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६४ : श्रमण, वर्ष ६१, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर- १०
उण्णवाणिय, सुत्तवाणिय, जतुकार, चित्तकार, चित्तवाजी, तट्ठकार या ठठेरा, सुद्धरजक, लोहकार, सीतपेट्टक, कुम्भकार, मणिकार, संखकार, कंसकार, पट्टकार, दुस्सिक, रजक, कोसेज्ज, वाग, ओरब्भिक, महिसघातक, उस्सणिकामत्त, छत्तकारक, वत्थोपजीवी, फलवाणिय, मूलवाणिय, धान्यवाणिय, ओदनिक, मंसवाणिज्ज, कम्मासवाणिज्ज, आपूपिक, खज्जकारक, पण्णिक, फलवाणियक, सिंगरेवाणिया, आगेतित्थवापतं, रथकार, दारुक, महाणसिक का उल्लेख है। साथ ही कुंभकारिक, इड्डुकार, कंसकारक, ओयकार, ओड, मूलखाणक, बालेपतुंद, सुत्तवत्त, वत्ता, रूवपक्खर, फलकारक, सीकाहारक मड्डहारक, कोसज्जवायक, दिअंडकंबलवायका, कोलिका, वेज्ज, कायतेगिच्छका, सल्लकत्त, सालाकी, भूतविज्जिक, कोमारभिच्च वितित्थिक, गोहातक, मायाकारक, गौरीपाढक, लंखक, मुट्ठिक, लासक, वेलंबक, गंडक, घोषक आदि प्रकार के शिल्पियों का उल्लेख कर्म-योनि नामक प्रकरण में आया है।
अंगविज्जा के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व को देखते हु आगे आवश्यकता है कि इस ग्रन्थ में दिये शिल्पों और शिल्पकारों के वर्गों के बारे में विशद और सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तथा उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति के बारे में निश्चित जानकारी प्राप्त कर विश्लेषण किया जाए। ऐसे अध्ययन से श्रम की प्रधानता को नकारने के दोष को दूर कर आगे उसकी प्रतिष्ठा का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
सन्दर्भ
१. अंगविज्जा, वॉल्यूम - १, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, सम्पादक - मुनि पुण्यविजय, पृ. २६५
२ . वही, पृ. १५, भूमिका, पृ. ५८
३. वही, पृ. १७
४. वही, पृ. २७, ३०
५. वही, पृ. ६४-६५
६. वही, पृ. ७१
७. वही, पृ. १६२
८, वही, पृ. २१७
९. वही, पृ. १४६ १०. वही, पृ. १५९-१६१
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