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३८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर - १०
है। वर्तमान में भी पश्चिम भारत जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में दिखाई देता है। इन आचार्यों को समाज तथा शासकीय दोनों स्तरों पर सहयोग मिला। आचार्यों के सादगीपूर्ण जीवन के प्रति समाज में अत्यन्त श्रद्धाभाव था। सामान्य वर्ग इनके दैनिक जीवन के उपभोग में आने वाली वस्तुओं का दान देता था। आचार्यों तथा भिक्षु भिक्षुणियों के अध्ययन-अध्यापन में कोई बाधा न आये, इसका ध्यान रखा जाता था। आचार्यों को राजकीय स्तर पर भी शासकों का सहयोग एवं संरक्षण प्राप्त हुआ । कालान्तर की शताब्दियों में अनेक जैन आचार्यों ने कई राजदरबारों को सुशोभित किया और अपनी लेखनी एवं तपस्यापूर्ण जीवन से न केवल राजाओं, राज-परिवारों, उच्च पदस्थ अधिकारियों अपितु पूरे जनमानस को प्रभावित किया।
सन्दर्भ ग्रन्थ
१.D.APN, Vol. 1, page 117 118, F.N-3 २. तीर्थोद्गारित, पृ० ६९६
३. आवश्यकचूर्णि, पृ० १८७
४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग एक, पृ० १२७-२८
५. वही, पृ० १३२-३३
६. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ५५
७. प्राकृत प्रापर नेम्स, भाग एक, पृ० ३८४
८. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३१४ ९. वही, पृ०३१५
१०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान,
११. प्रभावक चरित, पृ० ७७
१२. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३३४, प्रबन्धकोश पत्राङ्क, २२
१३. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ० ३४१
१४. वही, पृ० ३४२
१५. प्रभावक चरित, पृ० ७९
१६. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य,
१७. वही, पृ० ३७७
१८. वही, पृ० ३७६
१९. वही, प० ३८१
पृ० ३४४
२०. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, २१. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, पृ. ३८०
पृ० ७०
पृ. ७२