Book Title: Sramana 2010 07
Author(s): Ashok Kumar Singh, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 68
________________ प्राचीन भारत में भूमिदान की परम्परा : ६७ आरम्भिक जैन साहित्य में जैन भिक्षुओं के निमित्त आवास दान (गुहा, विहार, चैत्य, वसदि) का कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु बाद में संघ की प्रक्रिया में धीरे-धीरे जैन भिक्षुओं के निमित्त निश्चित आवास की परम्परा प्राप्त होने लगती है। जिनसेन के आदिपुराण में भूमि, क्षेत्र तथा वसदि बनाकर दान दिये जाने के अनेकशः विवरण प्राप्त होते हैं। शिवकोटि की रत्नमाला' में भी जैन मुनियों के लिये निश्चित चैत्यवास के विधान किये गये हैं। सम्भवत: यही व्यवस्था बाद में चैत्यवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक सिद्ध हुई। रत्नमाला में भिन्न-भिन्न आवासों में रहने वाले भिक्षुओं को भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है यथा-गुहावासी, वनवासी, स्तूपवासी तथा चैत्यवासी। इससे स्पष्ट होता है कि चैत्य एवं अर्हत् पूजा के लिये निर्मित मन्दिर जैन साधुओं के उपाश्रय स्थल थे। उल्लेखनीय है कि आवासीय भिक्षुओं के साथ-साथ पारम्परिक आस्थाओं वाला भिक्षुओं का एक वर्ग (वनवासी) भी समाज में हमेशा विद्यमान रहा जिसे आचार-शैथिल्य की उपर्युक्त दशायें (चैत्यवासी परम्परा) स्वीकार्य न थीं। जैनाचार्य गुणभद्र ने आवासीय मुनियों की इस प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हुये कहा है कि-"जैसे रात्रि में इधर-उधर के भयभीत हुये मृग ग्राम के समीप आ बसते हैं, उसी प्रकार कलिकाल के तपस्वी जन भी वनों को छोड़ ग्रामों में आश्रय लेते हैं। ये बड़ी दु:खद बात है।" जैन साहित्य तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि जैन भिक्षुओं को भूमिदान गुहा, विहार, वसदि, खेत तथा ग्राम आदि के रूप में दिया गया। गुहा, विहार आदि का दान जैन भिक्षुओं के निवास के लिये तथा खेत, आदि तथा करमुक्त ग्रामों, का दान आहार, औषधि तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दिया गया। बौद्ध तथा आजीविकों के निमित्त गुहादान के उदाहरण मौर्यकाल से ही प्राप्त होने लगते हैं, किन्तु जैन भिक्षुओं के आवास हेतु गुहा निर्माण की परम्परा की शुरुआत कलिंग नरेश खारवेल ने की। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख११ में यह उल्लेख आया है कि खारवेल ने अपने राज्यकाल के १३वें वर्ष में जैन अर्हतों के लिये उदयगिरि में १६ तथा खण्डगिरि में १९ गुफाओं का निर्माण कराया था। मंछापुरी अभिलेख१२ में खारवेल की अग्रमहिषी द्वारा भी कलिंगदेशीय जैन भिक्षुओं के निवासार्थ गुहा बनवाने का उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय है कि प्रारम्भ में इस प्रकार के गुहादान मात्र वर्षावास के लिये दिये गये थे, किन्तु धीरे-धीरे जैन धर्म के शिथिल होते नियमों, जिन मन्दिरों के निर्माण तथा मूर्तिपूजा के विकास के साथ-साथ कुछ जैन भिक्षुओं ने स्थायित्व का मार्ग ढूंढ़ निकाला और ये सम्मिलित रूप से

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