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६८ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १०
गुहा तथा विहारों में रहकर अध्ययन का कार्य करने लगे। इसके लिये उपासक वर्ग जिसमें राजा से लेकर सामान्य जन भी सम्मिलित थे, के द्वारा भवन, वसदि, जिनशाला इत्यादि का निर्माण करवाकर दान किया गया जिससे भिक्षु वर्ग शांतिमय वातावरण में रहकर अपने श्रमण आदर्शों का पालन कर सकें।
जैन भिक्षुओं के वर्षावास के लिये भवन, गुहा, विहार, वसदि, चैत्य आदि के निर्माण तथा उसके दान के कुछ अन्य अभिलेखीय उदाहरण इस प्रकार हैं
१. चालुक्य शासक विजयादित्य षष्ठ द्वारा भवन का दान १३ । २. होयसल नरेश त्रिभुवनमल्ल के सामंत लक्ष्मण १४ द्वारा जैन वसदि की
स्थापना।
३. होयसल त्रिभुवनमल्ल वल्लाव देव द्वारा शीत रक्षा के उद्देश्य से जैन भिक्षुओं हेतु भवन दान | १५
४. चालुक्य शासक त्रिभुवनमल्ल के शासनकाल में सामंत एवं राज्याधिकारियों द्वारा वसदि का दान | १६
गुहा, विहार में रहने वाले भिक्षुओं की आवश्यकताओं की पूर्ति (आहार, औषधि आदि) उपासक वर्ग द्वारा ही की जाती थी किन्तु, संघ विस्तार तथा जैन धर्म की लोकप्रियता के कारण जैन भिक्षुओं की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गयी और उपासक वर्ग द्वारा भिक्षुओं की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन हो गया। फलतः भिक्षुओं के निमित्त क्षेत्रदान तथा ग्रामदान की प्रथा प्रचलित हो गयी। जैन विहार को ग्रामदान अथवा भूमिदान के उदाहरण चौथी शताब्दी ईस्वी से ही मिलने लगते हैं। कदम्ब नरेश काकुस्थ वर्मा के शासन के चौथे वर्ष में जारी एक दानपत्र १७ में यह उल्लेख है कि काकुस्थ वर्मा ने कालखड़ग नामक ग्राम को तीन भागों में विभाजित कर एक भाग पुष्कल में स्थापित अर्हत्शाला को जिनेन्द्र देव की पूजा के लिये तथा अन्य दो भाग क्रमशः धर्माचरण में रत श्वेताम्बर महाश्रमण तथा निर्ग्रन्थ महाश्रमणों के उपभोग के लिये निवेदित किया। चालुक्य, गंग, चौहान १९ तथा होयसल २० राजाओं तथा उनके अधीन सामंत शासकों द्वारा भी जैन चैत्य निर्माण तथा तत्सम्बन्धी व्यवस्था एवं भिक्षुओं के आहार आदि के लिये करमुक्त ग्राम, दान में दिये गये। जैन भिक्षु संघ तथा विहारों को दिये गये कर-मुक्त ग्रामदानों के उदाहरण पश्चिम भारत ( राजस्थान, गुजरात) से लेकर दक्षिण भारत तक के क्षेत्रों में अधिक दिखाई देते हैं। ये सभी क्षेत्र जैन धर्म के विकास