantity, one should take from it, however little it may be, to offer it (to the Jaina monk)." Through the list of eight objects to be given in charity, this stanza provides the starting point for eight stories. Moreover, the first word of the verse (in Prakrit vasahīsayaṇāsaṇa) are in fact the true title of the collection and give it its specificity: there are, among the Jains, many collections which bear the title "Stories about charity" (dānakathā), but there is only one which is connected with this particular verse. Such were the circumstances which led me to take as a companion a particular work of L.P. Tessitori: the edition of the Uvaesamālā which was published as early as 1912 in the Giornale della Societa Asiatica Italiana and which I took as a basis for the French translation of twenty-nine verses I gave as an appendix to the study of the story-collection mentioned above. Although a brief analysis of Tessitori's work on this text has already been given by Prof. Carlo Della Casa in his contribution "Gli studi jainici di Luigi Pio Tessitori" published in the Proceedings of the International Conference organized in Udine in 19872, I would like to come back again to this topic with the aim to stress the importance of Tessitori's work both as a masterpiece of scholarship and as an evidence of his intuition and originality: the very fact that he selected the Uvaesemālā speaks in favour of a high clear-sightedness because it is a basic book of Jaina teachings which holds an essential place in Jaina literature and in the heart of Śvetāmbara Jains. This is first proved by what could appear as a detail: the traditional ascription of the Uvaesamālā to a very early date and the idea that its author, the monk Dharmadāsa, was a contemporary of Mahāvīra. The critical discussion of this question occupies an important part of Tessitori's Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 : Sramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 introduction to the texts3 and can be viewed as a model of objectivity and rigorous argumentation. In the absence of any internal information which could help solving the problem, Tessitori makes use of all the available external data which he submits to a very strict cross-examination, and reaches the conclusion that the Uvaesamālā dates back to the first half of the 9th century, or possibly a little earlier. The observations presented by Tessitori's contemporaneous specialists, whether in Europe (Jacobi, Leumann, Guērinot) or in India (by Vijayadharmasūri), show that his conclusions were rather well received. The willingness of these scholars to pass on to Tessitori additional information which could both corroborate his views and make them even more precise was a sign of their positive reactions. On the whole, these views still hold true today: the Uvaesamālā cannot be as old as the Jaina tradition wants it to be; the fact that the first available commentary dates back to the end of the 9th cent. (and not earlier), and the fact that a work completed in 858 A.D. clearly refers to the Uvaesamālā confirm Tessitori's deductions about its time of redaction. There is a simple fact which is very significant: the edition of the Uvaesamālā provided by Tessitori can be considered as the editio princeps of this text. (It was preceded by a so-called Indian edition published in 1878, to which Tessitori had access, but we can believe with closed eyes Tessitori's statement that it was not better than any manuscript, or even worse"). Secondly, although an editio princeps, it is a critical edition in the full sense of the word, and not only because it makes use of several manuscripts, namely five: three from the Biblioteca Nazionale Centrale di Firenze, which was the normal place where Tessitori got the manuscripts he needed, and two from the British Library. The collation was done very carefully, and always with a critical eye. The critical apparatus is both sober and adequate, insofar as it also records orthographical variants. In the case of a text written in Prakrit, as the Uvaesamālā is, a clear picture of these variants is Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā ... : 87 an important tool for a correct appraisal of the original dialect, since the phonetic and orthographic differences are among the main ones between closely connected dialects such as Ardhamāgadhi (the dialect of the Svetāmbara Jaina Canon) and Jaina Māhārāștrī (the dialect of the post-Canonical scriptures). On the other hand, it is also the task of the editor of such texts to keep the medley of colours and not to give way to a linguistic normalization which would lead to an exceedingly clear-cut idea of the language: older forms of the Ardhamāgadhi type may appear in a text predominantly written in Jaina Māhārāştrī, and vice-versa. We are not surprised to see that Tessitori, who was, as is well-known, a linguist of a high-standard, showed great care to this aspect. This is evidenced both by his method of editing and by his linguistic analysis of the Uvaesamālā, which takes note of the most remarkable facts in phonology, morphology, syntax and vocabulary. His conclusion that the language of the Uvaesamālā is a Jaina Māhārāștrī of the older variety still holds valid today. Now that more texts have been published, we can say that the Uvaesamālā belongs to the same linguistic stratum as the so-called Prakirņakas, the latest category of texts belonging to the Jaina Canon: at this stage, the Ardhamāgadhi influence becomes rather limited, although it is still present in the form of “Ardhamāgadhīsms”, and the main Ardhamāgadhi characteristics affecting the morphology of the noun have disappeared: thus, for instance the nominative masculine singular in -e, characteristic of this dialect, is conspicuous by its absence, the ending now being -o, as is usual in Jaina Māhārāștrī; the ending of the locative singular in -amsi has been replaced by the normal Jaina Māhārāşțri ending ammi, whereas we observe the coming up of some peculiarities, definitely specific to Jaina Māhārāşțrī, such as the use of the emphatic particle je supporting an infinitive form in -um, evidenced twice in the Uvaesamālā?". The scrupulous regard of the philologist for the text investigated by him is equally marked by the attention paid to the metre: as expected, the prevailing metre of the Uvaesamālā is the so-called āryā of the classical type. However, Tessitori rightly Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 : Sramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 observed that, out of 540 verses, there are six which are composed in other metres and represent "quotations from other texts incorporated by the author in his own work”. A simple and smart typographical device enables the reader to notice immediately such heterogeneous verses, which are printed in italics. The intuition of Tessitori can now be proved to be perfectly right: at least three out of these six verses can surely be identified as quotations: vss. 184185 as quotations from Uttarādhyayana Sūtra 1.16 and 15; vs. 426 as a quotation from the Avaśyaka-niryukti (100). Moreover the critical edition of the text is followed by an index of verses and a complete and very handy glossary where the Prakrit words are accompanied by their Sanskrit equivalent, or, in case there is none, are briefly explained with reference to the indigeneous grammarians or lexicons. The usefulness of this glossary hardly needs to be demonstrated. It is of immense help both for an internal study of the Uvaesamālā and its vocabulary, since it gives all attestations of a single word, but also for any investigation of the Prakrit lexicon. Such complete glossaries are still too rare in the field of Jaina studies, and those who are familiar with the vast Jaina literature know how time-consuming and hard it may be to look for a word of interest when the editions have no word-index. Thus, in short, we can say that all possible tools have been provided by Tessitori for the study of the Uvaesamālā, and, on the other hand, that the accurateness of the introduction, the edition and the glossary show how deep Tessitori had gone into the text. The only tool.we could think was missing, although it was announced by Tessitori himself, was a translation; but, in fact, it does exist. In the archives carefully kept by Dr. Guido Peano, which I had the opportunity to see (two days ago) thanks to the kindness of Dr. Peano and Mr. Freschi, we find: 1. A handwritten notebook containing both the published part of the work on the Uvaesamālā (edition, variants, material for the introduction) and a complete Italian translation with important notes from the commentaries; Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā 2. Some loose pages with explanatory notes, which do not seem to be complete; : 89 3. The Italian translation, very neatly typed by the care of Dr. Peano. No need to say: even a quick look at this translation is sufficient to get an idea of its high value. Moreover, till now, knowledge about the Uvaesamālā has remained confined to the scholars able to read the original Prakrit or one of the Indian languages (Hindi or Gujarati for instance) in which this text has been rendered. Except for the 29 verses translated by me into French (referred to in the beginning), and an unpublished German translation by the scholar Ernst Leumann (1859-1931) of another group of thirty verses, no translation of this text has sofar been published in any European language. Thus, if I may, I strongly wish that the scientific board of the "Societa Indologica Luigi Pio Tessitori" consider as one of its priorities the publication of this Italian translation, together with an introduction which would give an assessment of Tessitori's work and a critical bibliography of the work done since his editio princeps. This paper hopes to be a step in this direction. The Uvaesamālā belongs to a special category of Jaina literary works which I will now try to describe. The name itself, which literally means "garland of teachings ("Ghirlanda d'insegnamenti", is not true title, insofar as it is rather a generic designation than the designation of an individual work. Anyone consulting the catalogues of Jaina manuscripts would be able to realize that there are many works bearing this name or a very similar one. Such works generally obey the following formal principles of composition: they are written in verses, a device which in India is always resorted to if there is a desire to emphasize that the texts are meant for being committed to memory. This is obviously the case in books meant to impart a teaching, whether religious or secular. The verses generally follow each other without being separated in different sections. Thus, the main question they Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90: Śramana, Vol 61, No. 3 July-September 10 raise is that of their sequence, and, more widely, the question of the coherence of the text they form. In the case of the Uvaesamālā, this was noted by Tessitori, who, after giving a synopsis of the text, wrote: "Come si vede, l'opera manca nel suo insieme di un ordinamento sistematico e i vari argomenti sono spesso trattati l'uno dopo dell'altro senza alcun nesso logico fra di loro12." Let us discuss this observation. There is indeed a certain amount of coherence, but it is mostly apparent within small groups of verses which may be connected together through the device of concatenation: a significant technical term say, for instance, Prakrit maya (Sanskrit mada), "pride"- recurs from vs. 330 to 333, which can thus be isolated as forming a mini-section endowed with thematic unity. We can also find instances where the sequence between several groups appears to be justified because it is in agreement with the dogmatic background: the fact that verses dealing with the study of sacred scriptures are followed with verses extolling the practice of modesty, followed in turn by verses about fasting13, is no wonder since, according to the Jains, these three concepts traditionally form different subdivisions of the wide notion of "asceticism". On the other hand, the placing of a group of stanzas listing the qualities of the ideal teacher and the moral duties of a disciple towards his preceptor, in the beginning of the work14 is not peculiar to the Uvaesamālā. On the contrary, it appears to have been usual, because the conception was prevalent that a sacred text cannot be put in all hands and that it cannot be fully understood and put to practice by monks who would not be morally prepared for it by the possession of certain qualities and of right behaviour. Yet, on the whole, there are several cases where the place ascribed to a given topic is difficult to understand and where the interconnection seems to be rather loose. The distinctive feature of the literary form called "Upadeśa" (teachings) as used by the Jains, to which I now turn, is the close intertwining of abstract teachings and examples, with reference to illustrious · Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā .... :91 persons, real or imaginary, who embodied them. Thus for instance: “Monks who are aware of their previous births tolerate insults, threats, beating, contempt and abuse, like Dadhappahāri” (136) “Certain good pupils, who have a good behaviour, who observe the religious precepts, and who have a good nature, increase the faith even in the minds of their preceptors, like the pupil of Candarudda" (167) In the Uvaesamālā, there are about 80 such cases. The two examples must have made clear that the verses alone are not sufficient to really understand what was the behaviour of the person mentioned, and what was the context of his reactions. The verses say either too much or too little and, at first sight, appear as halfriddles. They have to be supplemented by something else, namely a commentary of some sort. Sometimes, it happens that the author of the verses also writes a commentary. This is not the case with the Uvaesamālā. Dharmadāsagani is ascribed only with the redaction of the verses. If we are to think that his work once could exist alone, we have at least to suppose that the elaboration of the examples was done orally by the monks who were aware of the contents through a tradition handed down from teacher to pupil. As a matter of fact, the great majority of examples's adduced in the Uvaesamālā cannot be considered as the result of the author's imagination. They come from a tradition prior to him and draw their value precisely from the fact that they are traditional: the heroes mentioned are either saints and martyrs of the first epoch of the Jaina community (various contemporaries of the Jinas, for instance), already known from the Jaina Canon itself: or more often, they date back to the first layer of Jaina exegetical texts which are replete with such references and stories. Thus, for those who are familiar with the Jaina cultural environment they are daily companions. Their lives and adventures have continued to be known from century to century, because they have been constantly revived through the commentaries written in the various languages Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 : Šramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 used by the Jaina community in the course of time: Prakrit, Sanskrit, and, later in North India, old Gujarati, modern Gujarati and Hindi. As far as the Uvaesamālā is concerned, the fairly large number of commentaries is a sign of the popularity and fame of this book. About twenty are known. All are not of the same standard and of the same interest. The earliest ones are more precious insofar as they preserve a good deal of older material and hand down the stories at length, either in Prakrit, Sanskrit or even Apabhraíśa. Thus they are indispensable tools for any investigation of the life and development of the text itself. Let me just mention two of them: 1. the first one (which is also the oldest one preserved) was composed by Siddharși towards the end of the 9th century. It seems to have been published in India but is very difficult to get, and has never been studied carefully, in spite of H. Jacobi's encouragements to do so; it is known in two different recensions: a shorter one with no story; a longer one, expanded by a later author. With stories16. 2. the second one, composed by Ratnaprabhasūri, at the end of the 12th century, is also published in India and accessible!7. It cannot be separated from the preceding commentary, since the author himself claims that he depended upon it and states that he generally took over the explanations of his predecessor! As for Tessitori, he knew about the existence of these two commentaries, which were listed in Reports and Lists of manuscripts found in India, and he refers to them, if only to assess the date of the Uvaesamālā, but, due to the lack of manuscript in Europe, he was not able to use these texts. However, he had at his disposal a third commentary, composed in the first half of the 13th century by Udayaprabhasūri, a manuscript of which was available in Florence, together with two anonymous commentaries in Sanskrit and Gujarati respectively. He occasionally refers to them in the footnotes of his edition and uses them as auxiliary tools for Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā ... : 93 the understanding of difficult passages, for the elucidation of the so-called “local" Prakrit words explained in the commentaries by their common Sanskrit equivalents, or takes note of their grammatical observations. For this purpose, these commentaries are sufficient, and Tessitori had apparently no other choice. Nevertheless, the importance of the older commentaries must not be underestimated: apart from being indispensable for a study of the narratives, they also occasionally bring valuable information about the textual tradition itself when proposing alternate readings (pāthāntara) which show how a text could be submitted to correction, revision and discussion within the Jaina tradition. Another means to assess the place of a work such as the Uvaesamālā is to try to see what its impact has been on the literary tradition. In several cases, important Jaina works can be compared to planets, around which a group of satellites develop and leads its own life. This is what seems to have happened with the stock of narratives mentioned in the Uvaesamālā. Thus, apart from the direct commentaries, we have simile (pseudo)- commentaries, such as the collection of stories with which I started this talk: they do not belong as such to any of the complete commentaries on the Uvaesamālā, but insofar as they start with a stanza of this work which they develop and help to understand, they belong to the same circle. We have also other works showing the same literary form which either refer to the Uvaesamālā or implicitly borrow from it. A very clear case is provided by a work composed in 858 by a certain Jayasimhasūri: his Dharmopadeśamālāvivarana is a work similar to our Uvaesamālā, although much shorter. The verses include certain teachings and refer to heroes who exemplify them. In some cases, the author himself develops the relevant stories in simple Prakrit prose; in many other cases, he only gives a sketch of it, and refers to the Uvaesamālā for more details, or even refrains from writing any story and is satisfied with a mere reference to the Uvaesamālā 20, which means that the author considered this work to be the basis of his own recast. It would be equally easy Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94: Śramana, Vol 61, No. 3 July-September 10 to show that the Uvaesamālā is one of the books which is most willingly quoted in Jaina works of all tendencies. With the material he could get hold of, Tessitori had already given instances of this process. Further investigations completed since then have corroborated the correctness of this observation and thrown some light on the relationship between the Uvaesamālā and the Mahānisīhasūtta, a curious work which, like the Uvaesamālā, poses to be very early, although it is probably not so: both works have in common a total of 31 stanzas21. The abundance of the literary tradition connected with the Uvaesamālā in one way or the other is not the only sign of the fame enjoyed by this book in Jaina Śvetambara circles of Western India. The fact that it also aroused the interest of Jaina painters is another sign. The existence of at least four illustrated manuscripts of the Uvaesamālā has been reported in recent Indian publications (and there may be many more still preserved in the secret of the libraries of the Jaina temples). Two of them are palm-leaf manuscripts of the 13th century, which contain a small number of paintings, among which one of Lakṣmi and one of Ṛṣabha, respectively22. Two other paper- manuscripts are later, dating back respectively to the 17th and the 38th century. They are profusely decorated with paintings having bright colours23. The latest has a total of 70 illustrations24. Sixty-nine out of this total are narrative in character: each painting corresponds to a story alluded to in the Uvaesamālā and told in the relevant portion of the commentaries. [- I shall pass on the book published by Moti Chandra and U.P. Shah, where you can admire a few color reproductions of lively scenes depicting the adventures of several Jaina heroes. Thus one thing becomes even more obvious than it was until now: the storyelement, which is the only one to appeal to the imagination of the painters, is largely responsible for the popularity of the Uvaesamālā in all its manifestations, whether literary or pictorial. To conclude: Even if it is of course unavoidable that, in the lapse of 82 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā ... : 95 years which separates Tessitori's work on the Uvaesamālā from us, new documents have come up, they have not affected the validity of Tessitori's main conclusions because his method was scientific in the true sense of the word. No wonder that this work, which was originally presented as "tesi di perfezionamento” availed him maximum praise and was so readily published. Let us not forget that he achieved it when he was between 23 and 25 years old. No wonder also that he could establish so close personal contacts with the foremost Jaina monks of the time, and especially Vijayadharmasūri and his group, whose daily life he had the honour of sharing: the magnificent - and quite moving - photographic exhibition we saw in Moggio Udinese is a proof of it. He did not go to India with the idea of doing fieldwork without knowing the literature and the language, as some anthropologists of our time do. His vast and first-hand knowledge of the Jaina tradition and the sincereness of his personality were undoubtedly what opened for him the doors of the Jaina community who, so-to-say, adopted him. References : 1. Giornale deța Societa Italiana, 25, 1912, p. 167-297 2. Ibid. P. 55-56 3. See also the lecture written in English, Jodhpur 1914, mentioned in the Proceedings of the Udine Conference of 1987 p. 48; Italian title : "Dharmadāsa era contemporaneo di Mahāvīra?" 4. See GSAI p. 295-297 5. See GSAI p. 188; Also : Indian Edition published in 1915, Jaina Dharma Prasāraka Sabhā, Bhavnagar (according to Velankar Jinaratnakośa p. 48). 6. GSAI p. 172 7. Vottum je, 35; kāūņ je, 383. Similarly, two forms with je in the Candāvejjhaya (c. Caillat. Paris, 1971 56) 8. GSAI p. 177 9. To be identified : vs. 139 pathareņāhao kivo; 208 samjha-rāga jala-bubbuovame; 341 viņao sāsaņe mūlam (neither found in Daśavaikāla nor in Uttarādhyayana). 10. See also C. Della Casa, Proceings of the Udaine Conference of 1987 : p. 56 n. 9. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 11. Other similar works famous among the Svetāmbara Jains : Haribhadra's Upadeśapada (8th cent.): Upadeśaprāsāda, a late work of the 19th century; etc. 12. GSAI p. 181. (=As we see, the work lacks a systematical order as a whole and the various subjects are often dealt with one after the other without any logic between them). 13. Svādhyāya 338-340 - Vinaya, 341-342 - Tapas, 343-346 14. Vss. 93-101 and 102-106. Compare, for instance similar consider ations at the beginning of the Candāvejjhaya. 15. Possible exceptions : Pūraņa (109) and Sasi (256ff.). 16. Try to get Siddharși's ct in its two recensions in ms or print; longer recension expanded by Vardhamānasūri. 17. See what is exactly the position regarding the Prākṣta Vịtti com posed in Sam. 913 by Jayasimha, pupul of Krşņarși, mentioned in JRK p. 49 as coming from the Bșhattipanikā (Bt. No. 170; but no ms mentioned) : is it really a commentary on the Uvaesamālā or is there a confusion with the Dharmopadeśamālā-vivarana composed by the same author in sam. 915? But note that the Bệhattipanikā (No. 179) also mentions the Dharmopadeśamālāvivarana as a separate entry) 18. Prasasti vs. 7 (vyākhyātr-cūļāmaņi-Siddha-nāmnaḥ...) see also p. 2 satyām api sad-víttau; p. 3 pūrvavṛttau vyākhyātvāt. 19. Vs = Udayaprabhasūri's commentary; As = Sanskrit avacūri con tained in the ms FB from Florence; Ag = Gujarati avacūri con tained in the Indian 'Edition' (see GSAI p. 190). 20. See DhUpViv p. 79, 81, 89, 100, 109, 116, 126, 128, 130, 132, 136, 138, 145, 158, 160, 161, 197. References to Uvaesamālāvivarana may be references to the commentary on the Uvaesamālā written by Jayasimhasūri, if at all he wrote any. 21. C.B. Tripathi, Mahānisha Studies and Edition in Germany. A re port. Ahmedabad, 1993, p. 45 22. Palm-leaf ms dated Samvat 1291; cf. Moti Chandra- U.P. Shah, New Documents of Jaina Painting p. 73; U.P. Shah, Studies in Jaina Art p. 33 and fig. 70; palm-leaf ms dated Sam. 1308: cf. Treasures of Jaina Bhandāras p. 62, entry No. 395. 23. Cf. Treasures of Jaina Bhandāras p. 34, catalogue entry No. 489 24. Kept in the Devasāno Pāạo Bhaņdāra, Ahmedabad, 210 folios. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tessitori's Pioneering Work on the Uvaeśamālā .... :97 Work done on the Uvaesamālā L.P. TESSITORI, L' "Uvaesamālā" di Dharmadāsa, GSAI 25 (1912) p. 167-297 Introduction, critical edition, index of verses, glossary, additions] E. LEUMANN, Unpublished manuscript (No. 93/1) containing a brief presentation of the Uvaesamālā and the translation of vss. 4874). H.D. VELANKAR, Jinaratnakośa. Poona, 1944 [p. 49-51: list of manuscripts of the Uvaesamālā. NALINI BALBIR, Dānāṣṭakakatha. Recueil jaina de huit histoires sur le don. Introduction, Edition critique, Traduction, Notes. Paris: De Boccard, 1982. Publications de l'Institut de Civilisation Indienne 48 [Appendice II p. 243-251: annotated French translation of Uvaesamālā Vss. 230-246 and 491-502} MOTI CHANDRA U.P. SHAH, New Documents of Jaina Painting. Bombay, 1975 (p. 71-95: analysis of a manuscript of Upadeśamālā with Balavabodha containing 70 illustrations described on these pages. The illustrations concern the stories adduced in the verses and narrated in the commentary. C.B.Tripathi, Mahānisīha Studies and Edition in Germany. A report. Ahmedabad, 1993 [p. 45 x 6.2.: relationship of Mahānisīha and Uvaesamālā, common verses} Commentaries of the Uvaesamālā - "Doghaṭṭīviseṣavṛtti” Śrī Upadeśamālā satikā : Ratnaprabhasūri. Bombay, 1958 (Śrī Ananda-Hema-JainaGranthamālā Granthānka 6). Uvaesamālā (pūo Śrī-Rāmavijayaji gaṇikṛta tikānusāre sampūrṇa Hindi anuvada). Delhi 1971. Satellites of the Uvaesamālā Jayasimhasūri, Dhannopadeśamālā-vivaraṇa. Bombay, 1949 (Singhi Jaina Series 28). Nemicandrasūri, Ākhyānakamaṇikosavṛtti with the commentary of Amradevasūri. Varanasi, 1962 (Prakrit Text Society Series 5). Dānāṣṭakakathā: see above. * by Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramana, Vol. 61, No. 3 July - September 10 PRATIKRAMAŅA : AN UNPARALLELED CONTRIBUTION OF SRAMAŅA TRADITION TO INDIAN CULTURE Dr. Kamla Jain* [ In this article the author has very beautifully presented the importance of Pratikramana in Jaina code of conduct laid down for ascetics as well as householders. Literally Pratikramana means retracing of the soul to its natural purity which is defiled by passions and endless desires for external objects. It is an individual's realization out of his self contemplation that "If I have gone astray from the right track, or committed anything wrong, it is time for me to tread on the original right path." This is a realization with confidence along with a feeling of regret and repentance for having left the right path, with a resolve for not to repeat the same in future. ] Culture is a very difficult term to define but a very simple fact of life. It has been defined by sociologists and anthropologists in number of ways. Sorokin defines culture as "a complex whole which includes knowledge, belief, art, morals, law, custom and any other capabilities and habits acquired by man as a member of society". This definition seems exhaustive enough to make us understand as to how much it contributes and how much can be contributed to it. It characterizes all those elements which man has created and in which he can make improvements. It is a continuous flow from generation to generation of human society. The contribution of Śramaņa tradition to Indian culture is manifold and unquestionable as it has a history of thousands of years. In Indian culture there are many rituals that have very deep emotional and intellectual components which are both individually and socially * Former Associate Professor of Philosophy Jesus and Mary Col lege, Delhi University, New Delhi. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pratikramaņa: An Unparalleled Contribution of.... :99 enriching in very very true sense. The practice of pratikramana which is essentially a Jaina practice is one such contribution to Indian culture. Even if it has taken the form of a ritual but it is not a lifeless ritual. It is a source of awakening and vigilance for both the individual and the society. The rituals of pratikramana and Kṣamāpanā (which has a harrower connotation) are commonly observed among Jains and are favourably reacted to, in our neighbourhood communities. The monks recite pratikranaṇa-sūtra twice a day unfailingly. The householders or lay people observe this daily or fortnightly or monthly or four-monthly or at least once a year, on the Samvatsari day on the fifth day of the full moon fortnight of the month of Bhadrapada. i.e. the last day of the Paryusaṇa festival. The festival of Paryusana symbolizes the ideal of social solidarity. It embodies four basic aspects of samatā or equality. These are (1) respect for life- the essence of Ahimsa which is the central pivot of Jaina ethics (2) the respect for mind or for intellectual freedom- the basis of Jaina theory of Anekantavāda and Syādvāda, (3) respect for individual's personal effort, his freedom and autonomy- the underlying theory of Karma that holds the individual himself responsible for his happiness or misery (4) respect for equal spiritual potentiality of all individuals or souls. All beings are equal with no difference of caste, creed or birth. This is the true picture of Jaina culture if there are any deviations or distortions they are not in accordance to the true spirit of Jaina culture. Paryusaṇa festival epitomizes these ideals. The yearly celebration of this festival is not supposed to be just an outward ritual but a practice of inward introspection and purification. The essence of this festival is Pratikramaņa along with other religious practices and rituals associated with the festival such as going to the temples, listening to the sermons and teachings of the canonical texts, control of the palate in some form like taking meals only once a day during Paryusaṇa days. All these observances are only ceremonial expressions of the true spirit of self purification. It is this what is meant by Pratikramana. It literally means retracing or going back. It is retracing of the soul to its natural purity which is polluted or spoilt Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 by passions and longings for external objects. It is an individual's realization out of his self contemplation that "If I have gone astray from the right track, it is time for me to go back to the original right path." This is a realization with confidence and courage along with a feeling of regret and repentance for having left the right path, with a resolve for not leaving the right path. Pratikramana is like maintaining a diary on a daily basis. It is a clear scientific, systematic, analytical process of self-examination. It is a process of invoking one's conscience. Infact the individual is so vigilant and alert that he enumerates all possible deviations and transgressions of his basic principles of morality, the vows or the precepts of nonviolence, truth, non-stealing, celibacy or chastity and nonpossession that he has taken as a monk or as a lay householder. He systematically advances after taking an account of his slips and short comings towards his ethical and spiritual progress and resolves to make a fresh beginning of climbing the ethical and spiritual ladder again. It is important to note that Pratikramana is not only an exercise of inner self-purification of the individual, it has great social implication also. That is the individual's relation to society, not just the human society but the entire living world. It is reflected in the practice of Kșamāpanā. This is succinctly expressed in the two lines of Āvaśyaka Sūtra. khāmeni savve jīvā, savve jīvā khamantu mel mitti me savva bhūyesu, veram majjham na keņai // meaning I forgive all beings, may all-beings forgive me, I have friendship with all beings and enmity with none. These lines are not just formal announcements of friendship with all and enmity with none but are practically meant for admitting and re-inforcing the vows the individual has taken, which are the nerve centre of Jaina ethics. The true spirit of a Jaina is reflected when every Jaina approaches everyone else without any bias or hesitation and asks for forgiveness. The spirit is to forgive and forget. This is the initiation of new bonds of friendship and invigorating the old ones. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pratikramana : An Unparalleled Contribution of... : 101 There is an interesting story mentioned in the canonical literature which highlights the significance of Pratikramana and Kșamāpanā. There was a beautiful maid servant in the court of king Udayana of Sindha. Chandrapradyotana, the king of Ujjain heard about her beauty and charm, so he wanted to bring her to his harem. Once when king Udayana was away, he found and opportunity to bring her, he brought her to Ujjain by enticing her. When Udayana returned he came to know of this serious matter, it was a matter of his high prestige and self respect. So he ordered his troops to invade the capital of Chandrapradyotana which forced him to surrender and he was than taken prisoner. After this when Udayana was on his way home, the holy days of Paryūsana followed. King Udayana was a staunch follower of Mahāvīra, he observed his vows and recited Pratikramana Sūtra like a true devotee. When he was reciting the prayer of universal brotherhood, he has friendship will all and enmity with none, he got disturbed about the fact that he had kept Chandra as captive. He realized that it would be a very superficial observance of Pratikramaņa unless the king Chandra is set free. Thus, with absolute sincerity and earnestness Udayana asked Chandra for forgiveness and set him free and also returned his throne honourably. Such stories not only make our literature rich but expound great philosophical and ethical truths. In context of social implications of Pratikramaņa and the vows of the monks and nuns, few things need to be mentioned. Daśavaikālika Sūtra discusses in detail as to what they are supposed to observe and what is expected of them in their code of conduct. Any violation or transgression of any of the five mahāvratas of Ahiṁsā, Satya, Asteya, Brahmacarya and Aparigraha would call for Prāyaścitta or atonement by them depending in the nature or extent of violation. There is a form system of atonement and also of punishment which is designed to provide orderliness in the Samgha. The canonical literature of Jainas discuss in detail the violations by monk or nuns and there are clear prescriptions for punishment for the transgressions committed, needless to mention that bigger the offence committed, bigger the punishment given. This is to highlight the fact that no society can function without Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 some rules, regulations and laws. The detailed account of this is given in the Chedasūtras. The Jaina tradition lays equal emphasis on the house holder's observance of the vows (aņuvratas). The householder while reciting his Pratikramaņa-sūtra? acknowledges the transgressions or (aticāras)3 in any of his vow. His sincerity towards his vows is as much as expected as from a monk or nun. The householder, though, is on a lower moral ladder compared to the monk, but he is supposed to be on a true in spirit and on right moral path. For him, the sense of realization of any violation is equally significant. The intention of pratikramana and kşamāpanā for him is equally true. This culture is reflected in the brief aphoristic phrase Michchāmi dukkadam.' This is highly significant both at the individual and social level. It seems relevant here to mention that the culture of Pratikramana is also found in Buddhist tradition. The scriptural texts of Vinaya and Pātimokkha code can substantiate this. The monks and nuns take the vows of nonviolence, non-stealing, celibacy truth and abstinence from intoxicants. They are supposed to solemnly observe them. Any violation or transgressions of these precepts is made known to Buddhist Samgha on recitation of the Pātimokkha code on the fortnightly Uposatha days. It is, here, that they make confessional statements about their offences. Thus the Samgha gets the knowledge, of the offences and their intensity. The Samgha then accordingly fixes the penalty or punishment, which may even be against the wishes of the erring monk. It is not important at present to know as to what punishment is prescribed for what offence. It is obvious that a serious or major transgression invites rigorous punishment and a minor one only miner punishment. The central point is that the monks are mentally aware about their human weaknesses and also of the violations of the vows, and at the same time they are courageous and morally matured to openly admit them at community level. These transgressions thus become public and do not remain a private matter. It would be of some interest to all of us to make a general Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pratikramaņa : An Unparalleled Contribution of... : 103 comparison between the Jaina and the Buddhist way of dealing with these transgressions and their punishments. The most obvious point of difference is that the Buddhists deal with the details of these transgressions and punishments in the main Vinaya texts while the Jainas deal with them not so much in the Angas (the basic canons) as in the Chedasūtras which are not so publicly read and discussed. In this light it can be said that for the Buddhists violations and their corresponding punishments are more of an open affair while for the Jainas they are comparatively private. Again, the admission of transgressions etc. for the Jaina monks does not require inviting an assembly of monks to decide the nature of offence as with the Buddhists, nor is the prosecution of the guilty according to Jainas is such an elaborate affair as it is in the Buddhist jurisprudence. It seems while discussing the transgressions, I have myself transgressed from my focal theme of Pratikramana and Kşamāpanā which is a solemn acceptance of guilt to oneself and asking others for forgiveness, if they are directly or indirectly or immediately or remotely hurt by one's action. However, the purpose of discussing these violations and punishments is to throw light on the social aspects of the fundamental moral principles and no moral principle can have relevance without a society and a social order. In the end, I would like to underscore that culture is a collective representation of a group, it is our social duty with sincere individual commitment to propagate the culture of Pratikramana and kşamāpanā not only on Indian soil as part of Indian culture but of global culture of this small world. References: 1. Jaina Monistic Jurisprudence, S. B. Deo, Poona . 1996. 2. Śrāvaka-pratikramana Sūtra, Ed. Vijay Muni Shastri, Sanmati Gyanpeeth, Agra, 1996 3. Śrāvaka-pratikramaņa Sūtra, Ed. Vijay Muni Shastri, Sanmati Gyanpeeth, Agra, 1996 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sramana, Vol. 61, No.3 July - September 10 JAIN'S NONVIOLENT PERSPECTIVE OF HUMAN SURVIVAL Samani Dr. Shashi Prajna* ( Environmental degradation or pollution has always been a cause of concern universally, but only in recent times the need for a clean environment has necessitated an in-depth probe into pollution and its allied problems. These problems are caused by unabated consumerism, the disintegration of traditional values, and the rampant growth of materialism. The author, through this article has suggested Jain's nonviolent life-style as a way out of this vicious cycle of environment pollution and eco-friendly human survival. Jaina life-style is nothing but strict adherence to vegetarianism, limitation of desires, self-imposed limitation over one's consumption, six modes of livelihood etc. which can really act as a panacea in solving the problems of environmental crisis. ] Introduction: Study of mankind from Ape age to the present advance modern age is not a miracle, which took place in few seconds. Man being an extraordinary component of environment made this possible by implying his intellect, power and vigor. In his beautiful journey of development, nature proved to be the true companion right from the very beginning of his journey. As far as human nature is concerned, he always wants to dominate his surroundings. Soon with the industrial revolution, due to increasing exercise of superior brain power, the relation between man and other life forms got changed from symbiotic to predatory. His approach, behavior and interactions became more and more anthropocentric arrogating to himself, the exclusive rights to use and exploit all others for his own pleasure and increasing greed.' Assistant Professor in Jain Philosophy J.V.B.U., Landnun, Rajasthan Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain's Nonviolent Perspective of Human Survival : 105 Problem: The continuing degradation of environment and depletion of life supporting natural resources by exploding population and its reckless consumerism are matter of serious concern. The most harmful impact of industrialization is that it is triggering consumerism more and more and to meet the increasing demands more and more industries are coming up, which further triggers consumerism and the vicious cycle is going on. Now it is doubleedged sword i.e. of population increase and consumerism that is cutting ruthlessly the very fabric of environment safety. In this state, the air we breathe, the water we drink and the soil, which produces our food, are getting more and more polluted. The only way out of this vicious cycle of environment pollution lies in Jain's nonviolent life-style which triggers mankind towards the nonviolent perspective of ecology, eco-friendly human survival. The Concept of Interdependence The right perspective of ecology is enshrined in the Jaina motto of "parasparopagraho-jīvānām"2 as quoted in the Tattvārtha Sūtra which highlights that all living organisms, however big or small, irrespective of the degree of their sensory perceptions, are bound together by mutual support and interdependence. They are and should remain in a harmonious and judicious balance with nature. Man is a social animal, so man and nature are so inter-woven with each other into the social fabric that there is a common thread, which binds us all. Many examples can be cited in this regard, which highlight mutual supportive relationship between all life forms and nature. Wherever one looks in nature, he seems to see evidence of 'balance', carnivores eat herbivores, herbivores eat plant; all of them die, rot and feed the plants again. If the plants increase, the herbivores will multiply too, but if they multiply too much, they over-stretch the plants and their numbers fall again. Perfect balance indeed. If any one component of a food chain is disrupted, then all the other creatures that are part of it must adjust. Some will suffer, though others may flourish, at-least temporarily.* It has also been proved scientifically that there is the cosmic bond, which had tied each living being in one chain.' Even genetic fact Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 approves this thought of inter-relation and as well as of interdependence as seen in 'Journey of Man'in National Geographic channel telecast of November, 2006. In this context Jain's first canonical text draws our attention towards the ecological perspective of the exposition of the equality of all souls. The very concept of interrelatedness and interdependence of living beings as cited in Ācārānga Sūtra paves us towards the truth that one cannot safeguard one's own existence by obliterating the existence of others. The denial of six classes of living beings namely earth-bodied, water-bodied, fire-bodied, airbodied and plant-bodied beings and mobile being is tantamount to the denial of self. This nonviolent approach is the basis of practical Jaina Environmental Ethics. So it is crystal clear that Environmental Ethics and Jaina Ethics are so interrelated with each other that we cannot discuss of one without the reference to the other. It is tantamount to the concept of Rousseau's, back to nature.? Nonviolent Perspective of Human Survival Today, we see our mother Earth is facing the problem of global warming, climate change, lacking resources due to over consumerism, ozone layer depletion, unethical science leading to experimental violence and decreasing earth planet. All these leading to environmental degradation are the sufficient facts highlighting the very human survival at stake. We increasingly realize that human alone cannot live on this planet. Humans have to live in the company of non-humans in complementary relationship. Nonviolent Jaina life style seems to be a ray of hope, which can prevent in a durable manner the current universal drift towards crisis of human survival. Teachings and practices as preached by Tīrthankara Mahāvīra namely practice of vegetarian life style, limitation of desires, self-imposed limitation over one's consumption, moral injection prescribed for undertaking less violent livelihood, limitation over unnecessary violence etc. can act as a panacea in solving the problem of environmental crisis for human survival. Vegetarian Life-style The Jaina life style is basically vegetarian life style. But when we look at present time of scenario, the percentage of meat-eaters Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain's Nonviolent Perspective of Human Survival : 107 are more than the vegetarians. Innocent animals are assaulted for the same of pleasing the palate. But by reading the first chapter, title- "Milk, Meat and Animal Violence" by Maneka Gandhi, our notion regarding the dairy products and meat that it gives a lot of protein and iron completely changes. She says vegetables are the best source of iron. She further says that the meat industries are responsible for huge amount of desertification. Research declares that four lacs people in India die out of meat eating every year through heart disease, colon cancer or by kidney failures. Now-adays vegetarianism is gaining ground among intellectuals who appreciate alcohol and meat consumption. Francois peroux, director of the Institute of Mathematics and Economics in Paris, has suggested that "if meat and alcohol consumption in the west were reduced by 50%, the grain that would become available would be enough to solve all hunger and malnutrition problems in the third world war. Vegetarian life style, if adopted will not only solve the present problem of deforestation which has disturbed the stable climate that world has enjoyed for the last 10,000 years but it will lead nation towards development without destruction. Limitation of desires and consumption The self egocentric attitude and desire to enjoy the utmost sophisticated technological comforts has led to the problem of environmental pollution. Each family member has his own independent conveyance, this has led to the tremendous air pollution and vehicle exhaust has led to the several road accidents. According to the World Watch Institute Report, there are all over 500 million automobiles on earth and about 19 million more are added each year and by 2010 it is likely to be doubled: 0 The global vehicle population growth is causing major green house gas and the toxic emissions like 60% of Carbon monoxide emissions, 42% of Nitrogen oxides, 40% of the Hydro carbon, etc. are responsible for over half of the global warming problem." Emissions of these pollutants depends on the number of vehicle in use and their emission rates. The IPCC scientists conclude that in the absence of efforts to cut greenhouse gas emissions through restrain (bhogopabhoga-parimāņa), sea levels will rise by between 10 and 30 cm by the year 2030, and by 30 to 100 cm by the end of the next Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 : Śramaņa, Vol 61, No. 3 July-September 10 century. "2 Not only control over production and consumption i.e. use ratio of vehicles to be minimize, all sorts of unnecessary increasing artificialities of over hoarding of wearing clothes, leather shoes and bags, cosmetics and machines of comforts like freeze, T.V., washing machine, cooler, heater in each room should be curtailed to protect increasing global warming. Limitation over unnecessary violence in prescribed Livelihood The increasing use of consumer goods fans the fire of ever growing desires. Desires leads to demand, demand leads to increase in production, which further leads to increase in consumption. This vicious circle can be overcome by the principle of restrain preached by Tīrthankara Mahāvīra which can act as a solution to all sources of problems. That's why Jaina householders never indulge in such occupations which involve high violence namely Vana Karma (livelihood from destroying plants), Bhātaka Karma (livelihood from transport), Danta vāṇijya (trade in animal byproducts), Rasa vāņijya (trade in alcohol etc.), Keśa vānijya (trade in animal hair), Dāvāgni Dāna karma (work involving setting fire to forests and fields), Vișa vānijya (trade in making poisons for medical use and for pesticides etc.). Although at present these professions yield heavy amount of profit and helps in attaining status in society but at the same time above mentioned professions are really anti-ecofriendly leading nation towards the development with destruction. Let us discuss the outcome of above mentioned trades. The artificial show of furniture at shops and homes has increased to a large extent and to meet the demands of the wooden raw material, cutting of forests is increasing day by day leading to climate change. Climate change in turn may have an impact on several major categories of diseases, including cardiovascular, cerebro-vascular, and respiratory diseases and stein cancer." The outcome of Bhātaka Karma i.e. of transportation is discussed earlier. Although ivory selling has been stopped all over the world, but trade of ivory continues at global level in spite of the ban. Ivory collector can take the tusks of a dead elephant but he intentionally kills by various methods and declares it as dead because people want ivory made materials. According to one estimate everyday nearly three species of life permanently disappear from the earth.14 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain's Nonviolent Perspective of Human Survival : 109 So danta vānijya is prohibited as it takes away the life of elephants. Lord Mahāvīra prohibited the supply of lethal weapons under the trade of viņa because Jainism asserts that the killer and the instrument given for killing, both are equally guilty of violence. In this modern age, for the maximum agriculture production, chemical fertilizers are used relentlessly which worked like a brown sugar and slow poisoning for our life supporting systems food, air, water etc. According to the WHO estimate, about 7,50,000 people are poisoned by pesticides every year. Moreover keśa vānijya, a trade in creatures that have hair amounts to huge violence. Maneka writes in her book "Head and Tails" Jacket with fur lining bags, caps etc. are made by killing beautiful hair holder animals. For example, for the preparation of self-curly Kalakul hat from the lamb hair, the mother and the ewe, is hit over a hundred times with an iron rod to induce, premature birth. The lamb is then skinned alive in front of her eyes so that its fur remains soft and curly.16 That's why Maneka talks of "Beauty without destruction." None of the items above are essential. That's why Lord Mahāvīra possessed the high level of intuition power in the restriction of violent professions like Danta. Keśa, Vişa Vānijya which initiates terrible harm to the animal species and at the same time violates the Jaina concept of interdependence i.e. our very survival is basically dependent upon the survival of the immobile and mobile beings. Conclusion In nutshell, human must develop a kind of universal obligation and respect for all other levels of beings for the protection of his own survival. Coexistence is the law of nature. An outstanding aphorism of Ācārārga Sūtra, which depicts the equality and oneness of the soul is Jar hanttavar ti mannası'' i.e. to whom you intend to kill is no one other than you yourself. Therefore, it asks to see the same consciousness flowing in all. If oneness of soul is recognized and experienced by all, then sympathy and compassion towards all life forms can be achieved which in turn can make the life better and worth living for present and future generation. So a minimum ethical code i.e. self limitation of desires, limitation over consumption, limitation over violent professions and limitation over unnecessary violence is essential Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 Śramana, Vol 61, No. 3 July-September 10 : for good environment at national level and also a global code of environmental ethics, to guide the behavior of the global society.18 Perhaps the seeds of new world order were already sown, through the Ahimsa March undertaken by Late Acarya Mahāprajña the sprouting has begun but the soil with appropriate nutrients is absent. The soil is a new philosophy of Jaina life and the basic nutrient is the environmental ethics. So adoption of Jaina nonviolent way of life style is the need of the hour for global environmental preservation, ecological balance and for the very human survival. References. 1. Jain, S.M. Environmental Ethics, Prakrit Bharati Academy, Jaipur, 2006, p. 1 2. Tattvārtha Sūtra, Umāsväti, 5.21 3. Colin Tudge, Global Ecology, Natural History Museum Publication, London, 1991, p. 129 4. Ibid, p. 112 5. Heidmaun, Jean, Cosmic Odyssey, Cambridge University Press, Britain, 1989, p. 165 6. Acārānga Sutra, 1.5.5.5. 7. History of Western Political Thought p. 584 8. Maneka Gandhi, Head and Tails, The Other India Press, Mapusa Goa, 1994, p. 7 9. Thich Nhat Hanh, Inter being: Fourteen Guidelines for Engaged Buddhism, ed. by Fred Eppsteever, Delhi, 1997, p. 43 Leggett, Jeremy (ed.), Global Warming, The Green-peace Report, Oxford University Press, Oxford, 1990, p. 150 11. Rajiv K. Sinha, Development without Destruction, Environmentalist Publisher, Jaipur, 1994, p. 95 12. Ibid, p. 127 13. Leggett, Jeremy (ed.), Global Warming, op. cit., p. 150 14. Rajiv K. Sinha, Development without Destruction, op. cit. p. 5 15. M.S. Sethi and Indrajeet Kaur Sethi, Understanding Our Environment, p. 233 16. Maneka Gandhi, Head and Tails, op. cit., P. 54 17. Acaranga Sūtra, (Angasuttāņi, JVB, 1992, 5.101 18. Jain, S.M., Environmental Ethics, op. cit, p. 10 * 10. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || विशिष्ट व्यक्तित्व कालजयी श्री भंवरलाल जी नाहटा' जैन संघ के वयोवृद्ध अग्रणी, लब्धप्रतिष्ठित इतिहासकार, जैन धर्म दर्शन एवं साहित्य के मर्मज्ञ, पुरातत्त्ववेत्ता, बहुभाषाविद्, आशु कवि श्री भंवरलालजी नाहटा का जन्म राजस्थान के बीकानेर शहर के प्रसिद्ध नाहटा परिवार में दानवीर सेठ श्री शंकरदानजी के पुत्र समाजसेवी श्रेष्ठिवर्य श्री भैरुदानजी नाहटा की धर्मपत्नी श्रीमती तीजादेवी की रत्नकुक्षी से दिनांक १९ सितम्बर १९११ को हुआ था। पांचवी कक्षा उत्तीर्ण कर आप चाचा सिद्धान्त महोदधि श्री अगरचंदजी नाहटा के साथ के श्रद्धेय उपाध्याय श्री सुखसागरजी, आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी के सान्निध्य व मार्गदर्शन में पठन-पाठन, लेखन व शोध-कार्यों में समर्पित भाव से जुट गये। १४ वर्ष की अवस्था में सेठ श्री रावतमलजी सुराणा की सुपुत्री जतन कॅवर के साथ आपका विवाह हुआ। छ: फुट के लम्बे-चौड़े, प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी श्री नाहटाजी के चेहरे का तेज प्रथम दृष्टा किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम था। ऊँची मारवाड़ी पगड़ी, धोती, कुर्ता, पगरखी का पहनावा जीवन पर्यन्त रखा। व्यापार के कारण राजस्थान देश छोड़ा परन्तु राजस्थानी वेश-भूषा खानपान व भाषा नहीं छोड़ी। आपने हजारों शोधपूर्ण लेखों का प्रकाशन किया। सैकड़ों ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन एवं प्रकाशन किया। 'कुशल निर्देश' मासिक पत्रिका का २२ वर्षों तक सम्पादन किया। ब्राह्मी, खरोष्ठी, देवनागरी आदि प्राचीन लिपियों; संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्टी, राजस्थानी, गुजराती, बंगाली आदि भाषाओं में लेखन एवं अनुवाद किया। आपके लेख न्यायालयों में साक्षी के रूप में मान्य थे। स्वतंत्रता आंदोलनों में सक्रिय सहयोग किया। जातिवादी परम्परा से दूर थे। सरस्वती पुत्र नाहटाजी लक्ष्मी पुत्र भी थे। साहित्य व समाज की सेवाओं के लिये अनेकानेक संस्थाओं ने आपका सम्मान कर गौरव की अनुभूति की, जिनमें प्रमुख हैं १४ दिसम्बर १९८६ में उड़ीसा के राज्यपाल श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डेय द्वारा कोलकाता में आयोजित समारोह में अभिनन्दन ग्रन्थ विमोचन। १३ जनवरी १९९१ हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा धनबाद अधिवेशन में “साहित्य वाचस्पति' से सम्मानित। ३० जनवरी १९९९ श्री जिनकान्तिसागरसूरि स्मारक * नाहटा-परिवार से प्राप्त। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० ट्रस्ट, माण्डवला द्वारा “जिनशासन गौरव" से सम्मानित । ६ जून १९९९ जैन कल्याण संघ, कोलकाता द्वारा समाज रत्न से सम्मानित । १९९८ वीरायतन राजगीर द्वारा सम्मानित । सभी क्षेत्रों में विशिष्टता व उच्चता लिये नाहटाजी की सादगी देखकर अनेक विद्वान् व अग्रणी श्रावक आश्चर्यचकित हो उठते थे। 'अहं' नाहटाजी में लेशमात्र भी नहीं था। प्रभुता को नहीं बल्कि लघुता को ही वे श्रेष्ठ मानते थे। हंस की तरह आपने श्रेष्ठता को ही सदैव ग्रहण किया। निडर, अडिग, निश्चल श्री नाहटाजी स्वप्रशंसा व विज्ञापन से सदा दूर रहे। भावनाशील नाहटाजी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति चित्रों के, गद्य के, पद्य के व विभिन्न पुरातन व वर्तमान भाषाओं के माध्यम से करते थे। पद्य के माध्यम से भावना अभिव्यक्ति की उनकी कृति क्षणिकाएं काफी चर्चित रहीं। गुरुदेव पर आपने अनेक रचनाएं की। नये से नये व छोटे से छोटे लेखक की कृति को सराहकर उनकी निरन्तरता बनाये रखने हेतु वे सदा उनको प्रोत्साहित करते रहते थे। ८५ वर्ष की उम्र तक आपने निरन्तर भ्रमण किया। भ्रमण का मुख्य उद्देश्य शोध ही रहा, चाहे वो पुरातत्त्व का हो, शिलालेखों का हो, साहित्य का हो, मूर्तियों का हो, खुदाई में प्राप्त पुरावशेषों का हो, तीर्थों का हो, इतिहास का हो या अन्य किसी विषय का हो। श्री जैन भवन, श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, श्री जैन श्वेताम्बर सेवा समिति, श्री जैन श्वेताम्बर उपाश्रय कमेटी, श्रीमद् देवचन्द्र ग्रन्थमाला, अखिल भारतीय श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ महासंघ, एल. डी. इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद, श्री नागरी प्रचारिणी सभा इत्यादि अनेक संस्थाओं से आप जुड़े रहे। रचनाएँ सती मृगावती, राजगृही, समय सुन्दर रास पंचक, हम्मीरायण, विविध तीर्थ कल्प, क्षणिकाएं, खरतरगच्छाचार्य प्रतिबोधित गौत्र व जातियाँ इत्यादि ५३ रचनाएँ हैं। इनके अतिरिक्त कुछ रचनायें स्व. अगरचंदजी नाहटा, श्री रमन लाल शाह तथा श्री सत्यरंजन बनर्जी के साथ सह सम्पादकत्व में प्रकाशित हैं। 'ढोला मारु रा दोहा' आदि ६ रचनाएँ अप्रकाशित हैं। सत्तर से अधिक पत्र-पत्रिकाएँ आपसे सम्बन्धित रही हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, डॉ. वासुदेव शरण Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट व्यक्तित्व : ११३ अग्रवाल, डॉ. मोती चन्द्र, श्री दलसुख मालवणिया, डॉ. ज्योति प्रसाद जैन, मदर टेरेसा, महोपाध्याय विनयसागर, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. सत्यरंजन बनर्जी, श्री नेमिचन्द जैन आदि विद्वानों से आपके विशेष सम्पर्क थे। अन्त में शारीरिक व्याधि बढ़ी लेकिन उन्होंने इस तरफ से अपना ध्यान हटाये रखा। पारिवारिक सदस्यों के टोकने पर वे श्रीमद् राजचन्द्र की ये पंक्तियाँ सुनाते 'आत्मा छु, नित्य डूं, देह थी भिन्न छु' और इस पंक्ति को अन्तिम दिनों में उन्हें कई बार गुनगुनाते हुए पाया गया। अपनी अथाह वेदना को अप्रगट ही रखते। देहावसान के दो दिन पूर्व ही उन्होंने कहा कि देह व आत्मा अलग है। स्विच ऑफ कर देने से दोनों का सम्बन्ध विच्छेद कर देह के कष्टों से अपने आपको उभारा जा सकता है। अन्त में ११ फरवरी २००२ को सायं ४.१० पर ध्यानाराधनापूर्वक शरीर त्याग किया। अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गये। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? | जिज्ञासा और समाधान (१) जिज्ञासा- आत्मा में वैभाविकी शक्ति (अशुद्धरूप परिणति) मानी जाती है तो वह मुक्तावस्था में भी रहेगी और कोई भी जीव शुद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हो सकेगा। 'मुक्तावस्था में उसका सर्वथा अभाव माना जाता है' यह कथन कैसे सम्भव है? क्योंकि किसी भी शक्ति (गुण) का कभी भी सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट करें कि यह आत्मा की वैभाविकी शक्ति क्या -श्री रामगोपाल जैन, यू.एस.ए. समाधान- प्रत्येक द्रव्य सत्-स्वभावी तथा परिणमनशील है। आत्मा में दो प्रकार का परिणमन करने की शक्ति है- (१) स्वाभाविक परिणमन (स्वाभाविकी क्रिया) और (२) वैभाविक परिणमन (वैभाविकी क्रिया)। ये दोनों प्रकार के परिणमन या क्रियायें सत् की पारिणामिक शक्ति हैं; ये न तो दो स्वतन्त्र शक्तियाँ हैं और न एक शक्ति का द्विधा-भाव। वस्तुत: शक्ति तो एक स्वाभाविकी ही है जो निमित्त विशेष के कारण विभाव रूप परिणत होने की योग्यता रखती है। स्वभाव-परिणमन विशेष-निमित्त-निरपेक्ष होता है और विभाव-परिणमन विशेष-निमित्त-सापेक्ष होता है। निमित्त दो प्रकार के हैं- सामान्य और विशेष। 'काल' सभी द्रव्यों के परिणमन में सामान्य निमित्त है। रागादि रूप भावकर्म और ज्ञानावरण आदि द्रव्य-कर्म आत्मा के विभाव रूप परिणमन में विशेष निमित्त हैं। इन कर्मादि विशेष निमित्तों के कारण आत्मा में विभाव रूप परिणति देखी जाती है। यह वैभाविक परिणमन विशेष-निमित्त-सापेक्ष होकर भी वस्त की उस काल में प्रकट होने वाली योग्यतानुसार ही होता है। संसारावस्था में कर्म-विशेष निमित्त से अमूर्त आत्मा कर्मों से बद्ध होकर मूर्त सा हो जाता है, परन्तु मुक्तावस्था में कर्म-विशेष निमित्तों का अभाव होने से उसमें वैभाविक परिणति नहीं होती है। ___ इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है, जैसे सफेद रोशनी यदि नीले रंग के कांच के गिलास पर पड़ती है तो वह नीली हो जाती है और यदि लाल गिलास पर पड़ती है तो वह लाल हो जाती है। रोशनी तो सफेद ही है, निमित्तविशेष (नीला/लाल) मिलने पर वह नीले अथवा लाल रंग की हो जाती है, वस्तुत: वह सफेद ही है। इसी तरह आत्मा की शक्ति तो स्वाभाविकी ही है परन्तु वह निमित्त-विशेष के मिलने पर भिन्न रूप प्रतीत होने लगती ___ * प्रो. (डॉ.) सुदर्शनलाल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा और समाधान : ११५ है। मुक्तावस्था में कोई कर्मादि-निमित्त नहीं रहते जिससे वह स्वाभाविक रूप में ही रहती है। (विशेष के लिए देखें पञ्चाध्यायी (राजमल्लकृत २.६१ से ९३ तथा जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भाग ३, पृष्ठ ५५७-५५९) (२) जिज्ञासा- 'पर्दूषण' और 'संवत्सरी' के क्या अर्थ हैं? इन्हें क्यों और कैसे मनाया जाता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में क्या अन्तर है? -डॉ. शारदा सिंह समाधान- 'पर्दूषण' इस संस्कृत शब्द का अर्थ है- जिसमें सब ओर से पापकर्मों को जलाया जाए (परितः समन्तात् उष्यन्ते दह्यन्ते कर्माणि यस्मिन् तत् पर्वृषण)। प्राकृत में इसे 'पेज्जूषण' कहा जाता है—पेज्ज' अर्थात् रागद्वेष और 'ऊषण' अर्थात जलाना। इस तरह ‘पयूषण' का अर्थ हुआ “रागद्वेष या संसार-परिभ्रमण के कारणभूत कार्यबन्ध की निर्जरा (नष्ट) करना।" जैसे क्रिश्चियन में क्रिसमस का, मुसलमानों में रमजान का और हिन्दुओं में नवरात्र-दशहरा का महत्त्व है वैसे ही जैनों में पर्युषण का महत्त्व है। यह एक आध्यात्मिक साधना तथा आत्मावलोकन का महापर्व है। इसे मिनी (छोटा) चातुर्मास भी कहते हैं। साधु तो महाव्रती होते हैं अत: वे पूर्ण रूप से धर्मनिष्ठ हैं परन्तु गृहस्थ कई कार्यों में व्यस्त रहता है। अत: उन्हें विशेष रूप से यह पर्व समाचरणीय है। इसमें गृहस्थ (श्रावक) अहिंसक आचरण का अभ्यास करते हैं, तन-मन को मांजकर उन्हें निर्मल करते हैं, क्षमा-अहिंसा को रोमरोम में बसाते हैं, आत्मा को सम्यक्त्व के रस में डुबोते हैं, अप्रमत्त होकर सर्व-परिग्रह से मुक्ति की कामना करते हैं, आत्मनिर्भर होकर आकांक्षाओं को सीमित करते हैं, क्रोध, ईर्ष्या आदि जो आत्मा के विभाव-भाव हैं उन्हें हटाकर सम्यक्त्व, क्षमा आदि स्वभाव-भाव की ओर अग्रसर होते हैं। इन दिनों में बच्चा-बच्चा एकासना या उपवास करने की इच्छा करता है। स्थानाङ्गसूत्र में धर्म के चार मार्ग बतलाए हैं जो चारों कषायों के अभाव रूप हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव और निर्लोभता। श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व आठ दिनों का होता है जिसे वे दिगम्बरों से पहले भाद्रपद कृष्णा बारस से भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी तक मनाते हैं तथा पञ्चमी को अथवा चतुर्थी को 'संवत्सरी' (क्षमा पर्व) का आयोजन करते हैं। संवत्सरी (संवत् अर्थात् वर्ष) का अर्थ है 'वार्षिक-प्रतिक्रमण' (दोषों का परिमार्जन, आभ्यन्तर कचड़ा हटाना एवं क्षमाभाव)। संवत्सरी को पज्जोसवणा या वर्षधर पर्व भी कहा जाताहै। 'क्षमा' एक 'कल्पवृक्ष' है जो स्वस्थ निर्मल Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० चित्त की उर्वरा (उपजाऊ) भूमि में खूब लहलहाता (फलीभूत होता) है। पर्दूषण पर्व की आराधना से निर्मल हुए चित्त में समापन पर 'क्षमा' या 'मिच्छा मे दुक्कडं' (मेरा अपराध मिथ्या हो) सार्थक है। इस दिन सामूहिक प्रतिक्रिमणपाठ पढ़ा जाता है और परस्पर क्षमाभाव के बाद साधार्मिक वात्सल्य भोज की स्वस्थ परम्परा है। प्रतिदिन करणीय प्रतिक्रमण की अपेक्षा इस वार्षिक (सांवत्सरिक) प्रतिक्रमण का बड़ा महत्त्व है। श्वेताम्बर इसे 'अष्टाह्निक पर्व भी कहते हैं। जीवाभिगम सूत्र में कहा है कि वर्ष में चार अष्टाह्निक पर्व आते हैं जो चैत्र सुदी, आषाढ़ सुदी, भाद्रपद सुदी और आश्विन सुदी सप्तमी से चतुर्दशी या अष्टमी से पन्द्रस तक। जो वर्ष में छः अष्टाह्निक पर्व मानते हैं वे इनमें कार्तिक सुदी और फाल्गुन सुदी को जोड़ देते हैं। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों में देवगण नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं और वहाँ अठाई महोत्सव मनाते हैं। दिगम्बर परम्परा में यह अलग पर्व है और वर्ष में तीन बार आता है- आषाढ़ सुदी (८-१५), कार्तिक सुदी (८-१५) तथा फाल्गुन सुदी (८-१५ कर्म आठ हैं, सिद्धों के गुण ८ हैं, प्रवचनमातायें ८ हैं, अत: पर्दूषण पर्व भी आठ दिनों का होता है। इन आठ दिनों में कर्मों की निर्जरा, सिद्धों के गुणों की साधना और प्रवचन-माताओं की आराधना की जाती है। 'अन्तगडसूत्र' का अथवा 'कल्पसूत्र' का पाठ किया जाता है। 'कल्प' का अर्थ है। 'साधु की आचारविधि'। भद्रबाहु प्रणीत कल्पसूत्र में चौबीस तीर्थङ्करों का जीवन चरित्र है तथा महावीर की उत्तरवर्ती स्थविरावलि भी है। इसकी गणना छेदसूत्रों में की जाती है। यह स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं अपितु दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन है। अन्तगड सूत्र में भगवान् नेमिनाथ और महावीर युग के ९० आत्म-साधकों का रोचक वर्णन है। यह आठवां अंग ग्रन्थ है। इसके आठ वर्ग भी हैं। चमत्कार और आडम्बरों से ध्यान हटाने के लिए इसके पाठ का प्रचलन हुआ है। विशेषकर प्रथम तीन दिन अष्टाह्निका व्याख्यान होता है और चौथे दिन से कल्पसूत्र की नौ वाचनाएँ होती हैं। पांचवें दिन तीर्थङ्कर माता त्रिशला के चौदह स्वप्न बतलाते हैं। छठे दिन महावीर की जीवनचर्या को बतलाकर उनका जन्म दिन भी मनाया जाता है। सातवें दिन तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और आदिनाथ का क्रमशः वर्णन किया जाता है। आठवें दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण पढ़ा जाता है। आठों दिन धार्मिक आयोजन होते हैं। संवत्सरी के दिन कल्पसूत्र का मूलपाठ (श्री वारसासूत्र) पढ़ा जाता है। कालान्तर में श्वेताम्बरों में निम्न Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा और समाधान : ११७ चार प्रमुख पन्थ हुए- १. खरतरगच्छ जिसकी स्थापना वि.सं. १२०४ में आ. जिनवल्लभसूरि के शिष्य आ. जिनदत्तसूरि ने की थी। २. अचलगच्छ जिसकी स्थापना वि.सं. १२१३ में श्री आ. आर्यरक्षित या विजयचन्द्र सूरि ने की थी। ३. स्थानकवासी (लुकामत या लोकागच्छ) जिसकी स्थापना वि.सं. १५०८ में हुई थी; ये संवत्सरी भादों सुदी पंचमी को मनाते हैं। ४. तेरापन्थ जिसकी स्थापना वि.सं. १८१८ में श्री आ. भीखम जी ने की थी तथा आचार्य तुलसी और महाप्रज्ञ जिसके अनुयायी थे। ये सभी कल्पसूत्र की वाचना करते हैं। दिगम्बर परम्परा इस पर्व को 'दशलक्षण' पर्व के नाम से मनाते हैं जिसमें उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों की आराधना की जाती है अथवा तद्प आचरण किया जाता है। यहाँ उत्तम शब्द सम्यक्त्व का बोधक है। वे दश धर्म निम्न हैं १. उत्तम क्षमा (क्रोध पर संयम), २. उत्तम मार्दव (मृदुता या मान कषाय पर संयम, ३. उत्तम आर्जव (ऋजुता, सरलता या माया कषाय पर संयम), ४. उत्तम शौच (शुचिता या लोभ कषाय पर संयम), ५. उत्तम सत्य (सत्यनिष्ठता या हित-मित-प्रिय वचन व्यवहार), ६. उत्तम संयम (शरीर, इन्द्रिय और मन पर नियन्त्रण), ७. उत्तम तप (उपवास आदि बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप करना), ८. उत्तम त्याग (बाह्य धनादि परिग्रह तथा अहंकार आदि आभ्यन्तर परिग्रह का विसर्जन), ९. उत्तम आकिञ्चन (शरीरादि से पूर्ण निर्लिप्त होना) और १० उत्तम ब्रह्मचर्य (कामेच्छा से रहित होकर आत्म-ध्यान में लीन होना)। वस्तुत: ये दश धर्म नहीं हैं अपितु एक ही धर्म के दश लक्षण हैं जिसका तात्पर्य है कि कोई भी धर्म का पालन करोगे तो शेष का भी पालन करना पड़ेगा क्योंकि ये सभी आत्मा के स्वभाव हैं और एक दूसरे में गतार्थ हैं। यह पर्व दिगम्बरों में १० दिन का होता है और क्रमश: एक-एक दिन एक-एक धर्म (उत्तम क्षमा आदि) का विशेष पालन किया जाता है। देव-पूजन, शास्त्र-स्वाध्याय आदि धार्मिक आयोजन होते हैं। यह पर्व यद्यपि आष्टाह्निकों की तरह वर्ष में तीन बार (चैत्र, भाद्रपद और माघ मास में शुक्ल पक्ष की पञ्चमी से चतुर्दशी तक) आता है परन्तु भाद्रपद में ही इसके मनाने का व्यवहार है। श्वेताम्बरों में तीन बार का कोई उल्लेख नहीं है। दिगम्बरों में यह पर्व श्वेताम्बरों की सम्पूर्ति होने के बाद मनाया जाता है। दिगम्बरों के दशलक्षण पर्व के मध्य में अन्य व्रत भी आते हैं, जैसेषोडशकारण, लब्धिविधान, रोटतीज, पुष्पाञ्जलि, शील-सप्तमी, सुगन्धदशमी, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० अनन्तव्रत, अनन्त-चतुर्दशी, तीर्थङ्कर शान्तिनाथ एवं सुपार्श्वनाथ का गर्भ कल्याणक, तीर्थङ्कर पुष्पदन्त और वासुपूज्य का निर्वाण (मोक्ष) कल्याणका दिगम्बरों में इस पर्व को भाद्रपद (५-१४ तिथियों) में मनाने के पीछे एक घटना का उल्लेख आता है- अवसर्पिणी (जिस काल में धर्म का और सुखादि का क्रमशः ह्रास होता है) के पञ्चम आरा या काल (दुःखमा) की समाप्ति तथा छठे काल (दुःखमा-दुःखमा) के प्रारम्भ होने पर हिंसा प्रधान अनार्यवृत्ति का आविर्भाव हो जाता है। छठे काल के समाप्त होने पर और उत्सर्पिणी (जिस काल में धर्म और सुखादि का क्रमशः विकास होता है) के प्रथम काल (दुःखमा-दुःखमा) का प्रारम्भ होने पर श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से सात सप्ताह (७x७=४९ दिन) तक सात प्रकार की वर्षा होती है पश्चात् धर्माराधना का सुयोग आता है। इसी समय सौधर्म इन्द्र विजयार्ध की गुफा से स्त्री. पु. के ७२ जोड़ों को बाहर निकालता है जिन्हें उसने प्रलय के समय वहाँ छिपाया था। जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में यह घटना उत्सर्पिणी के प्रथम आरा की समाप्ति तथा द्वितीय आरा के प्रारम्भ होने पर बतलाई है और तदनुसार श्वेताम्बर रस मेघ वाले सातवें सप्ताह में (भाद्रपद कृष्णा १२ से पर्दूषण पर्व मानते हैं तथा अन्त में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी या पञ्चमी को संवथ्सरी मनाते हैं। यही दोनों परम्पराओं में अन्तर है। इसे हम वर्तमान समयचक्र से भी समझ सकते हैं। ___आश्विन कृष्णा एकम् को दिगम्बर (संवत्सरी) क्षमावाणी मनाते हैं। परस्पर गले लगकर एक दूसरे से क्षमा-याचना करते हैं तथा सहभोज आदि करते हैं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यापीठ के प्रांगण में वनस्पति विज्ञान और जैन धर्म में पर्यावरण संरक्षण लाला हरजसराय जैन स्मृति मासिक व्याख्यान माला के अन्तर्गत पार्श्वनाथ विद्यापीठ में शनिवार दिनाङ्क १५.८.२०१० को सेवा निवृत्त प्रोफेसर (डॉ.) डी. एन. तिवारी (पूर्व विभागाध्यक्ष वनस्पति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) ने अपने व्याख्यान में बतलाया कि जैन धर्म के जो आचार सम्बन्धी नियम, उपनियम हैं वे वनस्पति विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अहिंसा, पर्यावरण, स्वास्थ्य आदि दृष्टियों से उनका बड़ा महत्त्व है। उन्होंने यह भी बतलाया कि कोई वस्तु सर्वथा नष्ट नहीं होती है बल्कि उसकी पर्याय बदलती है। पेड़-पौधे किस तरह पनपते हैं और कैसे मानव जाति के लिए उपकारी हैं? इसका विवेचन किया। ‘काई' जैसी तुच्छ वस्तु भी हमारे लिये उपयोगी है। अत: सबका संरक्षण अति आवश्यक है अन्यथा प्रकृति का असंतुलन हमारे लिए तथा समस्त जीव जगत् के लिए घातक सिद्ध होगा। अत: पर्यावरण संरक्षण के लिए जैन धर्म को पालन करना नितान्त आवश्यक है। प्रो. त्रिपाठी ने सभा में उपस्थित सभी के प्रश्नों का समुचित उत्तर दिया। अध्यक्षता प्रो.(डॉ.) सुदर्शनलाल जैन ने की तथा डॉ. एस.पी. पाण्डेय ने संचालन किया। इस अवसर पर विभिन्न विद्वान् प्रो. कमलेश जैन, डॉ. मनोरमा जैन, ओम प्रकाश सिंह, डॉ. शारदा सिंह, दीपिका जैन, मलय झा, राघवेन्द्र पाण्डेय, श्वेता सिंह आदि उपस्थित थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पुस्तकालयाध्यक्ष शोध-हेतु पंजीकृत पार्श्वनाथ विद्यापीठ के शतावधानी रतनचन्द्र जैन पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष श्री ओम प्रकाश सिंह का शोध हेतु पंजीयन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, कला संकाय में संस्कृत विभाग के प्रोफेसर श्री यू.पी. सिंह के निर्देशन में हुआ है। श्री सिंह का शोध-विषय “जैनकोश ग्रन्थों का समीक्षात्मक अध्ययन" है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १० प्रो. (डॉ.) श्री विमल प्रकाश जैन का विद्यापीठ में आगमन हमें यह सूचित करते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि जबलपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत-पालि- प्राकृत विभाग के सेवा-निवृत्त प्रोफेसर तथा भोगीलाल लहेरचन्द भारतीय संस्कृति संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक प्रो. (डॉ.) विमल प्रकाश जैन जी का पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में अक्टूबर मास की २२ तारीख को पार्श्वनाथ विद्यापीठ के विकास हेतु आगमन हो रहा है। इसके पूर्व आप अमेरिका में शोध-कार्यरत थे। पार्श्वनाथ विद्यापीठ उनके स्वागत को आतुर है। जैन विश्वकोश का प्रथम खंड पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित बहुप्रतीक्षित जैन विश्वकोश का प्रथम खण्ड " जैन कला व स्थापत्य" प्रकाशित हो चुका है। इस विश्वकोश के सम्पादक विद्वान् त्रय प्रो. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, प्रो. हरिहर सिंह एवं प्रो. कमल गिरि ने जैन कला व स्थापत्य के विभिन्न आयामों को प्रामाणिकता के साथ सचित्र व्याख्यायित किया है। इसके मुख्य संपादक प्रो. सागरमल जैन जी हैं। यह अपने तरह का एक अनूठा कार्य है जो पहली बार पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित किया गया है। अन्य छह खण्ड भी यथा शीघ्र पूर्ण होने की प्रक्रिया में हैं। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार एवं सराक पुरस्कार २००९ की घोषणा परमपूज्य राष्ट्रसंत, उपाध्यायरत्न श्री ज्ञानसागरजी महाराज की पावन प्रेरणा से स्थापित श्रुत संवर्द्धन संस्थान द्वारा १९९७ से नियमित रूप से प्रत्येक वर्ष पाँच (स्मृति) श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इन पुरस्कारों के अन्तर्गत अब तक ६१ विद्वानों का सम्मान किया जा चुका है। सम्प्रति प्रत्येक पुरस्कार के अन्तर्गत घोषित क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने वाले चयनित विद्वान् / विदुषी को रु. ५१,०००/- की नगद राशि, शाल, श्रीफल एवं प्रशस्तिपत्र प्रदान कर सम्मानित किया जाता है। सराक पुरस्कार- इन पाँच श्रुत संवर्द्धन पुरस्कारों के साथ ही सराक क्षेत्र में कार्यरत तथा विशिष्ट योगदान देने वाली संस्थाओं / महानुभावों से भी सराक पुरस्कार - २००९ हेतु आवेदन पत्र आमंत्रित किए जाते हैं। इस पुरस्कार हेतु तथा अन्य जानकारी हेतु सम्पर्क करें - डॉ. अनुपम जैन, पुरस्कार संयोजक, ज्ञान- छाया, डी.-१४, सुदामा नगर, इन्दौर - ४५२००९ डॉ. उदयचन्द्र जैन को प्राकृत में राष्ट्रपति पुरस्कार मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. उदयचन्द्र जैन प्रसिद्ध भाषाविद् एवं जैन दर्शन के समर्पित लेखक हैं। डॉ. जैन का जन्म २ अप्रैल १९४७ को म.प्र. के बम्हौरी ग्राम (छतरपुर) में हुआ था। आपने जबलपुर एवं बनारस में अध्ययन कर जैन दर्शन शास्त्राचार्य (बी.एच.यू. से स्वर्ण पदक प्राप्त) एवं एम.ए. हिन्दी, एम. ए. पालि- प्राकृत, तथा जैन विद्या एवं प्राकृत में पी-एच. डी की उपाधियाँ प्राप्त की हैं। प्रारम्भ में आपने इन्दौर के जैन संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। १९७९ में आप सुखाड़िया विश्वविद्यालय में सेवारत हुए और २००७ अप्रैल में वहाँ से सेवानिवृत्त हुए। आपके उल्लेखनीय कार्यों एवं योगदानों के लिए १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल द्वारा प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रपति पुरस्कार की घोषणा की गई। डॉ. उदयचन्द्र जैन ने जैन धर्म व समाज की सेवा में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया है। आपके निर्देशन में लगभग ३० शोध छात्रों ने पी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आपने १०० से अधिक शोध पत्र एवं हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में दर्जनों पुस्तकें लिखी हैं। सम्मान-पुरस्कार- डॉ. जैन को अपनी साहित्य-साधना के लिये द्विवागीश पुरस्कार, अनेकान्त पुरस्कार, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार, पर्यावरण पुरस्कार, इत्यादि पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से बधाई है। बाईसवाँ तथा तेईसवाँ मूर्तिदेवी पुरस्कार मूर्तिदेवी पुरस्कार प्रतिवर्ष किसी ऐसी चिन्तनपरक रचना के लिए दिया जाता है जो भारतीय दर्शन तथा सांस्कृतिक धरोहर के व्यापक आदर्शों पर आधारित तथा मानवीय मूल्यों को रेखांकित करती हो। वर्ष २००८-२००९ के पुरस्कार हेतु प्रस्ताव भेजने की अंतिम तिथि १५ सितम्बर २०१० है। प्रस्ताव पत्र व सम्बद्ध नियमावली के लिए सम्पर्क करें- भारतीय ज्ञानपीठ, १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-११०००३ वर्ष २०१० का तरुणक्रान्ति पुरस्कार क्रान्तिकारी राष्ट्रसंत मुनिश्री तरुणसागर जी के सान्निध्य में म.प्र. के राज्यपाल श्री रामेश्वर ठाकुर के कर-कमलों से वर्ष २०१० का प्रथम तरुण क्रान्ति पुरस्कार भोपाल में १ अगस्त २०१० को दैनिक भास्कर ग्रुप के चैयरमैन श्री रमेश अग्रवाल व पहली आई.पी.एस. महिला डॉ. किरण बेदी को दिया गया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ की ओर से बधाई है। दीपा जैन को पी-एच.डी. की उपाधि दीपा जैन ने अपना शोध कार्य २०१० में गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद के डॉ. दीनानाथ शर्मा, एसोसिएट प्रोफेसर-प्राकृत भाषा विभाग के मार्गदर्शन में पूर्ण किया है। इस शोध में शोधार्थी ने गुणस्थान जैसे गूढ़ विषयाभिगम की सैद्धान्तिकता को बनाए रखते हुए इसे सरल व सहज स्वरूप में विश्लेषित किया है। शोध में गुणस्थान के मनोवैज्ञानिक आधार एवं प्रमुख भारतीय दर्शनों के साथ गुणस्थान के तुलनात्मक अभ्यास को प्रमुखता से सामने रखा है जो इस क्षेत्र में अभिनव आयामों का प्रतिनिधित्व करता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् : १२३ अपभ्रंश सूचना अकादमी, जयपुर राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर द्वारा मान्यता प्राप्त पत्राचार सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम के अन्तर्गत 'अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' तथा 'प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' के लिए आवेदन पत्र आमंत्रित हैं। प्राकृत व अपभ्रंश भाषा सीखने का इच्छुक व्यक्ति प्रवेश हेतु आवेदनपत्र व नियमावली कार्यालय से निःशुक्ल १५ अक्टूबर २०१० तक प्राप्त कर सकता है। आवेदन की अन्तिम तिथि १५ दिसम्बर २०१० है। आवेदनप्राप्ति का पता- अपभ्रंश साहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारक जी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर ३०२००४ है। धर्म व दर्शन में सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम २०१० में प्रवेश हेतु किसी भी विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण अभ्यर्थी पाठ्यक्रम सत्र १ जनवरी २०११ से ३१ दिसम्बर २०११ के लिये जयपुर कार्यालय से आवेदन पत्र प्राप्त कर १५ दिसम्बर २०१० तक भेज सकता है। पाठ्यक्रम शुल्क ३१०/ है। अन्य जानकारी हेतु सम्पर्क करें- दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-३०२००४ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला महासभा द्वारा निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला महासभा के तत्त्वावधान में एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है जिसका विषय है "जैन जीवन पद्धति द्वारा मधुमेह से छुटकारा पाने का सर्वोत्तम उपाय"। उक्त विषय पर निबन्ध भेजने की अन्तिम तिथि ३० अक्टूबर २०१० है। इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ११००० तथा द्वितीय पुरस्कार ५१०० है। प्रतियोगिता हेतु भेजा जा रहा निबन्ध हिन्दी में टाईप किया हुआ तथा हासिया छोड़कर एक तरफ लिखा हुआ होना चाहिये। निबन्ध दो हजार शब्दों से अधिक का नहीं होना चाहिये। निबन्ध भेजने का पता है- डॉ० संगीता देवी बोहरा (अध्यक्षा), श्री दिगम्बर जैन महिला महासभा (पं. बंगाल) १७, बैशाख स्ट्रीट, कोलकाता-७००००७, मो. नं. ९८३० १२१८८८ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० अन्तःराष्ट्रीय भगवान् वासुपूज्य जैन दर्शन निबन्ध प्रतियोगिता, २०१० अन्तःराष्ट्रीय भगवान् वासुपूज्य जैन निबन्ध प्रतियोगिता, वर्ष २०१० का आयोजन विधि विद्यापीठ में किया जा रहा है। यह 'अहिंसा से ही विश्व शान्ति संभव है' नामक विषय पर आधारित है। प्रतियोगिता में भाग लेने के इच्छुक प्रतिभागी निम्न पते पर सम्पर्क करें निदेशक विधि विद्यापीठ-अमित जैन, एडवोकेट ५, प्रेरणा काम्पलैक्स, पी.एल. शर्मा रोड, मेरठ-२५०००१, मो. ०९७१९९३०७० मुनिश्री तरुणसागर के कड़वे प्रवचन, भाग-६ का लोकार्पण क्रान्तिकारी संत के नाम से विख्यात जैन मुनि श्री तरुणसागरजी म. आजकल भोपाल में चातुर्मास कर रहे हैं। पिछले दिनों दशहरा मैदान में १ से ११ अगस्त के बीच उनके प्रवचनों की विशेष शृंखला चली। अपने कड़वे वचनों के लिये चर्चित जैन मुनिश्री तरुणसागरजी ऐसे संत हैं जो प्रभु वंदना की अपेक्षा कर्मों को सुधारने का रास्ता बताते हैं। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मुनिश्री के कड़वे वचनों से जनमानस में आचार-विचार की दिशा में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन होगा। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार पुस्तक समीक्षा ग्रन्थ-'सुदर्शनचरितम्', लेखक- श्री विद्यानन्दी, हिन्दी अनुवादकआनन्द कुमार जैन, संपादक- प्रो. (डॉ०) कमलेश कुमार जैन, प्रकाशकनिर्ग्रन्थ फाउण्डेशन, भोपाल, प्रथम संस्करण २००९, मूल्य-३०० रुपया मुमुक्षु विद्यानन्दी द्वारा रचित 'सुदर्शनचरितम्' संस्कृत भाषा की एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसका हिन्दी अनुवाद आनन्द कुमार जैन ने प्रो. (डॉ.) कमलेश कुमार जैन के संपादकत्व में किया है। ध्यातव्य है कि भगवान महावीर की परम्परा में दस अन्तकृत् केवली हुए हैं। 'सुदर्शनचरितम्' भगवान् महावीर के पाँचवें अन्तकृत् केवली सुदर्शन स्वामी के जीवन चरित पर आधारित ग्रन्थ है। सुदर्शन स्वामी का जीव अपने पूर्व जन्म में व्याघ्र, कुत्ता, शिकारी-पुत्र सुभग नामक गोपालक तदनन्तर सुदर्शन कुमार के रूप में जन्म लेता है तथा अपने प्रबल पुरुषार्थ, पुण्य-कर्म, णमोकार मन्त्र व शील के प्रभाव से उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर अन्त में सर्वोच्च पद 'मोक्ष' को भी प्राप्त कर लेता है इससे यह सिद्ध होता है कि हमें कभी भी सत्य का त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि जीत अन्ततः सत्य की ही होती है। प्रमाणों के आधार पर विद्यानन्दी का समय वि.सं. १४९९ से १५३८ के मध्य था। इस आधार पर 'सुदर्शनचरितम्' का लेखन काल १५३१ (ई. सन् १४५६) के आस-पास माना जाता है। - इस ग्रन्थ की विशेषता है कि मूल श्लोकों के मध्य में अन्य ग्रन्थों से उद्धृत १६ पद्य भी हैं जो संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा के हैं। इसमें मुमुक्षु विद्यानन्दी ने शान्त रस के साथ अलंकारों, छन्दों आदि काव्य तत्त्वों का भी यथावसर प्रयोग किया है जो इसे महाकाव्यीय रूप प्रदान करता है। प्रस्तुत ग्रन्थ १२ अधिकारों में विभक्त है जिनमें १२८८ अनुष्टुप्, १० शार्दूलविक्रीडित, ६ आर्या, ४ मालिनी, ३ इन्द्रवज्रा, ३ उपजाति और एक वसन्ततिलका छन्द है। इस प्रकार कुल मिलाकर १३५१ पद्यों से सुसज्जित इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद कर आनन्द कुमार जैन ने हिन्दी पाठकों को अमूल्य उपहार दिया है। इस ग्रन्थ के अनुवादन व संशोधन में अनेक विशिष्ट विद्वानों ने भी सहयोग दिया है जिससे ग्रन्थ में प्रामाणिकता के साथ ओजस्विता भी सहज ही द्रष्टव्य होती है। इस कार्य के लिये आनन्द कुमार जैन निश्चय ही बधाई के पात्र हैं। यह ग्रन्थ सुधी पाठकों के लिए अवश्य ही संग्रहणीय है। डॉ. शारदा सिंह (शोधाधिकारी, पार्श्वनाथ, विद्यापीठ) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १० जैन जगत् जैन - परम्परा और यापनीय संघ लेखक, प्रो. (डॉ.) रतनचन्द्र जैन, भोपाल, प्रकाशक- सर्वोदय जैन विद्यापीठ, १/२०५ प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा, ई. २००९ प्रथम संस्करण, मूल्य रु.५००, पृष्ठ संख्या २३३५ (६४५ + ८४३ + ८४७) यह विशालकाय ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त है तथा प्रत्येक खण्ड अध्यायों तथा प्रकरणों में विभक्त है। इस ग्रन्थ में जैन संघों के इतिहास, साहित्य, सिद्धान्त और आचार की गवेषणा की गई है। दिगम्बर विद्वान् पं. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य और इतिहास', दिगम्बर विदुषी डॉ. कुसुम पटोरिया द्वारा लिखित 'यापनीय और उनका साहित्य' तथा श्वेताम्बर विद्वान् प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन द्वारा लिखित, 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' वस्तुतः इन तीन ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयवस्तु के निराकरणार्थ प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन किया गया है। दिगम्बराचार्य परम पूज्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज का लेखक को विशेष आशीर्वाद प्राप्त है। प्रो. (डॉ.) सागरमल जी से इस ग्रन्थ के लेखक का मैत्री सम्बन्ध भी है तथा उन्होंने अपने ही मत के निराकरणार्थ लेखक को सहयोग दिया है, जो मैत्री तथा उदार - भावना का परिचायक है। दोनों का उद्देश्य शोध करके वस्तुस्थिति को प्रकट करना है, वैमनस्य नहीं। विद्वानों को सभी ग्रन्थों के तर्कों और प्रमाणों का सम्यक् चिन्तन करके सौहार्द बनाए रखना चाहिए । १. कसायपाहुड, २. कसायपाहुड - चूर्णिसूत्र, ३. षट्खण्डागम, ४. भगवती-आराधना, ५. भगवती - आराधना की विजयोदया टीका, ६. मूलाचार, ७. तिलोयपण्णत्ति, ८. पद्मपुराण, (रविषेण), ९. वराङ्गचरित, १०. हरिवंश पुराण, ११. पउमचरिउ (स्वयम्भू), १२. बृहत्कथाकोश, १३. छेदपिण्ड, १४. छेदशास्त्र, १५. प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी (प्रतिक्रमण, बृहत्प्रतिक्रमण और आलोचना ) तथा १६. तत्त्वार्थसूत्र (बृहत्प्रभाचन्द्र) इन सोलह दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीय - परम्परा का मानकर उनके आधार पर सवस्त्र - मुक्ति, स्त्री-मुक्ति, परतीर्थिक- मुक्ति, गृहस्थमुक्ति, केवलि-भुक्ति आदि को मूल जैन परम्परा का सिद्धान्त बतलाना तथा आचार्य कुन्दकुन्द को ईसा की पांचवीं शताब्दी का बतलाना, इस ग्रन्थ के लेखक को स्वीकार नहीं है। अपनी इस कृति में लेखक ने विस्तारपूर्वक प्रमाण एवं तर्क- के आधार पर अपने मत की पुष्टि की है। लेखक ने यह सिद्ध किया है कि दिगम्बर परम्परा मूल परम्परा है, यह न तो बोटिक परम्परा है और न यापनीय परम्परा । यापनीय संघ की उत्पत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी में हुई और ईसा की १५वीं शताब्दी में विलुप्त हो गई थी। ईसा की ५वीं शताब्दी तक दिगम्बर जैन संघ निर्ग्रन्थ श्रमण संघ के नाम से तथा श्वेताम्बर जैन संघ श्वेतपट श्रमण संघ के नाम से प्रसिद्ध था । लेखक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार : १२७ ने हड़प्पा संस्कृति की खुदाई से प्राप्त नग्न जिन-प्रतिमाओं के आधार पर आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व तक दिगम्बर जैन संघ के अस्तित्व को सिद्ध किया है। 'कुन्दकुन्दाचार्य ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए थे' ऐसा भी सिद्ध किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की संक्षिप्त रूपरेखा निम्न प्रकार है प्रथम खण्ड- यह सात अध्यायों और तेईस प्रकरणों में विभक्त है। प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में 'दिगम्बर मत को मिथ्यामत और अर्वाचीन कहना कोरी कल्पना है, इसमें कोई तर्क नहीं है। यह सिद्ध किया गया है। तृतीय अध्याय में श्वेताम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध दिगम्बर मत के उल्लेखों का खण्डन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में जैनेतर वैदिक साहित्य, संस्कृत काव्य साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में उपलब्ध दिगम्बर मुनियों की चर्चा है। पञ्चम अध्याय में दिगम्बर-सम्मत पुरातात्त्विक साक्ष्यों को प्रस्तुत किया गया है। षष्ठ अध्याय में दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद के इतिहास को स्पष्ट किया गया है। सप्तम अध्याय में यापनीय संघ का इतिहास दर्शाया गया है। द्वितीय खण्ड- यह पाँच अध्यायों (८ से १२) और उन्तीस प्रकरणों में विभक्त है। अष्टम अध्याय में कुन्दकुन्दाचार्य के भट्टारक होने का और नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती के यापनीय होने का खण्डन किया गया है। नवम अध्याय में कुन्दकुन्दाचार्य के गुरु-नाम तथा उनके स्वयं के नाम के अनुल्लेख के कारणों का विचार किया गया है। दशम अध्याय में कुन्दकुन्दाचार्य के समय सम्बन्धी मतों की समीक्षा की गई है। एकादश अध्याय में दिगम्बर ग्रन्थ षट्खण्डागम सम्बन्धी शङ्काओं का समाधान किया गया है। द्वादश अध्याय में दिगम्बर ग्रन्थ कसायपाहुड सम्बन्धी शंकाओं का निराकरण किया गया है। तृतीय खण्ड- यह तेरह अध्यायों (१३ से २५) और बत्तीस प्रकरणों में विभक्त है। त्रयोदश अध्याय से त्रयोविंश अध्यायों में क्रमश: भगवतीआराधना, विजयोदया टीका के कर्ता अपराजितसूरि, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन, रविषेणकृत पद्मपुराण, वराङ्गचरित, हरिवंशपुराण, स्वयम्भूकृत पउमचरिउ, बृहत्कथाकोश को; चतुर्विंश अध्याय में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी को तथा पञ्चविंश अध्याय में बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को दिगम्बर ग्रन्थ प्रतिपादित किया गया है। अन्त में शब्द-विशेष सूची तथा संदर्भग्रन्थ सूची है। प्रारम्भ में प्रस्तावना विषयक विस्तृत विषय-विवेचन है। पन्थ-भेद से ऊपर उठकर ग्रन्थ पठनीय एवं संग्रहणीय है। डॉ. (प्रो.) सुदर्शनलाल जैन निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PPC : $90, af & 8, 3tch 3/ Torg-fetchell-fo Statement about the Ownership & other Particulars of the Journal ŚRAMANA 1. Place of Publication : Parshwanath Vidyapeeth I.T.I. Road, Karaundi Varanasi-5 2. Periodicity of Publication : Quarterly 3. Printer's Name, Nationality: Anand Kumar Jain, Indian and Address for Mahaveer Press, Bhelupur Varanasi-10 4. Publisher's Name : Indrabhooti Barar, Indian Nationality and Address Parshwanath Vidyapeeth I.T.I. Road, Karaundi Varanasi-5 5. Editor's Name, Nationality : Prof. Sudarshan Lal Jain, Indian and Address Parshwanath Vidyapeeth I.T.I. Road, Karaundi Varanasi-5 6. Name and address of : Parshwanath Vidyapeeth individuals who own the I.T.I. Road, Karaundi Journal and Partners or Varanasi-5 share-holders holding more than one percent of the total capital I, Indrabhooti Barar hereby declare that the particulars given above are true to the best of my knowledge and belief. Dated : 1.9. 2010 Signature of the Publishers s/d Dr. Indrabhooti Barar Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO PLY, NO BOARD, NO WOOD ONLY NUWUDR INTERNATIONALLY ACCLAIMED Nuwud MDF is fast replacing ply, board and wood in offices, homes & industry, As cellings DESIGN FLEXIBILITY flooring furniture, mouldings, panelling, doors, windows... and almost infinite variety of VALUE FOR MONEY woodwork. So, if you have woodwork in mind, just think NUWUD MDF C1 LIMITEE NUWUD Toe word for Registered Head Office : 20/6, Mathura Road, Faridabad-121006, HARYANA Tel: +91 129 230400-6, Fax: +91 129 5061037. all your med Marketing Offices Ahmedabad : 502. Anand Mangal, Complex -1. 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Mumbai: Shive Centre Office No. 214, 2 Floor, Plot No. 72, Sec-17, Vashi Navi Mumbai-400705. Tel: 022-39436667, 25002250, Fax: 022-25002250. Pune : 209, 2nd floor, Ashoka Mall, Opp. Hotel Sun N Sand, Bundgarden Road, Pune-411001. Tel: 020-39505076,6121353, Fax: 020-26121353.