SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर-१० उपाधि दी गई। और वे मल्लवादी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ___आचार्य मल्लवादी एक महान् साहित्यकार थे। उनके द्वारा रचित तीन ग्रन्थों की सूचना मिलती है।१३ १. द्वादशारनयचक्र, २. पद्मचरित, ३. सन्मति तर्क टीका। द्वादशारनयचक्र न्याय विषय का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में चक्र के बारह आरों के समान बारह अध्याय थे परन्तु दुर्भाग्यवश वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। बताया जाता है कि तेरहवीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्र तक यह ग्रन्थ विद्यमान था। प्रभावकचरित में प्रशंसापूर्वक यह कहा गया है कि प्रतिवाद रूपी गजकुम्भ को भेदने में केसरी तुल्य इस ग्रन्थ का वाचन मल्लवादी ने अपने शिष्य समुदाय के सम्मुख किया।१४ उनके द्वारा रचित पद्मचरित में राम के गुणों का वर्णन किया गया था। यह ग्रन्थ भी वर्तमान में नहीं मिलता। मल्लवादी का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ सन्मतितर्क टीका थी। वर्तमान में यह ग्रन्थ भी अप्राप्य है। यह प्रसिद्ध कृति आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर मल्लवादी की टीका थी। इस टीका के कुछ उद्धरण कालान्तर के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। उदाहरणस्वरूप आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ अनेकान्तजयपताका में मल्लवादी के इस ग्रन्थ से कई उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। आचार्य हरिभद्र के इस उद्धरण से मल्लवादी की तिथि-निर्धारण में सहायता मिलती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मल्लवादी हरिभद्र के पहले विद्यमान थे। इसके अतिरिक्त प्रभाचन्द्राचार्य ने प्रभावकचरित में मल्लवादी के साथ बौद्धों के शास्त्रार्थ की तिथि दी है जो५ वीर निर्वाण संवत् ८८४ अर्थात् वि.सं. ४१४ (४७१ई.) से समीकृत की जा सकती है। पश्चिम भारत के जैन आचार्यों में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अपने साहित्यिक अवदानों के कारण वे जैन परम्परा में अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं। इनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमें अल्प ज्ञान है परन्तु कालान्तर में जैन आचार्यों ने उनके महत्त्वपूर्ण कार्य को देखते हुए उन्हें आचार्य परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। इनका जन्म स्थान कहाँ था, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं हैं परन्तु इनका वलभी से घनिष्ठ सम्बन्ध था, यह अवश्यमेव प्रमाणित होता है। उनके द्वारा कृत विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति जिसमें शक सम्वत् ५३१ (६०९ ई.) उल्लिखित है,१६ वलभी के एक जैन मन्दिर में समर्पित की गई थी। इस सन्दर्भ से यह स्पष्ट हैं कि जिनभद्रगणि इसके पहले के थे। प्रसिद्ध कलाविद् प्रो. उमाकान्त शाह को अकोटा ग्राम से दो प्रतिमाएँ मिली हैं। उन्होंने प्रतिमाओं के लेखों में उत्कीर्ण आचार्य जिनभद्र को
SR No.525073
Book TitleSramana 2010 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy