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________________ १२६ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १० जैन जगत् जैन - परम्परा और यापनीय संघ लेखक, प्रो. (डॉ.) रतनचन्द्र जैन, भोपाल, प्रकाशक- सर्वोदय जैन विद्यापीठ, १/२०५ प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा, ई. २००९ प्रथम संस्करण, मूल्य रु.५००, पृष्ठ संख्या २३३५ (६४५ + ८४३ + ८४७) यह विशालकाय ग्रन्थ तीन खण्डों में विभक्त है तथा प्रत्येक खण्ड अध्यायों तथा प्रकरणों में विभक्त है। इस ग्रन्थ में जैन संघों के इतिहास, साहित्य, सिद्धान्त और आचार की गवेषणा की गई है। दिगम्बर विद्वान् पं. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य और इतिहास', दिगम्बर विदुषी डॉ. कुसुम पटोरिया द्वारा लिखित 'यापनीय और उनका साहित्य' तथा श्वेताम्बर विद्वान् प्रो. (डॉ.) सागरमल जैन द्वारा लिखित, 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' वस्तुतः इन तीन ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयवस्तु के निराकरणार्थ प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन किया गया है। दिगम्बराचार्य परम पूज्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज का लेखक को विशेष आशीर्वाद प्राप्त है। प्रो. (डॉ.) सागरमल जी से इस ग्रन्थ के लेखक का मैत्री सम्बन्ध भी है तथा उन्होंने अपने ही मत के निराकरणार्थ लेखक को सहयोग दिया है, जो मैत्री तथा उदार - भावना का परिचायक है। दोनों का उद्देश्य शोध करके वस्तुस्थिति को प्रकट करना है, वैमनस्य नहीं। विद्वानों को सभी ग्रन्थों के तर्कों और प्रमाणों का सम्यक् चिन्तन करके सौहार्द बनाए रखना चाहिए । १. कसायपाहुड, २. कसायपाहुड - चूर्णिसूत्र, ३. षट्खण्डागम, ४. भगवती-आराधना, ५. भगवती - आराधना की विजयोदया टीका, ६. मूलाचार, ७. तिलोयपण्णत्ति, ८. पद्मपुराण, (रविषेण), ९. वराङ्गचरित, १०. हरिवंश पुराण, ११. पउमचरिउ (स्वयम्भू), १२. बृहत्कथाकोश, १३. छेदपिण्ड, १४. छेदशास्त्र, १५. प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी (प्रतिक्रमण, बृहत्प्रतिक्रमण और आलोचना ) तथा १६. तत्त्वार्थसूत्र (बृहत्प्रभाचन्द्र) इन सोलह दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीय - परम्परा का मानकर उनके आधार पर सवस्त्र - मुक्ति, स्त्री-मुक्ति, परतीर्थिक- मुक्ति, गृहस्थमुक्ति, केवलि-भुक्ति आदि को मूल जैन परम्परा का सिद्धान्त बतलाना तथा आचार्य कुन्दकुन्द को ईसा की पांचवीं शताब्दी का बतलाना, इस ग्रन्थ के लेखक को स्वीकार नहीं है। अपनी इस कृति में लेखक ने विस्तारपूर्वक प्रमाण एवं तर्क- के आधार पर अपने मत की पुष्टि की है। लेखक ने यह सिद्ध किया है कि दिगम्बर परम्परा मूल परम्परा है, यह न तो बोटिक परम्परा है और न यापनीय परम्परा । यापनीय संघ की उत्पत्ति ईसा की ५वीं शताब्दी में हुई और ईसा की १५वीं शताब्दी में विलुप्त हो गई थी। ईसा की ५वीं शताब्दी तक दिगम्बर जैन संघ निर्ग्रन्थ श्रमण संघ के नाम से तथा श्वेताम्बर जैन संघ श्वेतपट श्रमण संघ के नाम से प्रसिद्ध था । लेखक
SR No.525073
Book TitleSramana 2010 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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