SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० आदि ग्रन्थों की अनेक गाथायें अक्षरश: उद्धृत हैं। इस कारण अनेक विद्वानों ने इसे संग्रह ग्रन्थ माना है। इसमें मुख्य रूप से प्रायश्चित्त के विधि-विधान की चर्चा है। इसमें जिनभद्रगणि ने आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जित इन पाँच प्रकार के व्यवहारों का विस्तार से विवेचन किया है। सारांश में आचार चारित्र की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का व्यवहार अनिवार्य माना है। ___ इनके द्वारा रचित तीसरा भाष्य वृहत्कल्प लघु भाष्य है जो छेदसूत्र बृहत्कल्प के मूल सूत्रों पर आधारित है।२० जैन धर्म एवं संस्कृति को समझने के लिए इस भाष्य का विशेष महत्त्व है। इससे प्रथम बार जैन धर्म की संगठनात्मक व्यवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। इसमें जैन श्रमणों के पाँच प्रकार-आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक तथा भिक्षुणियों के पाँच प्रकार-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा और क्षुल्लिका बताया गया है। इस ग्रन्थ में भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए उचित एवं अनुचित उपाश्रय, भिक्षुभिक्षुणियों के विहार का उपयुक्त काल एवं स्थान, रात्रि भोजन का निषेध आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में 'बृहत्कल्प लघुभाष्य' का जैन साहित्य के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें भाष्यकार के समय की एवं अन्य समकालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली सामग्री की प्रचुरता का दर्शन होता है। इनके द्वारा अन्य रचित ग्रन्थ बृहत्कल्पभाष्य अपूर्ण ही प्राप्त होता है। इसमें बृहत्कल्प लघुभाष्य में प्रतिपादित विषयों का ही विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। __व्यवहारभाष्य उनके द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण भाष्य है। यह भाष्य भी भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार-व्यवहार से सम्बन्धित है। इसमें भी बृहत्कल्पलघुभाष्य के ही समान आचार-व्यवहार एवं प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया है। इस भाष्य में आचार-नियमों के अतिरिक्त आचार्य जिनभद्र ने कुछ भारतीय प्रान्तों के देश स्वभाव की भी चर्चा की है। उन्होंने माना है कि कुछ साधुसाध्वी अपने देश स्वभाव से ही अनेक दोषों से युक्त होते हैं। उनके अनुसार आन्ध्र में उत्पन्न हुआ हो और अक्रूर हो, महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो और अवाचाल हो, कोसल में पैदा हुआ हो और अदुष्ट हो, ऐसा १०० में से एक भी मिलना मुश्किल है। इसी प्रकार उनके द्वारा रचित ओघनियुक्ति भाष्य और पिण्डनियुक्ति भाष्य में क्रमश: वैयावृत्ति, संयम, तप, समिति, भावना एवं पिण्ड सम्बन्धी विषयों
SR No.525073
Book TitleSramana 2010 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy